देश के लिए अगले 6 महीने होंगे काफी तनाव से भरे | बाजार संकेतक | | देवांशु दत्ता / May 24, 2020 | | | | |
लॉकडाउन का नया चरण आर्थिक गतिविधियों की बहाली के लिए खासा अहम होगा। इस दौरान कारोबार के लिए पाबंदियां काफी शिथिल कर दी गई हैं। सरकार की तरफ से घोषित 20 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की सावधानी से पड़ताल करने की जरूरत है। इस पैकेज में पहले से घोषित कई योजनाओं को भी शामिल कर दिया गया है और आवंटन एवं नकद प्रवाह में वास्तविक वृद्धि असल में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.5 फीसदी ही है। स्वदेशी के पुराने नारों को नए सिरे से पेश किया गया है। इस पैकेज में कोयला खनन के दरवाजे खोलने, हवाईअड्डों के निजीकरण, रक्षा एवं अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी उद्यम एवं बढ़ी हुई एफडीआई की मंजूरी, और एपीएमसी एवं अन्य के उन्मूलन जैसे कदम उठाए गए हैं जो दीर्घावधि में अर्थव्यवस्था के लिए बढिय़ा होंगे। लेकिन इनमें से कुछ कदमों के बारे में कई साल से चर्चा होती रही है लेकिन जमीन पर कुछ नहीं हो पाया। अगर इन बिंदुओं पर अमल होता है तो भी उनके पूरा होने में लंबा वक्त लगेगा। विनिर्माण क्षेत्र में प्रतिस्पद्र्धा कर पाने की भारत की क्षमता कई कारणों से प्रभावित हुई है। एक मुद्दा श्रम कानूनों की संदेहपरक सूची का है। दूसरे मुद्दों में जमीन लेने में दिक्कत, पूंजी की कमी और लालफीताशाही की बेशुमार अड़चनें भी हैं।
पूंजी की कमी उतनी समस्या नहीं होगी, बशर्ते सरकार सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम इकाइयों (एमएसएमई) को आसानी से कर्ज देने में गंभीरता दिखाए। रियल एस्टेट की कीमतों के धराशायी हो जाने से जमीन ले पाना अब आसान होगा। इसके अलावा श्रम सुधारों को अंजाम देने के लिए भी यह एक अच्छा वक्त है। हालांकि कुछ श्रम कानून आवश्यक हैं और अगर पूरे देश में उत्तर प्रदेश का मॉडल ही अपनाया जाने लगे तो गैर-जरूरी नियमों के साथ जरूरी श्रम कानून भी किनारे कर दिए जा सकते हैं। रोजगार के लिए परेशान लोग कम वेतन एवं अमानवीय हालात की चपेट में आ सकते हैं। अगर ये सुधार न्यायसंगत नहीं होते हैं तो फिर देश में श्रमिक असंतोष पैदा होगा। स्थानीय स्तर पर उत्पादन को बढ़ावा देने की मुहिम के साथ सार्थक सुधार नहीं किए गए तो इसके खराब नतीजे ही आएंगे। हमारे इतिहास के एक लंबे कालखंड 1955-92 के दौरान गैर-शुल्क बाधाएं एवं असामान्य रूप से ऊंचे शुल्क होने से आयात बुरी तरह बाधित था। ऐसे में बहुत कम वृद्धि दर का होना कोई हादसा नहीं था। भारत न तो वैश्विक स्तर पर गैर-प्रतिस्पद्र्धी या अलगाववादी होना बरदाश्त कर सकता है। ऊर्जा संसाधनों की कमी के चलते बढ़े आयात बिल को टाला नहीं जा सकता है। इसके अलावा भारत नवीकरणीय उपकरणों के लिए आवश्यक दुर्लभ धातुओं के मामले में भी पीछे है। वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पद्र्धात्मक आयात की भरपाई के लिए पर्याप्त निर्यात आय सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है। कोई भी व्यक्ति