भारत की भूलभुलैया में कोविड की धुंध | प्रांजुल भंडारी / April 22, 2020 | | | | |
कोविड-19 के खिलाफ जारी जंग के बीच दुनिया भर में ऐसा अहसास देखा जा रहा है कि 'हम सब इस हाल में साथ हैं'। देशों को एक जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। मसलन, अचानक सारी आर्थिक गतिविधियों का ठप पड़ जाना, छोटे कारोबारों पर तगड़ी मार पडऩा और वित्तीय बाजारों का धराशायी हो जाना।
भारत के लिए एक महीन फर्क यह है कि यह वायरस के प्रसार के मामले में बाकी देशों से कुछ हफ्ते पीछे चल रहा है, लिहाजा वह उनके अनुभवों से काफी कुछ सीख सकता है। देश भर में लॉकडाउन का फैसला अपेक्षाकृत जल्दी लिया गया और वह इसी सबक का नतीजा था। लेकिन इसी के साथ हमें कुछ विभेदों को स्वीकार भी करना है। भारत की अलग खासियत के चलते कोविड महामारी के नतीजे बाकियों से अलग भी हो सकते हैं या कम-से-कम नतीजों को लेकर अनिश्चितता का भाव पैदा कर सकते हैं जिससे नीति-निर्माताओं के लिए कदम उठाना जटिल हो जाएगा।
पहला, इस बात को लेकर बड़े सवालिया निशान हैं कि भारत में यह वायरस कितना फैलेगा? चीन के राष्टï्रीय प्राकृतिक विज्ञान फाउंडेशन से अनुदान-प्राप्त एक हालिया अध्ययन में चीन के शहरों के भीतर प्रसार को लेकर यह नतीजा निकाला गया है कि गर्म तापमान एवं उमस से वायरस का प्रसार धीमा हो सकता है। यह भारत के लिए एक सकारात्मक बात है जहां गर्मियों के महीनों में बहुत तेज धूप होती है। लेकिन दुख की बात यह है कि वही रिपोर्ट उच्च जनसंख्या घनत्व और प्रति व्यक्तिनिम्न आय का मेल मौसम संबंधी लाभों को खत्म करने की बात भी करती है।
आशावादी कहते हैं कि भारत का तुलनात्मक रूप से जल्द लॉकडाउन करने का फैसला उच्च जनसंख्या घनत्व से उपजने वाली चुनौतियों पर भारी पड़ सकता है। वहीं निराशावादियों का मानना है कि लॉकडाउन की घोषणा होते ही बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों का अपने-अपने गांव लौटना उलटा पड़ सकता है। इतने सारे विरोधाभासी हालात को देखते हुए यह अनुमान लगा पाना काफी मुश्किल है कि वायरस का प्रसार भारत में किस तरह होगा?
नीति-निर्माताओं में ऐसी सोच हो सकती है कि वे नीतिगत शस्त्रागार में ताकत को बचाकर रखें ताकि हालात बेहद खराब होने पर उसका इस्तेमाल किया जाए। इस रवैये के साथ समस्या यह है कि अनिश्चितता का लंबा दौर अपने-आप में खासा महंगा साबित हो सकता है। मसलन, लोग अगर लॉकडाउन बने रहने को लेकर असमंजस में फंसेंगे तो उसका उल्लंघन करना शुरू कर देंगे। वैसी स्थिति में अधिकारियों को हालात बेहद खराब होने के पहले अपने संसाधनों पर और ध्यान देना चाहिए। कामगारों एवं फर्मों को नकदी एवं कर्ज आवंटन बढ़ाना तात्कालिक प्राथमिकता होनी चाहिए।
दूसरा, भारत के कार्यबल में हुआ बड़ा विस्थापन आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरू होने की राह में बड़ी अड़चन बन सकता है। शहरी इलाकों से बड़े पैमाने पर गांवों की तरफ लौटने का यह मतलब है कि लॉकडाउन कोई साधारण स्विच नहीं है जिसे ऑन-ऑफ किया जा सके। मजदूर धीरे-धीरे ही काम पर लौटेंगे और वायरस के पूरी तरह खत्म हो जाने के बाद भी कामकाज पटरी पर आने में समय लग सकता है।
ऐसे में नीति-निर्माताओं को मौजूदा समस्याओं का मुकाबला करने के साथ ही रिकवरी की दीर्घकालिक प्रक्रिया में भी सक्रिय भूमिका निभानी होगी। गैर-सरकारी संगठनों, निजी कंपनियों और स्थानीय निकायों को इस प्रक्रिया का हिस्सा बनाना एक अच्छी सोच हो सकती है।
तीसरा, बड़े अनौपचारिक क्षेत्र में दिहाड़ी मजदूरों के अलावा नकदी पर ही आश्रित एकल-व्यक्ति दुकानें भी आती हैं। इस क्षेत्र को औपचारिक क्षेत्र की तरह सुरक्षा आवरण नहीं मिलता है। सच तो यह है कि करीब 85 फीसदी भारतीय श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र में ही काम करते हैं और भारतीय फर्मों का बड़ा हिस्सा भी इसी क्षेत्र में आता है। ऐसे मुश्किल वक्त में औपचारिक क्षेत्र कानूनी अनुबंधों में 'फोर्स मेजर' प्रावधान का इस्तेमाल कर सकता है और इसके लिए उसके पास कोविड महामारी की अप्रत्याशित प्रकृति का तर्क भी होगा जो उसे राहत की सांस दे सकता है। सिनेमाघरों की शृंखला संचालित करने वाली एक कंपनी ने हाल ही में इस प्रावधान का इस्तेमाल करते हुए अपने सिनेमाघरों के किराये नहीं देने का फैसला किया है। लेकिन इस तरह की लग्जरी अनौपचारिक क्षेत्र के पास नहीं है। क्या चाय का छोटा स्टॉल लगाने वाले दुकानदार को कुछ महीने बाद अपने गांव से लौटने पर भी वह जगह खाली मिल पाएगी?
