श्रम कानून नहीं होंगे दरकिनार | |
सोमेश झा / 05 26, 2020 | | | | |
बीएस बातचीत
लॉकडाउन में लाखों प्रवासी श्रमिकों को पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ी। श्रम एवं रोजगार मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने सोमेश झा से बातचीत में कहा कि अधिकांश श्रमिक घर लौट चुके हैं और मॉनसून के बाद उनके वापस आने की उम्मीद है। उन्होंने कुछ राज्यों द्वारा श्रम कानून खत्म करने और श्रमिकों की मदद के उपायों पर बात की...
उद्योग जगत के अनुसार भारत में श्रम कानून काफी जटिल है। श्रमिकों को भी इनसे विशेष लाभ नहीं मिल पाया है। आपको लगता है कि इन कानूनों से मजदूर और उद्योग किसी को लाभ नहीं पहुंचा है?
इन समस्याओं से निपटने के लिए ही तो हम श्रम कानून सरल बना रहे हैं और इन्हें चार संहिताओं के तहत ला रहे हैं। हम कामगार और उद्योग दोनों की मदद करने के लिए इन सुधारों को आगे बढ़ाएंगे।
कुछ राज्यों ने श्रम कानूनों में बदलाव के प्रस्ताव दिए हैं? आप इन्हें कैसे देखते हैं?
श्रम संविधान की समवर्ती सूची में शामिल है और इसके लिए राज्य एवं केंद्र दोनों कानून बना सकते हैं। राज्य अपने हिसाब से उसमें बदलाव कर सकते हैं। श्रम कानूनों में कुछ बदलाव के लिए केंद्र की अनुमति की जरूरत नहीं होती है। हम राज्यों के हर निर्णय में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। लेकिन कानून में जो बदलाव हमारी सहमति के लिए आएंगे, उस पर हम निर्णय करेंगे।
क्या ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार कुछ श्रम कानून में बदलाव को बढ़ावा दे रही है?
हमने कोई निर्देश नहीं दिया है बल्कि कुछ सुझाव दिए हैं। लेकिन ये बदलाव अलग थे।
भारत अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन सम्मेलन का हस्ताक्षरकर्ता है और उनमें से एक प्रावधान कहता है कि भारत में सप्ताह में 60 घंटे काम की अनुमति है ...
दो राज्यों ने इस निर्णय को बदला है। हम सभी राज्यों के श्रम मंत्रियों की बैठक करना चाहते हैं लेकिन महामारी के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है। हम उन्हें अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की जरूरतों को ध्यान में रखकर कदम उठाने की सलाह देना चाहते हैं।
क्या सरकार प्रवासी श्रमिकों के मामले को बेहतर तरीके से संभाल सकती थी?
वायरस संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए सरकार को अचानक लॉकडाउन का निर्णय करना पड़ा। श्रमिक आमतौर पर साल में दो-तीन महीने के लिए अपने गांव-घर जाते हैं। जब लॉकडाउन लगाया गया तो श्रमिकों के बीच बीमारी की चिंता बढ़ गई। भारत में 48 करोड़ कामगारों में से करीब 90 फीसदी असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। ये देश भर में फै ले हुए हैं। जब मैं लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में अपने संसदीय क्षेत्र बरेली गया था तो देखा कि कई श्रमिक पैदल ही घर लौट रहे हैं। लेकिन कुछ दिनों बाद पैदल आने वाले श्रमिक नहीं इक्का-दुक्का ही दिखे। छोटे-छोटे इलाकों में समस्या हुई लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा उनके हित में परिवहन, खाना और आश्रय का प्रबंध किया गया। गैर-सरकारी संगठनों ने भी इसमें सहयोग दिया। अब अधिकांश श्रमिक अपने घर पहुंच चुके हैं।
आपको नहीं लगता कि सरकार की रणनीति उलट है, क्योंकि शुरू में श्रमिकों को घर जाने नहीं दिया जा रहा था लेकिन आर्थिक गतिविधियां शुरू होने के बाद उन्हें घर भेजा जा रहा है?
