बार्क रेटिंग की उलझन में फंसा ट्राई का सुझाव | मीडिया मंत्र | | वनिता कोहली-खांडेकर / May 08, 2020 | | | | |
हिंदुस्तान यूनिलीवर, एमेजॉन, विप्रो और आईटीसी भारत के शीर्ष विज्ञापनदाताओं में शामिल हैं। वर्ष 2019 में कंपनी जगत ने देश में प्रसारित हो रहे 800 से अधिक चैनलों पर विज्ञापन देने पर करीब 32,000 करोड़ रुपये खर्च किए। विज्ञापन देने के लिए उपयुक्त चैनल, कार्यक्रम, स्थान और समय तय करने के लिए ये कंपनियां दुनिया भर में टेलीविजन दर्शक संख्या पर नजर रखने वाली सबसे बड़ी संस्था ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) के आंकड़ों पर भरोसा करती हैं। बार्क के अस्तित्व के पांच वर्षों में किसी भी विज्ञापनदाता ने इसके आंकड़ों को लेकर कोई शिकायत नहीं की और न ही इनका इस्तेमाल रोका। मीडिया एजेंसियां भी बार्क के आंकड़ों का इस्तेमाल करती आ रही हैं। यह समझ पाना थोड़ा मुश्किल है कि भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) की तरफ से बार्क के पुनर्गठन का सुझाव देने की क्या जरूरत पड़ गई? लॉकडाउन की वजह से जारी आर्थिक सुस्ती के दौरान पिछले हफ्ते ट्राई ने 'भारत में टेलीविजन दर्शक मापन एवं रेटिंग प्रणाली की समीक्षा'के बारे में सुझाव पेश किए। इनमें बार्क के व्यापक पुनर्गठन, इसके बोर्ड का संयोजन बदलने और संकलित नमूनों की संख्या को वर्ष 2022 तक 45,500 से बढ़ाकर 1,00,000 घर करने जैसे सुझाव 'खास हितधारकों'को दिए गए हैं। इनमें से कई सुझाव तो ऐसे हैं जो पहले से ही वजूद में हैं, मसलन, निगरानी समिति का गठन। कुछ सुझाव अव्यावहारिक हैं और कुछ सुझाव प्रसारण, दर्शक संख्या के आकलन, सांख्यिकी और अर्थशास्त्र के बारे में कम समझ को दर्शाते हैं।
एक बड़े प्रसारक ने इस परामर्श-पत्र के बारे में कहा कि अगर इसे लागू कर दिया जाता है तो फिर उनका काम बंद हो जाएगा। दूसरे प्रसारकों की राय भी कुछ ऐसी ही है। भुगतान राजस्व के मामले में ट्राई ने पहले ही नई शुल्क व्यवस्था लागू कर 74,000 करोड़ रुपये वाले प्रसारण उद्योग को तगड़ा झटका दिया है। इस सुझाव पत्र में विज्ञापन राजस्व के बारे में भी कुछ कहा जा सकता था। बार्क का जन्म गहरी पीड़ा के बाद हुआ था। तीन परामर्श पत्र आने, टैम मीडिया रिसर्च का रेटिंग कारोबार बंद होने और स्वामित्व, शेयरधारिता, तकनीक एवं गणना-पद्धति को लेकर सात साल की मशक्कत के बाद यह वजूद में आया था। यह इंडियन ब्रॉडकास्टिंग फाउंडेशन (आईबीएफ), इंडियन सोसाइटी ऑफ एडवर्टाइजर्स और एडवर्टाइजिंग एजेंसिज एसोसिएशन ऑफ इंडिया के बीच 60-20-20 साझेदारी वाला एक संयुक्त उद्यम है। इन तीनों संस्थाओं ने ही 180 करोड़ रुपये की ऋण गारंटी दी हुई है।
