लॉकडाउन का विस्तार और समझदारी भरा दृष्टिकोण | |
टीटी राम मोहन / 04 24, 2020 | | | | |
क्या देशव्यापी लॉकडाउन आवश्यक था? लॉकडाउन कितने समय तक चलना चाहिए? सरकार द्वारा दिया गया प्रोत्साहन कितना पर्याप्त है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिन पर पिछले कुछ सप्ताह के दौरान लगातार बहस चली है।
गत 25 मार्च से लागू किए गए तीन सप्ताह के लॉकडाउन की मोटेतौर पर सराहना ही की गई। अमेरिका, ब्रिटेन और सिंगापुर जैसे जिन देशों ने लॉकडाउन में देरी की उन्हें बाद में पछताना पड़ा। भारत ने इस विषय में साहसी निर्णय लिया। माना जा रहा है कि लॉकडाउन से कोविड-19 महामारी का प्रसार सीमित करने में मदद मिलेगी। इरादा यही था कि इससे महामारी का दायरा इस कदर सीमित रखा जा सकेगा कि स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था उसे रोक सके। इसकी आर्थिक लागत अपरिहार्य है।
क्या पर्याप्त सूचना देकर और प्रवासी श्रमिकों जैसी श्रेणियों की समस्याओं को समझते हुए लॉकडाउन लागू किया जाना चाहिए था? शायद, लेकिन मार्च के अंतिम सप्ताह में दुनिया भर में मामलों में जो तेजी आई उसने सरकार के पास तत्काल इसे लागू करने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा।
अब सरकार ने कुछ शिथिलताओं के साथ लॉकडाउन को 3 मई तक बढ़ा दिया है। क्या ऐसा करना सही था? इस सवाल का उत्तर विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने दिया। महाराष्ट्र, पंजाब, ओडिशा और दिल्ली आदि राज्यों ने लॉकडाउन की अवधि बढ़ाने का समर्थन किया है। अगर लॉकडाउन की अवधि में इजाफा हृदयहीन कदम है तो कहा जा सकता है कि राजनीतिक सहमति हृदयहीनता के साथ है।
एक दृष्टिकोण यह भी है कि अवधि बढ़ाने की जरूरत नहीं थी। ऐसा विचार रखने वालों का मानना है कि केवल उन इलाकों में लॉकडाउन जारी रखना था जहां वायरस का प्रकोप है। बाकी जगह पर सामान्य कामकाज चल सकता है। हां, ऐसे इलाकों में आम लोगों का जीवन आसान किया जा सकता है। परंतु हमें यह पता होना चाहिए कि अर्थव्यवस्था को बहुत मामूली मदद ही मिलेगी।
जिन सेवाओं की प्रकृति स्थानीय है, मसलन- चिकित्सक, टेलर, रेस्तरां, सलून आदि वे आसानी से शुरू हो सकते हैं। बहरहाल, किसी भी जिले की अधिकांश कारोबारी गतिविधियां बाहरी जिलों से संबद्ध होती हैं। इसके लिए लोगों के आवागमन की आवश्यकता होती है। संक्रमण को रोकने का अर्थ है किसी क्षेत्र में आवागमन को कड़ाई से रोकना। इसका आर्थिक गतिविधियों पर असर पडऩा लाजिमी है।
जरा उन उपायों पर नजर डालते हैं जो लॉकडाउन का आर्थिक प्रभाव रोकने के लिए अपनाए गए हैं। सरकार और आरबीआई दोनों ने उपायों की घोषणा की है। सरकार ने 1.7 लाख करोड़ रुपये के प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की है जो जीडीपी के 0.8 फीसदी के बराबर है। यदि 2020-21 के बजट के प्रावधानों को अलग कर दिया जाए तो यह जीडीपी के 0.5 फीसदी के आसपास है।