श्रमिकों के मन में डर बैठ गया है। अब अधिकांश श्रमिक घर लौट चुके हैं और सभी सरकारें उनकी समस्याओं को दूर करने के कदम उठा रही हैं। मुझे लगता है कि यह जून-जुलाई का ऐसा ही रहेगा। मॉनसून के बाद श्रमिक फिर कारखानों में लौटने लगेंगे। तब तक फैक्टरियों में कुशल और अद्र्घ-कुशल श्रमिकों की किल्लत रह सकती है।
क्या सरकार श्रमबल को वापस लाने के लिए कोई प्रोत्साहन की योजना बना रही है?
श्रमिकों में भरोसा बहाल करने की जरूरत है। भारत में मृत्यु दर कम है और असली खतरा हमारी बुर्जुग आबादी को है। मुझे लगता है कि जब तक वे काम पर लौटेंगे स्थिति में सुधार आ जाएगा।
क्या हम इसका अंदाज नहीं लगा पाए कि लॉकडाउन से असंगठित क्षेत्र के करीब 40 करोड़ श्रमिकों को समस्या हो सकती है?
श्रमिकों के कल्याण के लिए सुझावों की सिफारिश करने वाले मंंत्रिसमूह का मैं भी हिस्सा हूं। हमने प्रवासी श्रमिकों के लिए राष्ट्रीय डेटाबेस बनाने की जरूरत के बारे में चर्चा की। प्रधानमंत्री कार्यालय भी इससे वाकिफ है। यह डेटाबेस तैयार करना कठिन है लेकिन इस पर काम चल रहा है।
डेटाबेस बनाने के बाद अगला कदम क्या होगा?
हमारी योजना प्रवासी श्रमिकों को विशिष्ट पहचान क्रमांक देने की है। हमने इस पर भी चर्चा की कि कर्मचारी भविष्य निधि और कर्मचारी राज्य बीमा योजना का लाभ उन तक कैसे पहुंचाया जाए। प्रधानमंत्री प्रवासी श्रमिकों को साामजिक सुरक्षा के दायरे में लाना सुनिश्चित करना चाहते हैं।
मौजूद परिस्थितियों में क्या हमें श्रम सुधार की प्रक्रिया पर दोबारा विचार करना चाहिए?
जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो उस समय 44 कानूनों को चार संहिताओं में सूचीबद्ध करने का निर्णय लिया गया था। इसका मकसद कानूनों को सरलता से समझना था। 2004 में संप्रग के सत्ता में आने के बाद यह काम अधूरा रह गया। 2014 में भाजपा के सत्ता में लौटने के बाद श्रम संहिता पर बात फिर आगे बढ़ी और वेतन पर संहिता को संसद की मूंजरी भी मिल चुकी है। अब जुलाई में संसद के सत्र में दो संहिताओं- पेशेवर सुरक्षा एवं स्वास्थ्य और स्वास्थ्य एवं औद्योगिक संबंध- पर संभवत: विचार होगा। इन सुधारों को लेकर पूरी दुनिया की नजर भारत पर है। हम निवेश आकर्षित करना चाहते हैं और श्रम कानूनों में सुधार की दिशा में काम कर रहे हैं।
सरकार अध्यादेश लाने का रास्ता चुन सकती है?
इसकी शायद ही जरूरत होगी, क्योंकि जुलाई में संसद का मॉनसून शुरू होगा।
महामारी के बाद ऐसा नहीं लगता कि श्रम कानून में बदलाव पर पुनर्विचार की जरूरत है?
हां, संगठित क्षेत्र के दायरे में और अधिक असंगठित क्षेत्र को लाने की कोशिश करेंगे। विभिन्न उपायों पर चर्चा की जा रही है।
प्रवासी मजदूरों की समस्याओं से निपटने के लिए अंतर-राज्यीय प्रवासी मजदूर कानून, 1949 निष्प्रभावी था?
यह निष्प्रभावी था और हमें ऐसे कानूनों में बदलाव की जरूरत है। सबसे पहले प्रवासी मजदूरों का एक राष्ट्रीय आंकड़ा तैयार करने की जरूरत है।
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