अधिग्रहण एवं गैर-सूचीबद्धता नियमों में जटिलता का समाधान जरूरी | बाअदब | | सोमशेखर सुंदरेशन / May 11, 2020 | | | | |
कोविड महामारी फैलने और उस पर काबू पाने के लिए उठाए गए कदमों के परिप्रेक्ष्य में कंपनियों के विलय एवं अधिग्रहण संबंधी नियमों पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत होगी। कंपनियों और उनके बड़े अंशधारकों को मुश्किल से उबारने के लिए खरीदारों की जरूरत महसूस होगी। पूंजी की कमी होने से खरीदार उन्हीं हालात में अपना पैसा लगाना चाहेंगे जिनसे निपटना आसान होगा और नियमन भी तर्कसंगत होंगे।
इस पृष्ठभूमि में अधिग्रहण नियमों एवं गैर-सूचीबद्धता नियमों के बहुप्रतीक्षित सुधार के लिए यह वक्त शायद सबसे माकूल है। अजीब कारणों से भारत में इसके लिए दो अलग तरह के कानून हैं।
अधिग्रहण नियमों के तहत अधिग्रहण की इच्छुक कंपनी दूसरे शेयरधारकों से हिस्सेदारी खरीद की उस समय पेशकश रखती है जब वह एक सूचीबद्ध कंपनी में 25 फीसदी या उससे अधिक हिस्सेदारी खरीदने के लिए सहमत हो जाती है या जब शेयरधारिता स्तर से परे वह सूचीबद्ध कंपनी का नियंत्रण लेने पर सहमत होती है। पहले से ही 25 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी रखने वाली कंपनियों को भी ऐसी पेशकश करनी पड़ती है जब अधिग्रहण एक वित्त वर्ष में 5 फीसदी से अधिक मताधिकार से अधिक होता है। पेशकश कम-से-कम 26 फीसदी हिस्सेदारी के अधिग्रहण के लिए की जाती है। हिस्सेदारी खरीद के दौरान दी जाने वाली न्यूनतम कीमत विनियमित होती है और खरीदार उससे अधिक भाव भी दे सकता है।
गैर-सूचीबद्धता नियमों के तहत सार्वजनिक शेयरधारक खरीद की इच्छुक कंपनी के लिए अपने शेयर का भाव बताते हैं जिन्हें खरीदकर उस कंपनी की बाजार सूचीबद्धता खत्म की जा सकती है। अधिग्रहणकर्ता जिस उच्चतम भाव पर 90 फीसदी शेयरधारिता स्तर पार करता है वह निकासी भाव है जिसका भुगतान शेयर बेचने के इच्छुक शेयरधारकों को करना होता है। अगर भाव स्वीकार करने योग्य है और 90 फीसदी शेयरधारिता सीमा पार हो गई है तो उस कंपनी को स्टॉक एक्सचेंज से गैर-सूचीबद्ध किया जा सकता है। जब एक इच्छुक कंपनी किसी सूचीबद्ध कंपनी में 49 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी खरीदने के लिए सहमत होती है तो 26 फीसदी की खुली पेशकश के साथ उसकी हिस्सेदारी 75 फीसदी से अधिक हो जाने की संभावना होती है। सूचीबद्धता नियमों के तहत गैर-सार्वजनिक शेयरधारिता में अधिकतम इसी स्तर तक की ही अनुमति है। अगर शेयर खरीद का समझौता असल में 64 फीसदी या उससे अधिक के लिए है तो ऐसी संभावना है कि वह 90 फीसदी स्तर को भी पार कर जाएगा। फिर भी एक ही तरह की गतिविधि के लिए दो अलग कानून बनाने से 75 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी हो जाने पर एक कंपनी गैर-सूचीबद्ध नहीं हो सकता है लेकिन एक साल तक इंतजार करने के बाद कुछ हिस्सा बेचकर वह फिर से गैर-सूचीबद्धता की