नकदी प्रवाह से मिलेगी अर्थव्यवस्था को गति | श्याम पोनप्पा / May 15, 2020 | | | | |
सरकार इन दिनों ढेर सारी समस्याओं से जूझ रही है। इस बीच यही उम्मीद की जा रही है लॉकडाउन तथा प्रतिबंधों को समाप्त करने की दिशा में विशेषज्ञ सुविचारित ढंग से, सही जानकारी के साथ और विश्लेषण करते हुए आगे बढ़ रहे होंगे। हम आर्थिक सुधार को लेकर अपनी प्राथमिकताएं तय कर सकते हैं। इस दिशा में उठाए जाने वाले कुछ कदम इस प्रकार हो सकते हैं।
देश में बिना किसी सवाल जवाब के तत्काल नकदी प्रवाह सुनिश्चित करना आवश्यक है क्योंकि देशव्यापी लॉकडाउन के बाद प्रवासी और यहां-वहां फंसे श्रमिकों को भोजन और आश्रय मुहैया कराना तथा उन्हें उनके मनचाहे ठिकानों पर पहुंचाना प्राथमिकता है।
कई लोग अपने काम से दूर हो जाएंगे या अपने घरों को लौट जाएंगे। आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए जरूरत इस बात की है कि श्रमिक काम पर लौटें और उत्पादक गतिविधियां शुरू करें। परंतु लॉकडाउन ने उनके भरोसे को जिस तरह तोड़ा है, उन्हें जिस तरह आजीविका के लिए, खाने और आश्रय के लिए मोहताज किया है, उसके बाद यह मुश्किल लगता है।
अन्य फंसे हुए लोग जिनके पास साधन हैं, उन्हें भी सहजता से आवागमन की सुविधा हासिल होनी चाहिए। विदेशों में रह रहे भारतीयों को विमान से देश लाया जा रहा है। देश में यहां-वहां फंसे हुए लोगों को भी ऐसी सुविधा चाहिए। इस सूची में अगला क्रम है अर्थव्यवस्था को गति देना। इसके लिए उत्पादक गतिविधियों को दोबारा शुरू करना होगा। ऐसा करके ही क्षतिपूर्ति, उत्पादों और सेवाओं पर होने वाले व्यय को पूरा किया जा सकेगा और आर्थिक प्रवाह शुरू हो सकेगा।
याद कीजिए कि लॉकडाउन के पहले हम लंबित भुगतान की भीषण समस्या से जूझ रहे थे। बैंकों और वित्तीय संस्थानों की फंसे हुए कर्ज की समस्या इसमें प्रमुख हैं। फंसे हुए कर्ज और धोखेबाजी करने वालों पर जहां तीव्र निगरानी रही है, वहीं बकाये के लंबित भुगतान और सरकार तथा उसकी एजेंसियों द्वारा रिफंड पर उतना ध्यान नहीं दिया गया। इसमें तमाम तरह के भुगतान शामिल हैं। उदाहरण के लिए राज्यों और निजी बिजली उत्पादकों तथा वितरकों को किया जाने वाला भुगतान, विमानन कंपनियों, होटलों, रेस्तरां, विनिर्माण कंपनियों और सेवा प्रदाताओं का भुगतान तथा जीएसटी और सीमा शुल्क सहित सभी करों का रिफंड।
इस पहलू में सुधारात्मक कार्य योजना का ध्यान नहीं रखा गया, हालांकि निर्णायक कदम उठाकर इसे दूर किया जा सकता है। इसे कार्यकारी हस्तक्षेप के माध्यम से हल किया जाना चाहिए क्योंकि एनपीए में इसका काफी हिस्सा शामिल होता है।
बड़े वाणिज्यिक उपक्रमों की बात करें तो कुछ देशों में लंबित भुगतान की समस्या अन्य देशों की तुलना में अधिक होती है। आश्चर्य की बात है कि भारत को ऐसे 36 देशों की एक सूची में 24वां स्थान हासिल है और उसका 67 दिनों का औसत अन्य देशों के 65 दिन के औसत के करीब है। इसके अलावा 25 फीसदी कंपनियों ने 30 दिन के भीतर भुगतान किया। हालांकि अन्य 25 फीसदी ने 96 दिन बाद भुगतान किया। चीन का 92 दिन का औसत इस क्षेत्र में सर्वाधिक है। इसके बाद ग्रीस, इटली और मोरक्को का नंबर आता है। बहरहाल छोटे उपक्रमों को ज्यादा देरी से नुकसान होता है। जैसा कि वित्त मंत्री की बजट अनुशंसाओं के पूर्व इस वर्ष जनवरी में देखने को मिला, उनकी प्राप्तियां महीनों बाद मंजूर हो पाती हैं।
