नए आर्थिक अनुमान | संपादकीय / April 26, 2020 | | | | |
वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद आर्थिक सिद्धांतों और नीतियों के कई पहलुओं की नए सिरे से समीक्षा करनी पड़ी थी। खासतौर पर उनकी जिनका संबंध वित्तीय नवाचार और नियमन से था। ऐसा होना भी चाहिए। कोई भी अनुशासन चाहे वह अवधारणा के स्तर पर हो या व्यवहार के, ऐसे बड़े झटके के आलोक में उसकी समीक्षा होनी ही चाहिए। कोविड-19 महामारी के प्रसार के कारण उत्पन्न मौजूदा आर्थिक और जन स्वास्थ्य संकट के दौरान भी ऐसी समीक्षा आवश्यक है। रुख में बदलाव के संकेत नजर भी आने लगे हैं। उदाहरण के लिए यह एकदम स्पष्ट है कि आर्थिक गतिविधियों के पर्यावरण प्रभाव की अब तक खास चिंता नहीं की गई पर अब इन्हें केंद्र में लाना होगा। जन स्वास्थ्य संकट के कुछ पहलू ऐसे हैं जो पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के पहलुओं को लेकर चूकों को उजागर करते हैं। कोरोनावायरस महामारी के दौरान शुरुआती कदम आवश्यक था, भले ही उसकी कीमत ज्यादा चुकानी होती। ऐसा करने से बाद में और अधिक कीमत चुकाने से बचा जा सकता था। जलवायु परिवर्तन को लेकर भी हमें ऐसा ही रुख अपनाने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में भविष्य में हमें जो कीमत चुकानी पड़ सकती है वह अर्थव्यवस्था पर वैसे ही असर डालेगी जैसा कि कोरोनावायरस को नकारने ने डाला।
प्रकृति के साथ अनुचित संवाद को भी आर्थिक विचार प्रक्रिया में शामिल करने की आवश्यकता है। काफी संभावना है कि कई अन्य वायरस की तरह कोरोनावायरस भी वुहान में उभरा। ऐसा जानवरों और मनुष्यों के आपसी संपर्क के कारण हुआ। कोरोनावायरस के मामले में शायद वुहान के पशु-पक्षी बाजार ने वायरस के केंद्र के रूप में काम किया। औद्योगिक कृषि में भी ऐसे मामले सामने आते हैं, भले ही वे कम खतरनाक हों। मांस, डेरी और मुर्गीपालन उद्योग ने अतीत में मैड काऊ जैसी बीमारी को जन्म दिया है। इस बहस में पशु अधिकार से जुड़े सवाल भी आते हैं लेकिन अर्थशास्त्री उन पर विचार नहीं करते। खेती के भविष्य पर भी सावधानीपूर्वक विचार करना होगा और इसकी लागत को लेकर अधिक एकीकृत तरीका अपनाना होगा। क्या जैविक या हाइड्रोपोनिक (बिना मिट्टी के) खेती से होने वाली उपज कभी उर्वरक आधारित खेती जैसी उपज दे पाएगी।
आखिर में वैश्विक व्यापार की प्रकृति की बात करें तो वह सर्वाधिक किफायती नेटवक्र्स के इर्दगिर्द तैयार की गई है। इस बारे में भी नए सिरे से विचार करना होगा। वित्तीय संकट ने वित्त जगत को मजबूर किया कि वह इस बात की समीक्षा करे कि उसके रिटर्न और संकट को लेकर उसके जोखिम के बीच सही संतुलन है या नहीं। पूंजी पर्याप्तता की आवश्यकता में इजाफा किया गया, पूंजी की किफायत कम की गई और इसके साथ ही एक और संकट की संभावना भी कम की गई। इसी प्रकार मौजूदा वैश्विक आपूर्ति शृंखला शायद कुछ खास भौगोलिक क्षेत्रों पर अत्यधिक निर्भरता की शिकार हों। या फिर कम से कम वे इतनी मजबूत तो नहीं हैं कि वे शृंखला में कुछ कडिय़ों की नाकामी का बोझ वहन कर सकें।
ये ऐसे सवाल हैं जो हमेशा से आर्थिक विश्लेषण का हिस्सा रहे हैं लेकिन उन्हें अब तक पाश्र्व में रखा गया। इस अप्रत्याशित संकट के आकार और इसकी व्यापकता को देखते हुए यह मुद्दा तथा ऐसे अन्य मुद्दों की और अनदेखी नहीं की जा सकती है। नीति निर्माताओं और अकादमिक अर्थशास्त्रियों दोनों को इस बात का पुनरीक्षण करना होगा कि वे पर्यावरण संबंधी अनुमानों, प्राकृतिक दुनिया के साथ संपर्क और उच्च किफायत वाली आपूर्ति शृंखला आदि को लेकर किस प्रकार विचार करते हैं। शायद यह सही वक्त है कि हम उन संभावित जोखिमों का आकलन करेंगे जो वित्तीय तंत्र में उत्पन्न जोखिमों की तुलना में कहीं अधिक बड़े हो सकते हैं।
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