संकट में अवसर! | |
साप्ताहिक मंथन | टी. एन. नाइनन / 04 24, 2020 | | | | |
एक महीना पहले देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के बाद केंद्र सरकार ने शुरुआती निर्णयों में से एक में नियोक्ताओं से कहा (भले ही उनका कामकाज कितना भी प्रभावित हुआ हो) कि वे यह सुनिश्चित करें कि कर्मचारियों को पूरा भुगतान हो। तब से अब तक लगातार वेतन भुगतान को लेकर तमाम अप्रत्याशित खबरें सामने आती रही हैं। करीब आधा दर्जन राज्य सरकारों ने कर्मचारियों के वेतन में कटौती और भुगतान स्थगित करने की घोषणा कर दी है।
यहां तक कि वामशासित राज्य केरल, जिसे कोविड-19 से निपटने के लिए चौतरफा सराहना मिली है, उसने भी अगले पांच महीनों तक तकरीबन 20 फीसदी के बराबर वेतन कटौती की घोषणा की है। जिस समय संसद स्थगित थी उस समय केंद्र सरकार ने दोनों सदनों के सदस्यों के वेतन में 30 फीसदी कटौती की घोषणा की। इतना ही नहीं उनकी क्षेत्र विकास निधि को भी निलंबित किया गया।
अब सरकार ने अपने कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में किए गए इजाफे को फिलहाल रोक दिया है। ऐसा तब है जबकि उसके कर्मचारियों ने पीएम-केयर्स फंड में अनिवार्य योगदान किया है। सरकारी क्षेत्र की कंपनियों की हालत भी बेहतर नहीं है। उदाहरण के लिए एयर इंडिया ने भत्तों में कटौती की है और खबर है कि वह वेतन में कटौती पर भी विचार कर रही है। विडंबना यह है कि इंडिगो ने 'सरकार की इच्छा' का मान रखते हुए वेतन कटौती वापस ले ली है। एक वक्त था जब समाजवादी भारत में ऐसी वेतन कटौती के लिए कोई जगह नहीं थी। भले ही नियोक्ता कंपनियां ध्वस्त हो रही हों लेकिन मजदूर संगठन कटौती की बात भी नहीं सुनना चाहते थे। पश्चिम बंगाल की इंजीनियरिंग कंपनियां और मुंबई की कपड़ा मिलें इसका उदाहरण हैं। परंतु सरकार द्वारा नियुक्त वेतन आयोग इन बातों से बेपरवाह, पारंपरिक उद्योगों में भारी भरकम वेतन वृद्धि करते रहे। श्रम न्यायालयों ने अपने संदर्भ में कभी किसी उपक्रम की आर्थिकी को शामिल नहीं किया। हालांकि एक संसदीय समिति ने जरूर यह अनुशंसा की कि 'प्राकृतिक आपदा' के वक्त वेतन भुगतान नहीं किया जाए। इसके बावजूद सरकार और सरकारी नौकरियां सुरक्षित मानी जाती थीं। वहां वेतन और पेंशन मिलने की आश्वस्ति थी। परंतु लगता नहीं कि भविष्य में ऐसा होगा। गारंटीशुदा रोजगार, वेतन और पेंशन की यह सुरक्षित दुनिया कुल श्रम शक्ति के बमुश्किल छठे हिस्से की पहुंच में है। शेष तमाम कर्मचारी असंगठित क्षेत्र में हैं जहां नियुक्ति पत्र मिलना तक खुशनसीबी की बात होती है। 'श्रम अधिनायकवाद' जैसा शब्द जहां इसे परिभाषित करने के लिए थोड़ा अतिरंजित है वहीं इसका प्रकटीकरण असह्य होने लगा था, कोविड-19 ने इस अनिष्ट की गति को तेज कर दिया है। वर्ग 'ए' के कर्मचारी जो सरकार की निर्णय प्रक्रिया का बोझ उठाते हैं उन्हें बाजार से कम वेतन मिलता है जबकि अन्य श्रमजीवी जो 'सी' श्रेणी के कर्मचारी होते हैं उन्हें श्रम बाजार की तुलना में दोगुना से तीन गुना तक वेतन मिलता है। खाद्य निगम में कुछ पल्लेदारों को उसके चेयरमैन और प्रबंध निदेशक से ज्यादा भुगतान मिलता रहा है। यह हमेशा नहीं चल सकता था और एक वक्त आया जब दो सरकारी दूरसंचार कंपनियों के कर्मचारियों को महीनों वेतन नहीं मिला।
अब उनमें से 75 प्रतिशत ने यह तय किया है कि स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना का लाभ लेने में समझदारी है। इस बीच पेंशन देनदारियां लगातार बढ़ी हैं क्योंकि लोगों का जीवन लंबा हुआ है, पेंशन को मुद्रास्फीति के साथ समायोजित किया गया है और वेतन आयोग उदार रहे हैं। याद कीजिए मोदी सरकार का शुरुआती दिनों का एक रैंक-एक पेंशन का निर्णय। इस चुनावी वादे को पूरा करने के क्रम में रक्षा पेंशन का बजट बहुत बढ़ गया था। सेना के मामले में तो पेंशन का बिल वेतन बिल से अधिक हो चुका है। रेलवे का वेतन और पेंशन बिल (बोनस समेत) कुल लागत का दोतिहाई हो चुका है। सशस्त्र बलों के मामले में यह 60 फीसदी हो चुका है जबकि सरकार पैसे की कमी के चलते हथियार खरीद रोकने पर विवश है। अर्थव्यवस्था संकट में है। ऐसे में इस प्रकार की अतार्किकता को सामने लाना होगा। राजकोष की कमी हमें कई स्तरों पर प्रभावित करेगी। जो राज्य सरकारें वेतन चुकाने में अक्षम हैं उनको जल्दी ही बिजली खरीद के लिए अग्रिम भुगतान करना पड़ सकता है। यह क्षेत्र बकाया बिल से त्रस्त है। दिल्ली के नगर निगम वेतन देने में महीनों पीछे हैं लेकिन उन्होंने 15 वर्ष से संपत्ति कर को मुद्रास्फीति तक से समायोजित नहीं किया है। यदि कोविड-19 इन क्षेत्रों को तार्किक बनाने में मदद करता है कहा जा सकता है कि यह अपने पीछे सिर्फ बरबादी नहीं छोड़ जाएगा।
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