भारत में बनने वाली वस्तुएं और बतौर ब्रांड उनका मोल | जिंदगीनामा | | कनिका दत्ता / June 11, 2020 | | | | |
सन 1980 के दशक के उत्तराद्र्ध में राजीव गांधी के शुरुआती उदारीकरण के दौरान जब भारतीय वाणिज्यिक वाहन निर्माताओं और जापान की कंपनियों के बीच समझौते हुए तो इस रुझान को कलकत्ता (कोलकाता) के जीर्णशीर्ण कुटीर उद्योग ने भी पूरे मन से अपनाया। अचानक ही बड़ा बाजार के आसपास के फुटपाथ पर लगने वाली दुकानें जापानी ब्रांड नाम वाली सस्ती घरेलू वस्तुओं से पट गईं। इन वस्तुओं के कारोबारी भी खासे ईमानदार थे। उन्होंने निसान या सोनी जैसी कंपनियों के लेबल के बजाय जापानी लगने वाले दूसरे नाम चुने, मसलन ईशीबिशी या माकानिशी आदि।
इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि ये कारोबार सफल हुए या नहीं अथवा क्या ये भारतीय-जापानी वाणिज्यिक वाहन निर्माताओं की तरह कामयाब रहे या नहीं। लेकिन उनको उनकी उद्यमी सोच के लिए अवश्य सराहा जाना चाहिए। उन्होंने उस समय विदेशी वस्तुओं को लेकर भारतीयों के अनुराग को पहचाना जब आत्मनिर्भरता हमारी प्रमुख आर्थिक नीति हुआ करती थी और हर बड़े शहर में तस्करी से लाई गई विलासिता की वस्तुओं का एक फलता-फूलता बाजार हुआ करता था। स्वदेशी की अवधारणा ब्रिटिशों को देश से बाहर निकालने के लिए बेहतर थी लेकिन आजाद भारत में व्यक्तिगत रूप से लोगों की इसमें रुचि नहीं थी।
अब जबकि आत्म निर्भरता, मेक इन इंडिया आदि के रूप में उस पुरानी अवधारणा की वापसी हो रही है तो यह देखना रोचक होगा कि आने वाले वर्षों में देश में ब्रांड निर्माण क्या स्वरूप ग्रहण करता है? बतौर राजनीतिक सिद्धांत ये नारे एक खास राजनीतिक आधार को प्रतिध्वनित करते हैं। बतौर आर्थिक नीति देखा जाए तो इंदिरा गांधी की आर्थिक नीतियां हमारे लिए सबक हैं।
आत्मनिर्भरता शब्द पिछले दिनों उस समय विवादों में आया जब घोषणा की गई कि 1 जून से केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों की कैंटीनों में केवल भारत में बनी स्वदेशी वस्तुओं की बिक्री की जाएगी। जल्दी ही गृह मंत्री की ओर से सफाई आई कि इसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बनाई गई वे वस्तुएं भी शामिल होंगी जिनका उत्पादन भारत में होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि चीन में बनी वस्तुएं और मोबाइल फोन आदि वहां नहीं मिलेंगी।
यह आत्म निर्भरता का एक उन्नत संस्करण है जहां भारत को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश का केंद्र बनाने की सोच है। लेकिन क्या भारतीय उपभोक्ताओं में भारत में बनी वस्तुओं को लेकर वैसा आकर्षण होगा?
कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत में विनिर्माण को बढ़ावा देना अवांछित है क्योंकि ये उपक्रम भी उन्हीं शर्तों पर प्रतिस्पर्धा करते हैं जिन पर शेष विश्व। कारोबारी सुगमता की खराब हालत को शुल्क दरें बढ़ाकर प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता। वाहन उद्योग इस बात का एक बढिय़ा उदाहरण है कि कैसे स्थायी तरीके से स्वदेशीकरण किया जा सकता है। इससे वाहन कलपुर्जों का एक मजबूत उद्योग तैयार हुआ। मोबाइल फोन के लिए चरणबद्ध विनिर्माण कार्यक्रम जिसकी शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में की थी उससे आयात में भारी कमी आई और स्थानीय इकाइयों में इजाफा हुआ और भारत चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा स्मार्टफोन बनाने वाला देश बना।
सफलता की यह हालिया कहानी स्वदेशी की रणनीति की संभावनाओं और सीमाओं दोनों को रेखांकित करती है। वाहन उद्योग जहां घटते शुल्क वाली व्यवस्था में बढ़ा और विकसित हुआ वहीं चरणबद्ध विनिर्माण कार्यक्रम ने कच्चे माल पर बढ़ती शुल्क दरों के बीच मजबूती हासिल की।
परंतु सचाई यही है कि अकियो मोरिटा की मेड इन जापान के सफल उदाहरण के उलट मेड इन इंडिया वैसा नहीं है जिसकी भारत में ब्रांडिंग की जाए। आज देश का स्मार्ट फोन बाजार वैश्विक चीनी और कोरियाई ब्रांडों के बीच बंटा हुआ है। ऐपल जैसा प्रसिद्ध अमेरिकी ब्रांड भी एक चीनी कंपनी द्वारा बनाया जाता है। यह विडंबना ही है कि चरणबद्ध विनिर्माण कार्यक्रम के तहत भी बड़ा बदलाव चीनी हैंडसेट ब्रांड ही लेकर आए। माइक्रोमैक्स जैसा भारतीय ब्रांड (जिसका ज्यादातर हिस्सा चीन में बनता है) धूमकेतु की तरह उभरा और खो गया।
चाहे एयर कंडीशनर हों, घरेलू उपकरण, मनोरंजन से जुड़े इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पाद या दैनिक उपयोग की उपभोक्ता वस्तुएं, इन सभी क्षेत्रों में प्रमुख प्रतिस्पर्धी विदेशी हैं। देश में विनिर्माण के अपने लाभ हैं लेकिन हर एमबीएधारी यह जानता है कि असली मूल्यवर्धन ब्रांड निर्माण में निहित है। ऐसे में यदि सरकार स्थानीय निर्माण को बढ़ावा देने के लिए शुल्क दर बढ़ाने की नीति जारी रखती है तो भी नीति तभी कारगर हो सकती है जब भारतीय उपभोक्ताओं को अधिक स्थानीय घटक वाली वस्तुएं मुहैया कराई जाएं। परंतु इससे भारत को प्रतिस्पर्धी और चीन की तरह दुनिया की फैक्टरी एवं कारोबारी दृष्टि से व्यवहार्य बनाने का उद्देश्य पूरा नहीं होगा। संपूर्ण विनिर्माण मूल्य शृंखला में बहिर्मुखी होने के कारण ही चीन श्याओमी, ओप्पो, वन प्लस, अलीबाबा जैसे वैश्विक ब्रांड तैयार करने में कामयाब रहा।
वाहन उद्योग से एक संकेत निकलता है कि भारत निर्यात का कोई बड़ा केंद्र नहीं है लेकिन टाटा और महिंद्रा के रूप में मजबूत घरेलू प्रतिस्पर्धी सामने आए हैं। यकीनन यह एक लंबी प्रक्रिया रही है। सन 1980 के दशक के आखिर में भारी ईंधन खपत वाली स्टैंडर्ड 2000 से लेकर सन 1990 के दशक के आरंभ में डेवू सिएलो तक। ये सारे लाभ घटते संरक्षणवाद के माहौल में मिले। इससे यही संकेत मिलता है कि गैर वैचारिक आत्मनिर्भरता का विचार उस राष्ट्रवादी विचार से बेहतर और कारगर है जो भारत को शेष विश्व की आपूर्ति शृंखला से अलग कर देती है।
|