मंडियों का एकाधिकार खत्म करने की प्रक्रिया आसान नहीं | संजीव मुखर्जी / May 25, 2020 | | | | |
कई बार की विफलता के बाद केंद्र सरकार देश के किसानों के लिए एक बार फिर कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) का तथाकथित प्रभुत्व समाप्त करने का प्रयास कर रही है।
किसानों को अपनी उपज सीधे उपभोक्ताओं को बेचने की मंजूरी के लिए मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक ने अध्यादेशों के माध्यम से अपने मंडी अधिनियमों में संशोधन का फैसला किया है। इसके बाद निजी मंडियों की स्थापना और व्यापारियों को किसी भी मंडी में व्यापार के लिए एक समान लाइसेंस देने की अनुमति देते हुए केंद्र सरकार ने केंद्रीय कानून लाने का फैसला किया। इसमें कृषि जिंसों में अंतर-राज्यीय व्यापार करना आसान होगा ताकि किसान उन आढ़तियों या बिचौलियों की खरीद के एकाधिकार से बच सकें जो नियंत्रित बाजारों में काम करते हैं और अपनी उपज के लिए उनकी कई बाजारों तक पहुंच रहती है।
देश के 36 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में 7,000 से अधिक नियंत्रित बाजार या एपीएमसी और 22,000 से अधिक उप-बाजार हैं जिनमें से आधे किसी न किसी प्रकार के विनियमन के अंतर्गत आते हैं। योजना यह है कि मौजूदा बाजार संरचना को बनाए रखा जाए, लेकिन उनमें विविधता लाई जाए ताकि भारत के लगभग 14 करोड़ किसानों को बेहतर दाम दिलाए जा सकें। उदाहरण के लिए कृषि उत्पादों में ई-कारोबार की रूपरेखा उपलब्ध कराने के लिए इस कानून की उम्मीद की जाती है। इलेक्ट्रॉनिक-राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम) अब तक ऐसा नहीं कर पाया है। हालांकि अब तक यह केंद्रीय कानून अंतिम तौर पर उजागर नहीं हुआ है, लेकिन सरकारी सूत्रों का कहना है कि इसे संविधान की सातवीं अनुसूची के प्रावधानों से अपने अधिकार मिलेंगे। कृषि विश्लेषकों ने इस पहल का अधिकांश रूप से स्वागत किया है, लेकिन हालिया इतिहास बताता है कि इसे लागू करना अधिक चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
वर्ष 2003 में केंद्र ने देश में नियंत्रित बाजारों में सुधार के लिए पहले आदर्श एपीएमसी अधिनियम की चर्चा की थी। बेहिसाब समितियां और पैनल इस संबंध में सिफारिशें कर चुके हैं। अनुबंध खेती के लिए कानून बनाते हुए तथा निजी बाजारों और स्थलों को बढ़ावा देते हुए किसानों को वैकल्पिक बिक्री के विकल्प देने के प्रयास 15 साल से भी अधिक समय से होते रहे हैं। बहुत-से राज्यों ने कई फलों और सब्जियों को एएमपीसी के दायरे से बाहर रखा है।
लघु किसान कृषि कारोबार समूह (एसएफएसी) द्वारा समर्थित पंजाब में किसान मंडी या अपनी मंडी, तमिलनाडु में उझावेर सैंधैस, ओडिशा के कृषक बाजार या दिल्ली किसान मंडी के रूप में परीक्षण अथवा आंध्र प्रदेश में ऋतु बाजार काफी समय से चल रहे हैं जहां किसान बिना बिचौलियों के सीधे उपभोक्ताओं को उत्पाद बेचते हैं। कुल मिलाकर वर्तमान में देश भर में 400 से अधिक ऐसे किसान-उपभोक्ता बाजार चल रहे हैं।
एगमार्केट पोर्टल से प्राप्त आंकड़ों पता चलता है कि खाद्य उत्पाद को एपीएमसी प्रणाली के बाहर अच्छी-खासी मात्रा में बेचा जा रहा है। तो इन वैकल्पिक संरचनाओं ने एपीएमसी के एकाधिकार को क्यों नहीं तोड़ा और कृषि आय में बढ़ोतरी क्यों नहीं की? इसका एक प्रमुख कारण यह है कि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में ऋतु बाजार को छोड़कर इन वैकल्पिक बाजारों में से अधिकांश बाजारों में नए ग्राहक आ रहे हैं। इसकी वजह यह है कि वे खेत से बाजार तक उत्पादन पहुंचाने के मामले में आढ़ती द्वारा पेश किए जाने वाले व्यापक बुनियादी ढांचे काइस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। किसानों की आय दोगुनी करने के संबंध में सरकार की समिति का कहना है कि बाजार क्षेत्र में उपभोग क्षमता के मुकाबले अधिक रहने वाले उत्पादन के लिए मांग के साथ-साथ भौतिक संपर्क की भी आवश्यकता होती है।
