सड़कें और स्वास्थ्य | |
संपादकीय / 05 12, 2020 | | | | |
हजारों प्रवासी मजदूरों के अपने घर लौटने की तस्वीरों ने देश की अंतरात्मा को हिलाकर रख दिया है लेकिन इन तस्वीरों में देश के विभिन्न हिस्सों में बने चार-लेन राजमार्ग भी नजर आते हैं। यह पिछले छह वर्षों में सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी के अच्छे कामों का एक साक्षी है। इस अवधि में राजमार्गों की हालत काफी सुधरी है और हर मौसम के अनुकूल सड़कों से अधिकांश गांवों को जोडऩे के लिए चलाई जा रही प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना की वजह से अब भारत का ग्रामीण संपर्क नेटवर्क भी बेहतर हुआ है। हालांकि भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) और सरकार के पास संसाधनों की कमी होने पर भी गडकरी का अधिक खर्चीले राजमार्गों एवं एक्सप्रेसवे पर जोर देना कुछ सवाल खड़े करता है।
भारत के पास अब दुनिया का दूसरा बड़ा सड़क नेटवर्क है लेकिन देश स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च किए जा रहे सार्वजनिक धन के मामले में काफी पीछे है। भले ही सरकार ने कोविड महामारी के समय अधिक पीपीई किट, मास्क और वेंटिलेटर के उत्पादन की दिशा में काफी सक्रियता दिखाई है लेकिन महामारी ने देश के चिकित्सा ढांचे की सीमाओं को भी सामने ला दिया है। अस्पतालों में बिस्तरों, डॉक्टरों और नर्सों की कमी के साथ जन स्वास्थ्य के अन्य ढांचे में भी हम पीछे हैं। महामारी ने बता दिया है कि निजी अस्पताल स्वास्थ्य सुविधा का स्थानापन्न नहीं हो सकते हैं। किसी भी सूरत में, सरकारी अस्पतालों में हमेशा भीड़ होती है जिससे उनकी क्षमता बढ़ाने की जरूरत उजागर होती है। यह एक महसूस की हुई जरूरत है। पिछले साल शुरू की गई सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजना के पीछे यह सोच थी कि इससे मांग पैदा होगी जो चिकित्सा ढांचे की आपूर्ति सुनिश्चित करेगा। ऐसा हो सकता है या नहीं भी हो सकता है और अगर होता भी है तो नई क्षमता का एक हिस्सा निश्चित रूप से निजी बिस्तरों का होगा। पहले से ही आधे बिस्तर निजी अस्पतालों में हैं। जन स्वास्थ्य ढांचे पर नए सिरे से ध्यान देने की जरूरत है जिसमें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों एवं सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों को सक्षम बनाने पर जोर रहे। इस तरह सरकार को अधिक खर्चीले राजमार्गों एवं एक्सप्रेसवे के बजाय स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र में व्यय बढ़ाना चाहिए।
ऐसा कहने का यह मतलब नहीं है कि भारत को सड़कों के निर्माण पर खर्च ही नहीं करना चाहिए, बल्कि इसका यह मतलब है कि भारत स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र को अब और नजरअंदाज नहीं कर सकता है। सरकार का अगले पांच वर्षों में सड़कें बनाने पर 15 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की मंशा रखना अचरज में डालता है लेकिन वित्त वर्ष 2019-20 में केंद्र एवं राज्य सरकारों का स्वास्थ्य पर सम्मिलित खर्च 3.24 लाख करोड़ रुपये ही रहा था जो जीडीपी का महज 1.6 फीसदी है।
इस तरह पेट्रोल एवं डीजल पर लगाए सड़क उपकर से एकत्रित राशि को दो हिस्सों में बांटने की माकूल स्थिति बनती है और आधी रकम स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र को दे देनी चाहिए। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि सड़क उपकर के मद में एकत्र राशि को सरकार के अन्य दायित्व पूरा करने में लगा दिया जा रहा है।
सरकार को यह फंड दूसरे मदों में लगाने के बजाय सड़क उपकर का मकसद नए सिरे से परिभाषित करना चाहिए और बढ़ी हुई आवक का आधा हिस्सा जन स्वास्थ्य को देना चाहिए। निश्चित रूप से यह कोई अंतिम समाधान नहीं है और स्वास्थ्य क्षेत्र को आवंटन अधिक पारदर्शी एवं स्थायी होना चाहिए। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता है, स्वास्थ्य देखभाल पर मामूली खर्च करने वाली सरकार को यह विकल्प आजमाने पर जरूर ध्यान देना चाहिए।
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