पेट्रोलियम को जीएसटी दायरे में लाने का वक्त | मुकेश बुटानी / May 05, 2020 | | | | |
वर्ष 2016 में ऐतिहासिक संविधान संशोधन के माध्यम से वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की शुरुआत की दिशा में पेशकदमी हुई थी। इसे एक बड़ा समझौता करार दिया गया था। इसके तहत राज्य वस्तुओं की आपूर्ति से जुड़े कर पर अपनी विशिष्ट संप्रभुता त्यागने के लिए तैयार हो गए। इसके बदले उन्हें केंद्र सरकार की ओर से यह सांविधानिक आश्वस्ति प्रदान की गई कि वह पांच साल तक जीएसटी के क्रियान्वयन के कारण उनको होने वाले नुकसान की भरपाई करेगा। जब जीएसटी संग्रह के आंकड़े सामने आए तो पता चला कि राज्यों का भय निर्मूल नहीं था।
यह सही है कि अधिकांश राज्यों को केंद्र की ओर से क्षतिपूर्ति मिल रही है लेकिन यहां एक पेच है। क्षतिपूर्ति का निर्धारण वित्त वर्ष 2015-16 के संग्रह पर आधारित है और इसमें साल दर साल 14 फीसदी की वृद्धि होने की बात कही गई है। ऐसे में राजस्व नुकसान की पूर्व शर्त होने के कारण केंद्र उस नुकसान को भी पूरा करने की गारंटी देता है जो राज्यों के उनके राजस्व संग्रह का अनुमानित लक्ष्य हासिल नहीं कर पाने से होता है।
कर राजस्व में 14 फीसदी की वार्षिक वृद्धि बहुत ज्यादा है। बिना कोविड-19 संकट के भी इसे हासिल करना आसान नहीं होता। चाहे जो भी हो तमाम आधिकारिक आश्वासन पूरे किए जाने चाहिए। हाल ही में एक रिपोर्ट आई जिसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार ने जीएसटी क्षतिपूर्ति में 20,000 करोड़ रुपये की राशि वितरित की। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि सांविधानिक गारंटी के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है।
केंद्र पर पड़ रहे बोझ को देखते हुए कहा जा सकता है मौजूदा स्वास्थ्य संकट एक अवसर देता है जब हम जीएसटी नीति के डिजाइन पर नए सिरे से विचार विमर्श कर सकते हैं।
पहली बात तो यह कि पेट्रोलियम उत्पादों को इसमें शामिल करना कोई मुश्किल बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि इसके लिए संविधान संशोधन की आवश्यकता नहीं है। यदि नीतिगत वजह से नहीं बल्कि राजस्व में भारी बढ़ोतरी के कारण इसे बाहर रखा गया है तो यह चिंता बेमानी है। मौजूदा डिजाइन में संविधान केंद्र और राज्यों को यह अनुमति देता है कि वे जीएसटी के अलावा क्रमश: उत्पाद शुल्क और बिक्री कर लगा सकते हैं। ऐसे में राजस्व में कमी की दिक्कत को ऐसे अतिरिक्त कर लगाकर पूरा किया जा सकता है और इस दौरान जीएसटी व्यवस्था में शामिल होने में भी कोई बाधा नहीं होगी। केवल इस एक कदम से विमानन और परिवहन उद्योग को गति मिल जाएगी। इसके अलावा वे विनिर्माण क्षेत्र भी प्रभावित होंगे जिनमें जीवाश्म ईंधन इस्तेमाल होता है।
तकनीकी तौर पर तो पेट्रोलियम उत्पादों का मूल्य विनियमित है लेकिन गहराई से देखने पर पता चलता है कि सरकार ही इनका मूल्य तय करती है। ऐसा इसलिए कि इन पर कर लगाने का अधिकार तो सरकार के पास ही है। ऐसे में कच्चे तेल में कमी का लाभ उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंच पाता।