बड़े प्रसंस्करणकर्ताओं, खाद्य खुदरा विक्रेताओं आदि द्वारा प्रत्यक्ष मांग ने कुछ क्षेत्रों में छिटपुट रूप से काम किया है, लेकिन अधिकांश राज्यों में अभी इस प्रक्रिया पर स्पष्ट नियम नहीं हैं। रिपोर्टों से पता चलता है कि देश के 11 राज्यों द्वारा केवल 200 से कुछ ही ज्यादा प्रत्यक्ष खरीद लाइसेंस जारी किए गए हैं। सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में जारी किए गए हैं।
तीसरा विकल्प अनुबंध खेती है, लेकिन इसमें भी देश में केवल 15 कंपनियां ही अनुबंध खेती में लगी हुई हैं। इनकी भी अधिकतम संख्या महाराष्ट्र और हरियाणा में है।
जहां तक निजी मंडियों की बात है, तो किसानों की आय दोगुनी करने से संबंधित समिति द्वारा एक विश्लेषण में पाया गया है कि इसके लिए केवल 11 राज्यों ने ही नियमों को अधिसूचित किया था और केवल 82 निजी विपणन लाइसेंस ही जारी किए गए थे।
एफपीओ या किसान-उत्पादक संगठन, जिसके तहत किसान उत्पादन और विपणन में आपूर्ति शृंखला के बिचौलियों के तौर पर काम करने के लिए समूह बना सकते हैं, को भी व्यावहारिक वैकल्पिक जरिया माना गया है। लेकिन यहां भी संख्या कम है - करीब 5,000 और इनके परिचालन का दायरा बहुत सीमित है। हालांकि एपीएमसी को शोषक और हितधारकों के प्रति झुकाव रखने वाला माना जाता है, लेकिन फिर भी ऐसे कम ही सबूत हैं जो यह दिखाते हैं कि जिन राज्यों में यह प्रणाली नहीं है, वहां किसान बेहतर सौदे करते हैं। दरअसल गैर-एपीएमसी संरचनाओं की कमजोरियां खराब ढंग से तैयार किए गए वैकल्पिक बाजार नेटवर्क के जोखिमों का सबक देती हैं। आईआईएम-अहमदाबाद मेंकृषि प्रबंध केंद्र के प्रोफेसर और चेयरपर्सन सुखपाल सिंह ने कुछ साल पहले यह पाया था कि बिहार, जिसने वर्ष 2006 में एपीएमसी को खत्म कर दिया था, की नई संरचना में निगरानी की उचित व्यवस्था का अभाव था। बिहार के कृषक समुदाय में बड़ा योगदान करने वाले छोटे और सीमांत किसानों के पास शिकायत करने का कोई विकल्प नहीं था तथा खुली नीलामी का अभाव था जिसका मतलब यह था कि विपणन सुधार के मुख्य आधार यानी प्रतिस्पर्धी मूल्य की खोज नहीं हो सकती थी। पर्याप्त संख्या में बड़े भागीदारों की अनुपस्थिति में वैकल्पिक एकाधिकार का जोखिम एक अन्य चिंता है। इंदिरा गांधी विकास अनुसंधान संस्थान के निदेशक महेंद्र देव का कहना है कि बड़े संगठित भागीदारों को मूल्य शृंखला में लाना अच्छा विकल्प है, लेकिन ऐसा और अधिक प्रतिस्पर्धा लाने के उद्देश्य से किया जाना चाहिए तथा इससे किसी और तरह का शोषण या हितधारकों के प्रति झुकाव न हो। असल में बिहार के कुछ हिस्सों में किसानों का यही अनुभव रहा है।
भारत कृषक समाज के चेयरमैन अजय वीर जाखड़ ने कहा कि किसी भी रूप में नियमन की आवश्यकता है वरना बड़े प्रसंस्करणकर्ता या फिर व्यापारी किसानों का शोषण कर सकते हैं। उदाहरण के लिए बाजार शुल्क कम करना, जैसा उत्तर प्रदेश प्रस्ताव दे रहा है, एक अच्छा कदम है, लेकिन यह सुनिश्चित करना भी महत्त्वपूर्ण है कि व्यापारियों से यह शुल्क हटाने की आड़ में किसानों पर कोई शुल्क नहीं लगाया जाए। उन्होंने कहा कि आप कृषि विपणन क्षेत्र में सुधार कर सकते हैं, लेकिन राज्य को अपनी जिम्मेदारी नहीं त्यागनी चाहिए और सब कुछ निजी भागीदारों पर नहीं छोडऩा चाहिए।
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