ये उपाय मोटे तौर पर 80 करोड़ लोगों के लिए अतिरिक्त भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करने से संबंधित हैं। इसके अलावा अन्य उपाय किसानों, खेतिहर मजदूरों, जनधन खाता धारक महिलाओं और संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों को नकदी सुनिश्चित करने या उनकी आय संबंधी जरूरत पूरी करने से जुड़े हुए हैं। इनमें से कई उपाय तीन महीने के लिए लागू हैं। प्रोत्साहन पैकेज उन लोगों के लिए है जो सर्वाधिक प्रभावित हैं। यह लॉकडाउन या कारोबार पर असर की समस्या को हल नहीं करता।
सीमित प्रोत्साहन के साथ भी विश्लेषकों का अनुमान है कि केंद्र का राजकोषीय घाटा जीडीपी के 5-6 फीसदी तक बढ़ जाएगा। ऐसा कमजोर वृद्धि, कम कर संग्रह और विनिवेश को झटका लगने से होगा। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इसकी परवाह किए बिना हमें जीडीपी के 2 फीसदी तक का प्रोत्साहन जारी करना चाहिए। ऐसा प्रोत्साहन अर्थव्यवस्था के लिए अनिवार्य है। रेटिंग एजेंसियां इसे समझेंगी।
एजेंसियां इसे समझ सकती हैं लेकिन अगर मानक पूरे नहीं हुए तो वे रेटिंग कम कर देंगी। रेटिंग कम होने पर विदेशी पूंजी बाहर जाएगी। बेहतर यही होगा कि 4 मई से लॉकडाउन से व्यवस्थित तरीके से बाहर निकलने पर विचार हो और इस बात पर विचार किया जाए कि जमीन पर किन चीजों की आवश्यकता है। फिलहाल सरकार की प्राथमिकता राज्यों का बकाया फंड जारी करने और उन्हें बाजार से अतिरिक्त उधारी लेने की अनुमति देना होना चाहिए।
आरबीआई ने दरों में कटौती की है। उसने व्यवस्था में नकदी डालने के अन्य उपाय भी किए हैं। मसलन विभिन्न ऋणों को तीन महीने के लिए स्थगित किया जाना, कार्यशील पूंजी पर ब्याज का भुगतान लंबित किया जाना आदि। इनमें से कुछ उपाय इस बात पर केंद्रित हैं कि बैंक अधिक से अधिक ऋण दे सकें।
बैंक मौजूदा ग्राहकों को और अधिक ऋण दे सकते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उनका रिकॉर्ड संतोषजनक है। बहरहाल, मौजूदा माहौल में, इस बात की संभावना काफी कम है कि वे नए ग्राहकों, खासतौर पर छोटे और मझोले उपक्रमों को ऋण देंगे। कुछ लोग चाहते हैं कि आरबीआई कारोबारियों को सीधे ऋण मुहैया कराए। इसके लिए वह कॉर्पोरेट बॉन्ड की मदद ले सकता है। जो कॉर्पोरेशन निवेश श्रेणी के बॉन्ड जारी कर सकते हैं वे ऐसे नहीं हैं जिन्हें इस समय सबसे अधिक मदद चाहिए। एसएमई को सबसे अधिक मदद चाहिए। न तो बैंक और न ही आरबीआई उन्हें जरूरी मदद दे सकता है। यह काम केवल केंद्र सरकार ही कर सकती है।
अमेरिका की बात करें तो वहां की संघीय सरकार ने पेरोल प्रोटेक्शन प्रोग्राम की घोषणा की है। इस प्रोग्राम के तहत सरकार बैंकों द्वारा छोटे कारोबारियों को दिए जाने वाले ऋण पर गारंटी दे रही है। भारत में सरकार ने छोटे कारोबारियों को जो राहत दी है वह नियोक्ता और कर्मचारी दोनों के हिस्से का भविष्य निधि भुगतान करने तक सीमित है। इसके लिए भी काफी कड़े मानक अपनाए गए हैं।
एक बार हालात थोड़े स्पष्ट हो जाने के बाद सरकार काफी कुछ कर सकती है। उसे यह समझना चाहिए कि फिलहाल राजकोषीय प्रोत्साहन का अर्थ है महामारी से उपजी निराशा को कम करना। यह गरीबी से जंग लडऩे या संकट से जूझ रहे कारोबारों को बचाने का मामला नहीं है। फिलहाल सबसे बेहतर यही प्रतीत हो रहा है कि सरकार निर्गम के आकलन के साथ प्रोत्साहन दे।
(लेखक आईआईएम अहमदाबाद के प्रोफेसर हैं)
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