चीन, वियतनाम, कोरिया या बांग्लादेश में बने उत्पादों को उन देशों के साथ अपने प्यार एवं लगाव के नाते नहीं खरीदता है। इन देशों ने कम दाम पर बेहतर गुणवत्ता वाले उत्पाद देकर बाजार की हिस्सेदारी हासिल की है। अगर भारतीय कंपनियां संरक्षित परिवेश में रहती हैं तो वैश्विक स्तर पर मुकाबला कर पाने की उनकी क्षमता और कम होगी। इस तरह व्यापार घाटा बढ़ेगा, चालू खाता घाटा भी बढ़ेगा और रुपये पर दबाव भी बढ़ेगा।
1955-1992 काल की उच्च आयात शुल्क एवं गैर-शुल्क बाधाओं की रणनीति की समीक्षा करें तो यही पता चलेगा कि उपभोक्ताओं को कमतर सामान अधिक दाम पर खरीदने को मजबूर किया जाता था। इससे तो केवल तस्करी एवं भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा मिलेगा।
तरलता बढऩे की संभावना और घरेलू कारोबारों को संरक्षण दिए जाने एवं अधिक मार्जिन लेने की छूट को देखते हुए शेयर बाजार तो खुश ही होंगे। लेकिन वास्तविक अर्थव्यवस्था को इससे खुशी नहीं मिलेगी और वृद्धि भी बहाल नहीं हो पाएगी। इसकी वजह यह है कि परिवारों को खराब सामान खरीदने के लिए ही मजबूर किए जाने से उनके पास निवेश के लिए बहुत कम पैसे ही बचेंगे। इस तरह स्थानीय कारोबार को बढ़ावा देने की कवायद संवेदनशील एवं त्वरित सुधारों पर काफी निर्भर करती है। अगर भारत को वैश्विक व्यापार के संदर्भ में एक मुश्किल दौर से निकलना है तो ऐसा करना बेहद जरूरी है। लेकिन इस सरकार के छह साल के पिछले रिकॉर्ड और राहत पैकेज के स्वरूप को देखते हुए ऐसा होने के संकेत कम ही दिख रहे हैं।
अधिकांश वित्तीय सलाहकारी फर्में अप्रैल-मई अवधि की समीक्षा कर रही हैं और वे यह मानकर चल रही हैं कि इस तिमाही में जीडीपी में दो अंकों की गिरावट आएगी। नोमुरा ने वित्त वर्ष 2020-21 के लिए जीडीपी वृद्धि अनुमानों को कम करते हुए ऋणात्मक 5 फीसदी कर दिया है। कुछ अन्य अनुमानों में तो इसे ऋणात्मक 10 फीसदी के करीब बताया जा रहा है।
बहरहाल राहत पैकेज लाना तो जरूरी था। सरकार को खपत मांग बढ़ाने की कोशिश करनी होगी। पैकेज को वास्तविक संदर्भों में अधिक बड़ा होना चाहिए था और कम आय वाले लोगों की जेब में अधिक पैसे पहुंचाने के लिए इसे कहीं बेहतर तरीके से बनाया जाना चाहिए था।
खपत की हालत इस समय आईसीयू में भर्ती मरीज जैसी है। करीब 25 फीसदी श्रमशक्ति बेरोजगार हो चुकी है। भारतीय रिजर्व बैंक खपत को बढ़ाने के लिए मुद्रा आपूर्ति बढ़ाते जा रहा है। लेकिन इस समय वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति सीमित ही है। प्रसार में अधिक पैसे और कम उत्पाद होने का मतलब है कि मुद्रास्फीति एवं अवस्फीति के बीच तीव्र उठापटक वाली कीमत अनिश्चितता रहेगी। फिर से रोजगार मिलने और टिकाऊ ढंग से आपूर्ति बढऩे पर ही हालात सुधरेंगे। अगले छह महीने काफी तनावपूर्ण होंगे। कोविड महामारी के प्रकोप कम नहीं हुआ है। पिछले हफ्ते भारत सवा लाख संक्रमण का आंकड़ा भी पार कर गया है। ऐसे में अगर राहत पैकेज का असर नहीं दिखता है तो शेयर बाजार के ऊंचे मूल्यांकन भी नहीं जारी रह पाएंगे।
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