अर्थदंड लगाने में सेबी का होना चाहिए था सख्त रुख | बाअदब | | सोमशेखर सुंदरेशन / June 08, 2020 | | | | |
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) इन दिनों भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) पर सात लाख रुपये का जुर्माना लगाने की वजह से सुर्खियों में है। कुछ लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि एक नियामक दूसरे नियामक को किस तरह दंडित कर सकता है जबकि कुछ लोग इसे एक मील का पत्थर बता रहे हैं। इनमें से कोई भी नजरिया अनुबद्ध नहीं है क्योंकि यह सुनिश्चित करना सेबी का दायित्व है कि शेयर बाजारों में सूचीबद्ध प्रतिभूतियों के जारीकर्ता और बाजार में खरीद-बिक्री करने वाले लोग कानून द्वारा निर्धारित प्रावधानों का ठीक से पालन करें।
लेकिन यह लेख इस नियामकीय फैसले के गुण-दोष के बारे में नहीं है। इस लेख का संबंध अनुपालन और जुर्माना लगाने को लेकर नियामकीय रवैये के बारे में है। लगातार चार साल से छमाही खत्म होने के 45 दिनों के भीतर वित्तीय नतीजे जारी नहीं कर पाने पर सेबी ने एनएचएआई पर सात लाख रुपये का जुर्माना लगाया है जिसमें हरेक छमाही के लिए एक-एक लाख रुपये शामिल हैं। एनएचएआई ने सूचीबद्ध बॉन्ड जारी कर बाजार से करीब 15,000 करोड़ रुपये जुटाए हैं। नतीजे जारी करने में कुछ विलंब तो केवल चार दिनों के ही हैं लेकिन एक बार तो नतीजे जारी करने में एनएचएआई ने 78 दिनों की देरी की हुई है।
इस पर एनएचएआई का यह जवाब रहा है कि इसके निदेशकों की अन्य व्यस्तताओं की वजह से बोर्ड की बैठक तय समय पर नहीं हो पाई जिससे नतीजे समय पर नहीं जारी किए जा सके। संभवत: एनएचएआई ने कानून के तकनीकी पहलू का सहारा लेते हुए यह तर्क दिया है कि एक सरकारी एजेंसी के खिलाफ अभियोग के लिए सरकार की अनुमति की जरूरत होती है (वैसे यह मामला फौजदारी अभियोजन का न होकर दीवानी जुर्माना प्रक्रिया का है)। इसके साथ ही एनएचएआई ने सेबी से इस विलंब के लिए दोषी अधिकारियों की पहचान करने को भी कहा है (इस तरह मामला बोर्ड बैठकों में शामिल नहीं हुए व्यस्त अफसरशाहों की तरफ जाता)।
निजी क्षेत्र के एक बॉन्ड जारीकर्ता की तरफ से अगर इसी तरह की दलीलें दी जातीं तो शायद बाजार नियामक को बहुत नागवार गुजरता। निजी क्षेत्र के बॉन्ड जारीकर्ता पर ऐसा जुर्माना लगाने को एक प्रतीक के तौर पर देखा जाता। समय-समय पर दी गई चेतावनियों के बावजूद लगातार चार वर्षों तक अपने वित्तीय नतीजे निर्धारित अवधि में नहीं देने पर उस निजी कंपनी पर कहीं अधिक सख्त नियामकीय कदम उठाए गए होते। संभावना यह है कि बॉन्ड जारीकर्ता और उसके प्रवर्तकों को भविष्य में पूंजी जुटाने से बाजार से रोक दिया जाता या फिर उन्हें म्युचुअल फंड इकाइयों समेत प्रतिभूतियों में सौदे न करने को भी कह दिया जाता। शायद उसके निदेशकों को किसी भी दूसरी सूचीबद्ध कंपनी से एक समुचित अवधि तक न जुडऩे के लिए निर्देशित किया जाता।
जहां तक अर्थदंड लगाने का सवाल है तो कानून हरेक उल्लंघन पर प्रतिदिन विलंब पर एक लाख रुपये के हिसाब से अधिकतम एक करोड़ रुपये का जुर्माना लगाने की अनुमति देता है। इस तरह एनएचएआई पर अधिकतम सात करोड़ रुपये का अर्थदंड लगाया जा सकता था लेकिन उस पर केवल सात लाख रुपये का ही जुर्माना लगाया गया है। किसी भी निजी बॉन्ड जारीकर्ता के मामले में नियामकीय हस्तक्षेप का सिद्धांत यह है कि जितनी बड़ी कंपनी होगी, उससे नियमों के अनुपालन की उतनी ही अधिक अपेक्षा रहती है। असल में अर्थदंड के मामले में भी जब सक्षम अधिकारी दंडित करते हैं तो सेबी अधिनियम में उस जुर्माने की समीक्षा करने का प्रावधान भी है। अगर यह लगे कि अद्र्ध-न्यायिक अधिकारी को अधिक कड़ा दंड लगाना चाहिए था तो समीक्षा कर उसे बढ़ाया भी जा सकता है। शायद सेबी आगे चलकर इस शक्ति का इस्तेमाल कर एनएचएआई पर लगे जुर्माने की समीक्षा करे। यह भी हो सकता है कि सेबी ऐसा न करे।
बाजार का यह स्थापित नियम है कि जब कोई दिग्गज कंपनी भी स्टॉक एक्सचेंज का हिस्सा बनती है तो उसे किसी भी अन्य कंपनी की तरह कानूनी तौरतरीकों का सामना करना पड़ता है। अगर उस दिग्गज कंपनी के किसी प्रतिनिधि पर मामूली चपत लगाई जाती है तो उससे बाजार के भीतर कानून की नजर में सबके समान होने की धारणा को कोई बल नहीं मिलता है।
वास्तव में, दिग्गज कंपनी एवं सामान्य कंपनी के साथ नियामकीय आचरण में अगर इस तरह का विभेद है तो नाममात्र का अर्थदंड लगाने भर से वह भरोसा और कम ही होगा कि कानून सबके साथ एकसमान व्यवहार करता है। अगर अपनी बात को दोहराएं तो सवाल गुण-दोष का न होकर नियामक के दृष्टिकोण एवं सोच का है।
(लेखक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)
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