बदली दुनिया में नए प्रतिमानों की दरकार | |
अरुणाभ घोष / 05 04, 2020 | | | | |
दुनिया कई मायनों में खासकर अपने प्रतिमानों को लेकर सिर के बल खड़ी हो चुकी है। शीत युद्ध के खात्मे के बाद भी हमारे प्रतिमान नहीं बदले थे। विदेश नीति के जानकारों का 'बल-शक्ति' को लेकर जुनून कायम रहने से सामरिक आकलन का पैमाना सैन्य श्रेष्ठता और आर्थिक वर्चस्व ही रहता था। सार्वजनिक स्वास्थ्य या पर्यावरणीय क्षति जैसे तथाकथित 'नरम' मुद्दों का यह कहते हुए उपहास उड़ाया जाता था कि यह 'निम्न राजनीति' के मुद्दे हैं। सबसे बड़ी सेनाएं और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं भी सूक्ष्मदर्शी से नजर आने वाले एक वायरस के आगे परास्त हो गईं। सबसे कमजोर कड़ी समझे जाने वाले इस वायरस ने इंसानों की दशकों की प्रगति नष्ट कर दी। जब तक हम पुराने प्रतिमानों को छोडऩे के लिए राजी नहीं होंगे, तब तक हम नई विश्व व्यवस्था के संचालन की बात तो दूर उसे आकार भी नहीं दे सकते हैं। अंतरराष्टï्रीय सहयोग के नए स्वरूपों के उद्भव के लिए हमें अंतरराष्टï्रीय परिवेश में आए बदलावों, विभिन्न पक्षों के उद्देश्यों में आए बदलाव और मानकों में परिवर्तन को परखना है। उसका परिणाम अच्छा, बुरा और बदसूरत होगा।
अंतरराष्टï्रीय परिवेश परंपरागत सुरक्षा चिंताओं से घिरा हुआ है। लेकिन अब सबसे बड़े खतरे राज्य नहीं रह गए हैं और न ही गैर-राज्य आतंकवादी समूह। आज के समय में सबसे बड़ी चिंता पुछल्ले जोखिमों को लेकर है। इनके घटने की संभावना बहुत कम होती है लेकिन ये प्रलयंकारी असर डाल सकती हैं। महामारी ऐसा ही एक जोखिम है और जलवायु संबंधी तमाम झटके भी इसी श्रेणी में आते हैं। पर्यावरण एवं स्वास्थ्य को लेकर चिंताएं बढऩे से ऐसी अनर्थकारी घटनाओं के अब अक्सर घटित होने की आशंका है और एक साथ कई घटनाएं भी हमें अपनी चपेट में ले सकती हैं।
अब कुछ अच्छी खबरों का जिक्र करते हैं। अब हमारे पास एक मौका है कि अंतरराष्टï्रीय वार्ताओं को साझा हितों की दुविधा से दूर करते हुए साझा विरोध वाले मुद्दों की तरफ ले जाया जाए। व्यापार, वित्त एवं तकनीक जैसे साझा हित देशों को बातचीत की मेज तक ले आते हैं। लेकिन सापेक्षिक लाभ एवं हानि और दाता बनाम मुफ्तखोर से जुड़ी चिंताएं अक्सर इन्हें जड़ बना देती हैं। वहीं साझा विरोध यानी ऐसे हालात जिनसे हर कोई बचना चाहता है, का नजरिया लेकर चलने से आपसी तालमेल का रास्ता खुलेगा। जैसे कि सड़क हादसे से बचने के लिए सबको समान कानून का पालन करना होता है। हर कोई चाहेगा कि संक्रामक बीमारियों, बेहद प्रतिकूल मौसम से बचे या कृषि उपज में तीव्र गिरावट के हालात न पैदा हों। जब अंतरराष्टï्रीय सहयोग में कमी आ रही है, तब मिलकर काम करने की नई चाह इसी से पैदा हो सकती है कि हम स्वास्थ्य, पर्यावरण या वित्तीय आघातों का सामना करने के लिए बहुपक्षीय संस्थानों को किस तरह व्यवस्थित करते हैं? जी-20 का गठन एक वित्तीय संकट के समय ही हुआ था। अब इसे पर्यावरणीय संकट को बहुत व्यापक न होने देने के लिए काम करना होगा।
दूसरा, देशों एवं कंपनियों के उद्देश्यों में भी बड़े बदलाव होंगे। मुक्त व्यापार, पूंजी का मुक्त प्रवाह या ऊर्जा आपूर्ति की स्वतंत्रता जैसे सिद्धांतों को अब इस सख्त पैमाने पर कसा जाएगा कि 'इसमें मेरे लिए क्या है?' वर्ष 1944 का ब्रेटनवुड्स सम्मेलन इसलिए सफल हुआ था कि पुरानी पड़ चुकी वैश्विक अर्थव्यवस्था में कई देश अमेरिका पर निर्भर थे जिससे उनके उद्देश्य भी वित्तीय स्थायित्व, मुक्तव्यापार एवं वैश्विक विकास के साथ जुड़ गए। ऐसे हालात ने ही विश्व युद्ध के बाद की बहुपक्षीयता को जन्म दिया था।