कोशिश कर सकती है। संक्षेप में कहें तो एक कानून जहां अधिग्रहणकर्ता को 75 फीसदी सीमा से आगे ले जाता है, वहीं दूसरा कानून उसे फिर से 75 फीसदी के स्तर से नीचे ले आता है। उसके बाद उस पर तीसरी तरह का कानून लागू होगा। कोविड संकट के पहले भी कंपनी जगत इस व्यवस्था में सुधार करता रहा है। लेकिन अब तो इसमें बदलाव करना और भी जरूरी हो गया है। इन अटपटे नियमों से भारतीय सूचीबद्ध कंपनियों के अधिग्रहण की संभावनाएं धराशायी हो सकती हैं। सौदों के आंकड़ों में वास्तव में समझौता हो चुके खरीद-फरोख्त की ही गिनती होती है।
दोनों कानूनों को एक साथ जोडऩे की आधे मन से कोशिश की गई थी लेकिन उसमें कोई सुधारवादी नजरिया न होने से वह नाकाम साबित हुई। कुल मिलाकर, एक कंपनी अधिग्रहण नियमों के तहत खुली पेशकश रखने के लिए अनिवार्य स्तर तक हिस्सेदारी खरीदना चाहती है तो वह इस कानून के तहत ऐसा कर सकती है और फिर गैर-सूचीबद्धता नियम के तहत कंपनी की सूचीबद्धता खत्म करने की कोशिश कर सकती है। अगर इस कोशिश में वह नाकाम भी होती है तो फिर से अधिग्रहण कानून के तहत इस काम को पूरा कर सकती है। साफ है कि यह कोई लोकप्रिय कानूनी प्रारूप नहीं है।
एक दशक पहले अधिग्रहण नियमन परामर्श समिति ( जिसका एक सदस्य यह लेखक भी था) ने इस दिशा में सुधारों का एक सरल मसौदा पेश किया था लेकिन सभी शेयरों के लिए खुली पेशकश रखने संबंधी सुझाव को लेकर हंगामे के चलते पूरा प्रस्ताव ही ठंडे बस्ते में चला गया। संभावित विलय एवं अधिग्रहण सौदे में एक अधिग्रहणकर्ता कंपनी को गैर-सूचीबद्ध करने की मंशा जता सकता है और अगर कीमत पसंद करने वाले शेयरधारक अपना हिस्सा बेच देते हैं और 90 फीसदी की सीमा पार हो जाती है तो फिर कंपनी वास्तव में गैर-सूचीबद्ध हो सकती है।
सभी पक्ष उपलब्ध जानकारी और खुली आंखों से ऑफर पर गौर करेंगे और अगर 90 फीसदी शेयरधारक सहमत हो जाते हैं तो यह कानून बाधक बनने के बजाय सशक्त बनाएगा। सूचीबद्धता खत्म करने की मंशा न रखने वालों के लिए यह प्रावधान उन्हें सार्वजनिक एवं खुली खरीद से रोकेगा ताकि हिस्सेदारी 75 फीसदी से अधिक न हो। इस तरह कोई भी कानून अधिग्रहणकर्ता को 75 फीसदी स्तर से आगे जाने के लिए बाध्य नहीं करता है।
वहीं सूचीबद्धता खत्म करने की इच्छा रखने वाले अधिग्रहणकर्ता को एक साल के भीतर 75 फीसदी हिस्सेदारी संबंधी शर्तों का पालन करना जरूरी होगा। अगर गैर-सूचीबद्धता नियमों में सुधार होता है तो वे सूचीबद्धता खत्म करने के साथ ही अधिग्रहण नियमों के तहत रखी पेशकश से तालमेल बिठा सकते हैं और निकासी कीमत भी पता चल जाएगा।
यह विलय एवं अधिग्रहण व्यवस्था का एक जरूरी सुधार है। अगर हम इस व्यवस्था को सरल एवं तर्कसंगत नहीं बनाते हैं तो भारत से पूंजी ऐसे देशों की ओर जाने लगेगी जहां ऐसी जटिलता नहीं है।
(लेखक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)
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