इन तमाम देरियों का असर फंसे हुए कर्ज के रूप में सामने आता है। मिसाल के तौर पर नैसकॉम ने 2017 में शिकायत की थी कि आईटी परियोजनाओं के लिए केंद्र और राज्य सरकारों तथा सरकारी उपक्रमों का बकाया भुगतान तकरीबन 5,000 करोड़ रुपये का है। मौजूदा हालात को लेकर एक सर्वेक्षण चल रहा है। एक अन्य उदाहरण उर्वरक निर्माताओं की लंबित सब्सिडी का है। इसके चलते भी नकदी संकट उत्पन्न हो रहा है। तीसरा उदाहरण राष्ट्रीय राजमार्ग विकास प्राधिकरण (एनएचएआई) का भारी भरकम भुगतान लंबित है। गत वर्ष अगस्त में एनएचएआई तब चर्चा में आया था जब प्रधानमंत्री कार्यालय ने उसके भारी भरकम लंबित ऋण और बकाये को निपटाने पर ध्यान केंद्रित किया था।
इसके बावजूद सरकार सरकारी कंपनियों के बकाये के समय पर भुगतान का भी प्रतिरोध हुआ है। जबकि अपने शुल्क और संग्रह को लेकर वह सजग है। चुनावी फंडिंग के अलावा नकदी प्रवाह को लेकर कोई समझ नहीं है। लंबित सरकारी भुगतान फंसे हुए कर्ज के निपटान का प्रस्थान बिंदु हो सकता है। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी को लेकर भी एकदम विरोधाभासी रुख देखने को मिल रहा है।
बीते दो महीनों में हमने देखा कि आर्थिक सुधार और अर्थव्यवस्था का नवनिर्माण प्रभावी डिजिटलीकरण और संचार की दो धाराओं पर निर्भर है। उनमें से एक है प्रभावी उत्पादन और सभी क्षेत्रों में सेवा आपूर्ति। मसलन कृषि, डेरी फार्मिंग और बागवानी वगैरह। साथ ही वित्त, विनिर्माण, व्यापार, लॉजिस्टिक्स, पर्यटन आदि भी। दूसरा है एक वैकल्पिक परिदृश्य जो दूरदराज से काम करने के प्रभावी समर्थन पर निर्भर हो। इसके बावजूद दूरसंचार कंपनियां और उच्च तकनीक वाले विनिर्माता एक ओर लंबित भुगतान से जूझ रहे हैं। दूरसंचार कंपनियों पर तो सरकारी शुल्क और अतीत से लागू मांग पूरी करने का भी दबाव है। इस बीच उच्च मूल्य वाले स्पेक्ट्रम की नीलामी को लेकर नाकाम रुख जारी है। जबकि इस बीच वायरलेस ब्रॉडबैंड को लेकर तार्किक और बुनियादी सुधारों की अनदेखी की जा रही है।
क्या यह संभव है कि प्राधिकारी यह न समझते हों कि बिना वायरलेस सुधार के भारत पिछड़ रहा है या फिर वे जानते बूझते भी कुछ नहीं कर रहे हैं? जरा इस बात पर विचार कीजिए कि अन्य देश क्या कर रहे हैं। गत माह अमेरिका ने 1,200 मेगाहट्र्ज क्षमता का 6 गीगाहट्र्ज स्पेक्ट्रम बिना लाइसेंस के इस्तेमाल के लिए खोल दिया ताकि वाईफाई की गति तेज हो सके। यूरोपीय संघ के देश भी जल्दी ही अनुसरण कर सकते हैं। भारत की बात करें तो सत्ता प्रतिष्ठान में किसी को परवाह ही नहीं है कि कम से कम व्यवहार्य उपायों को ही अपनाया जाए। हमने देखा कि कैसे 60 गीगाहट्र्ज, 70-80 गीगाहट्र्ज और 500-700 मेगाहट्र्ज क्षमता वाला बिना इस्तेमाल का स्पेक्ट्रम प्रयोग में लाने की अनुमति नहीं मिली।
यदि पीएमओ समुचित प्राधिकार को 60 गीगाहट्र्ज, 70-80 गीगाहट्र्ज, 500-700 मेगाहट्र्ज और 6गीगाहट्र्ज के चार स्पेक्ट्रम के उपयोग की अनुमति दे दे तो देशभर में उच्च ब्रॉडबैंड के लिए बेहतर गति सुनिश्चित की जा सकेगी। इनमें से पहले तीन बैंड लाइसेंसशुदा सेवाप्रदाताओं के लिए होंगे और चौथा वाई-फाई के लिए। ऐसे कदम सर्वोच्च न्यायालय के उस कथन के अनुरूप होंगे जिसमें उसने स्पेक्ट्रम की नीलामी नहीं होने की स्थिति में जनहितकारी नीतियों की बात कही थी। यदि सरकारी पहल के अनुसार नकदी प्रवाह और संचार पर काम किया जाए तो अर्थव्यवस्था की गति बहाल करने में मदद मिलेगी।
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