फिलहाल यह देश भर में 45,500 घरों में अपने बॉक्स लगाकर 2 लाख से अधिक भारतीयों के टीवी देखने संबंधी आंकड़े जारी करता है और उसे 83.6 करोड़ लोगों का प्रतिनिधि माना जाता है। यह 2015 में 40,000 लोगों की पसंद के आधार पर जुटाए आंकड़ों से अधिक है। प्रसारकों समेत सभी हितधारक नमूने का आकार बढ़ाने के पक्ष में ही होंगे लेकिन इसे 1 लाख घरों तक पहुंचाने के लिए करीब 75 करोड़ रुपये की पूंजी और उससे भी कई गुना बड़ी परिचालन खर्च चाहिए। इसका बोझ कौन उठाएगा? करीब 300 करोड़ रुपये के राजस्व के साथ बार्क बस अपना वजूद बचाए हुए है। बार्क को मिलने वाले ग्राहक-आधारित राजस्व का 85 फीसदी से भी अधिक हिस्सा प्रसारकों का है और अब वे अधिक बोझ उठाने के लिए तैयार नहीं हैं।
काफी हद तक प्रसारक मौजूदा व्यवस्था से खुश हैं। सामान्य मनोरंजन चैनलों के लिए नमूनों का मौजूदा आकार बड़ा है लेकिन समाचार एवं खास मिजाज वाले चैनलों की एक समस्या है। मसलन अंग्रेजी या तेलुगू समाचार का सैंपल आकार इतना छोटा है कि किसी शुक्रवार रात को प्रसारित शो या एक ऐंकर पर गौर कर पाना मुश्किल है। वर्षों तक टैम और फिर बार्क ने उन्हें कुछ हफ्तों का रुझान देखकर आंकड़ों के विश्लेषण की सलाह दी है लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। कई ऐंकर और समाचार प्रसारक यह सोचना पसंद करते हैं कि वे दूसरों से आगे हैं और बार्क के आंकड़ों पर भड़क जाते हैं। कई प्रसारकों ने रेटिंग चार्ट में ऊपर आने के लिए छेड़छाड़ जैसे गलत तरीके भी अपनाए हैं। बार्क के राजस्व संग्रह में समाचार प्रसारण का अंशदान महज 10 फीसदी है लेकिन सबसे ज्यादा शिकायतें इन्हीं चैनलों से आती है। अगर नमूने का आकार बढ़ाना ही मसला है तो फिर समाचार कार्यक्रमों की रेटिंग करना ही क्यों न बंद कर दिया जाए?
दो कारणों से यह चर्चा बेमतलब है। पहला, अगर रेटिंग प्रणाली भंग होती है और हितधारक शिकायत कर रहे हैं तो उसमें नियामक को दखल देने का कोई औचित्य नहीं है। अखबारों के पाठकों की संख्या संबंधी रीडरशिप आंकड़े खौफनाक हैं। इसी तरह सिनेमा दर्शकों की संख्या संबंधी बॉक्स ऑफिस आंकड़े छल से भरपूर हैं। इन आंकड़ों का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों का यह दायित्व है कि वे खामियों को दूर करें, न कि नियामक का।
दूसरा, बार्क का गठन ब्रिटेन की संस्था ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च बोर्ड, अमेरिका की नील्सन आधारित प्रणाली और फ्रांस की मीडियामेट्री के काफी बाद हुआ है। बार्क दुनिया भर में अपनाई जा रही सबसे अच्छी परंपराओं का पालन करता है और इसे स्वीकृति भी मिली है। बार्क के पूर्व संस्थापक सीईओ पार्थ दासगुप्ता जल्द ही तीन अलग महाद्वीपों में बार्क जैसा ढांचा खड़ा करने में मदद करने जा रहे हैं।
लेकिन बार्क को बोर्ड के रोटेशन की बेहतर व्यवस्था बनाने और छोटे प्रसारकों, विज्ञापनदाताओं एवं एजेंसियों को भी जगह देने के बारे में सोचना चाहिए। भले ही विज्ञापनदाता रेटिंग को लेकर शिकायत नहीं करते हैं लेकिन उनमें से कोई भी खड़ा होकर बार्क के पक्ष में नहीं बोला है। अगर बार्क बड़े प्रसारकों द्वारा ही संचालित होने की कुछ हद तक सही धारणा को बदलना चाहता है कि उसे अपने सभी हितधारकों के समावेश के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी।
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