एक बुरी खबर भी है। फिलहाल तो हमें नगण्य बहुपक्षीयता के लिए तैयार रहना होगा। आखिर वह न्यूनतम क्या है जिस पर हमारे हित एक-दूसरे से मिलते हैं? कोविड-परवर्ती काल में बहुपक्षीयता की कोई गारंटी नहीं है। कई मुद्दे पहले से ही क्षेत्र (ऊर्जा, वित्त) या भूगोल (व्यापार) के आधार पर बंटे हुए थे। विभाजित शासनात्मक ढांचे, एक-दूसरे पर व्याप्त होने वाली वार्ताएं, संस्थानों के बीच सीमित सामंजस्य और कमजोर जवाबदेही ने बहुपक्षीय प्रक्रिया में भरोसा कम किया है। लिहाजा व्यापक लाभों की गुंजाइश बहुत कम रह गई है।
देशों के बीच किसी एक स्रोत या बाजार पर अति-निर्भरता कम करने की प्रवृत्ति बढऩे और अधिक स्थानीय मूल्य एवं रोजगार सृजन की चाहत बढऩे से आपूर्ति शृंखलाएं सिकुड़ेंगी। प्रोत्साहन पैकेज एवं मौद्रिक नीति में ढील देने से तरलता संकट कम हो सकता है लेकिन इस शर्त पर कि इस पैसे का इस्तेमाल देश के भीतर ही करना है। महामारी के दौरान 83 अरब डॉलर से भी अधिक रकम उभरती अर्थव्यवस्थाओं से बाहर गई है। ऊर्जा के मोर्चे पर ओपेक देशों के रूस-अमेरिका के साथ हुए नए करार का यह मतलब नहीं है कि अमेरिका तेल उत्पादक कार्टेल का समर्थन करता है। इसका बस यह मतलब है कि अपने तेल उद्योग को जिंदा रखना ही उसका असली मकसद है। संयुक्त राष्टï्र को उसके 75वें साल में नए सिरे से परिभाषित करने या विश्व स्वास्थ्य संगठन को दुरुस्त करने पर ऊर्जा खर्च करने के बजाय अब मुद्दा-केंद्रित करारों पर ध्यान करने का वक्त है ताकि जल्द नतीजे मिल सकें। आखिर में, अंतरराष्टï्रीय व्यवहार के मानकों में जारी बदलावों के मजबूत हो जाने की संभावना है। जब ताकतवर देश अनुपालन न करने का मन बना लें तो नियमों को लागू कराना हमेशा मुश्किल होता है लेकिन अग्रणी शक्तियों के अतिरिक्त जिम्मेदारी लेने की प्रवृत्ति अब कमजोर पड़ी है। संप्रभुता महज अंतरराष्टï्रीय संबंधों में स्वायत्तता का एक चिह्न न होकर गैर-जिम्मेदार कामों का एक कवच बन चुकी है। एक महाशक्ति बाकी दुनिया को हफ्तों तक इस घातक वायरस के बारे में अंधेरे में रखती है और दूसरी महाशक्ति चिकित्सा उपकरणों की आपूर्ति में बाधा डालती है।
यहीं पर हालात बदसूरत होते जाएंगे। हम अंतरराष्टï्रीय करारों पर चर्चा के समय उन्हें सफल मानकर चलते हैं। इसके उलट नए बहुपक्षीय इंतजामों की सफलता काफी हद तक पारदर्शिता और प्रवर्तन पर निर्भर करेगी। तकनीक न केवल निजी जिंदगियों के भीतर घुसेगी बल्कि सरकारी स्तर पर अधिक निगरानी के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाएगा। सरकारी आंकड़ों के प्रति भरोसा कम होता जाएगा। लेकिन पारदर्शिता तब तक नहीं काम कर सकती है जब तक यह राज्य के व्यवहार को नहीं प्रभावित करती है। प्रवर्तन के प्रभावी रूप न होने से लोगों को बदनाम करने के अधिक मामले आने की आशंका है। कुछ दिन पहले नाश्ते पर मेरी सात साल की बेटी ने काफी साफगोई एवं समझदारी वाली बात कही थी। मैं उसकी बात को ज्यों का त्यों रख रहा हूं, 'हम दुनिया से यह क्यों नहीं कह देते कि चीन को लेकर परेशान न हो? मुझे लगता है कि दो महीनों में चीन खुद ही गुहार लगाते हुए आएगा। अन्यथा वे खुद को दोषी ही नहीं मान रहे हैं जो कि गलत है। वैसे इसके लिए केवल चीन की सरकार जिम्मेदार है, वहां के लोग नहीं। चीन की सरकार ने ही लोगों से कहा कि वे काम करते रहें जिससे कोरोनावायरस फैलता गया। हमें यह करना ही होगा। नहीं तो हम इस भुलावे में रह सकते हैं कि यह एक सामान्य, खुशनुमा दुनिया है जबकि ऐसा है नहीं। भारत को यह बात सबसे कहनी चाहिए।' हमारी दुनिया बदल चुकी है और उसी के साथ हमारे हित भी बदल गए हैं। हमें अब नए मानदंडों की जरूरत है।
(लेखक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवॉयरनमेंट ऐंड वाटर के सीईओ और संयुक्त राष्ट्र विकास नीति समिति के सदस्य हैं)
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