पेट्रोलियम उत्पादों पर भारी कर के पक्ष में यह दलील दी जाती है कि यह राजस्व हासिल करने और राजकोषीय घाटा कम करने में मदद करता है। दलील यह है कि उच्च कर से इसकी खपत को हतोत्साहित किया जाता है। दूसरी दलील बहुत विश्वसनीय नहीं है, हालांकि उच्च कराधान के पक्ष में अन्य आर्थिक और पर्यावरण संबंधी दलील हो सकती हैं। बड़े देशों ने इस समस्या का हल कार्बन टैक्स के रूप में निकाला है। पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी में रखना सांविधानिक है क्योंकि इसमें पेट्रोलियम उत्पादों पर अतिरिक्त कर की अनुमति है।
सरकार के सामने बड़ा सवाल यह है कि क्या वह आर्थिक स्थिति में सुधार के इस माहौल में अतिरिक्त शुल्क लगा सकती है? जहां तक आवश्यकता वृद्धि को महत्त्व देने की है, तो मामला केवल जीवाश्म ईंधन और प्राकृतिक गैस तक सीमित नहीं है। बल्कि उच्च शुल्क औद्योगिक उपभोक्ताओं और आम परिवारों के बजट को एक समान रूप से प्रभावित करता है। कहा जा सकता है कि पात्र नागरिकों को प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण के जरिये बचाया जाएगा जबकि अन्य लोग राशि चुका सकते हैं। यह दलील नाकाम हो जाती है क्योंकि पेट्रोलियम कर ढांचा गैर किफायती है। खासतौर पर मौजूदा आर्थिक माहौल में इस पर नए सिरे से नजर डालनी चाहिए।
गत सितंबर में सरकार ने कॉर्पोरेट कर दरों में कटौती की थी। वह बेहतर कदम था लेकिन उससे निवेश और आर्थिक गतिविधियों को बल नहीं मिला। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अर्थव्यवस्था पहले ही तनाव में थी। ऋण में बढ़ोतरी नहीं हो रही थी और विनिर्माण ठहरा हुआ था। वक्त का तकाजा है कि खपत में इजाफा किया जाए।
इस पहेली का एक और पहलू है। यह स्पष्ट होता जा रहा है कि राजकोषीय प्रोत्साहन का विस्तार भविष्य में भी जारी रहेगा। अगर पेट्रोलियम उत्पादों पर उच्च कर लगता रहा और ऋण व्यवस्था सुचारु न होने से किाफायत की कमी बनी रही तो हमें तय लक्ष्य हासिल नहीं हो पाएंगे।
केंद्र सरकार पर प्रोत्साहन का बोझ यकीनन राज्यों के लिए लाभप्रद होगा, बशर्ते वे पेट्रोलियम उत्पादों पर मौजूदा कर ढांचे को बरकरार रखें। दूसरे शब्दों में कहें तो आर्थिक हालात बहाल करने के लिए दिया जाने वाला प्रोत्साहन कर संग्रह के रूप में बंट जाएगा। पेट्रोलियम उत्पादों पर मौजूदा कर नीति यकीनन आर्थिक स्थिति में सुधार की प्रक्रिया को प्रभावित करेगी। वहीं यदि पेट्रोलियम उत्पाद जीएसटी शृंखला में शामिल होंगे तो राज्य जीएसटी परिषद के अधीन समन्वित ढंग से कदम उठाएंगे। इससे जीएसटी सुधार प्रभावित नहीं होंगे।
पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी में शामिल करने और अधूरे सुधारों को अंजाम देने से जीएसटी संग्रह में सुधार होगा क्योंकि आर्थिक स्थिति गति पकड़ेगी। ऐसे में जीएसटी की मध्यम स्तर की दर कम करने की गुंजाइश बनेगी क्योंकि खपत बढ़ेगी। कुल मिलाकर बिना मौजूदा प्रभावी दरों में किसी तरह का हस्तक्षेप किए जीएसटी ढांचे को अपनाया जा सकता है। इसके साथ ही प्रोत्साहन का इस्तेमाल करके राज्यों को साथ लाया जा सकता है उन्हें क्षतिपूर्ति की आधिकारिक आश्वस्ति तो है ही। यदि राज्यों को केंद्र के प्रोत्साहन और खपत के साथ उच्च आर्थिक गतिविधियों के साथ तेज वृद्धि हासिल करने के लिए जीएसटी सर्वाधिक वांछनीय है।
यदि जीएसटी परिषद इस दिशा में आगे बढ़े और राज्य इसका समर्थन करें तो यह सच्चा सहकारी संघवाद होगा।
(लेखक बीएमआर लीगल के मैनेजिंग पार्टनर हैं।)
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