भारत के अनौपचारिक अनुबंधों में अंतर्निहित सद्भावना या 'सामाजिक पूंजी' को अगले कुछ महीनों में अपने सबसे बड़े परीक्षण का सामना करना होगा। नीति-निर्माताओं को इसके परिणाम अनुकूल नहीं होने के लिए भी तैयार रहना होगा।
चौथा, वित्तीय क्षेत्र को तगड़ा आघात लग सकता है। भारत की वित्तीय प्रणाली के लिए पिछले कुछ साल अच्छे नहीं रहे हैं। वर्ष 2015-18 के दौरान बैंकों में फंसे कर्जों की बड़ी राशि की मान्यता एवं उसके लिए अलग प्रावधान करने का सिलसिला एनबीएफसी के पतन के तौर पर सामने आया। जोखिम से परहेज करने वाली वित्तीय प्रणाली के चलते 2019 के पूरे साल ऋण वृद्धि कमजोर रही और आरबीआई की ब्याज दर कटौतियों का उधारी दरों तक संचरण भी संतोषजनक नहीं रहा था।
अब अगर पहले से ही कमजोर वित्तीय प्रणाली पर कोविड संकट की भी मार पड़ती है और कर्ज फंसने की दर अगले कुछ महीनों में बढ़ जाती है तो भारत के बैंकों में जोखिम लेने की प्रवृत्ति और घट जाएगी और वे जरूरत होने पर भी कर्ज देने से परहेज कर सकते हैं। सबसे बुरा यह हो सकता है कि अर्थव्यवस्था की मध्यम-अवधि वाली वृद्धि संभावना ही संदेह के घेरे में आ जाए।
यहां पर नीति-निर्माताओं के लिए एक अहम सबक है। बैंकों पर इस बात के लिए निर्भर हो जाना निराशाजनक हो सकता है कि वे मौद्रिक राहत उपायों के लाभ कंपनी जगत तक पहुंचाएं। बैंक कर्ज चुकाने में आरबीआई द्वारा दी गई मोहलत कंपनियों को देने में अनिच्छुक हो सकते हैं। बैंक आरबीआई की मंशा के अनुरूप खुलकर कर्ज देने में भी अनिच्छा जता सकते हैं।
ऐसी स्थिति में आरबीआई मुश्किल में फंसी फर्मों और क्षेत्रों तक सीधे पहुंचने के बारे में सोच सकता है। इसके लिए वह आरबीआई अधिनियम के उस अप्रचलित प्रावधान का इस्तेमाल कर सकता है जो कुछ चिह्नित उधारी सुविधाओं की अनुमति देता है। इन सबको एक साथ रखकर देखें तो लगता है कि अधिकारियों को एक सार्थक राहत पैकेज जल्द देने में सक्रियता दिखानी चाहिए। नकदी एवं ऋण की उपलब्धता अहम होगी क्योंकि इसी से कारोबारों को कामकाज जारी रखने के लिए जरूरी पूंजी मिल पाएगी और विस्थापित कामगारों को भी बुनियादी निर्वाह साधन मुहैया कराए जा सकेंगे। छोटी फर्मों के लिए सरकार को कर्ज गारंटी देने की जरूरत पड़ सकती है और आरबीआई चुनिंदा क्षेत्रों को सीधे ही फंड देना शुरू कर सकता है। जीएसटी दर में अस्थायी कटौती भी मांग बढ़ाने का एक तरीका हो सकती है। व्यक्तिगत स्तर पर जन-धन खाताधारकों को नकद हस्तांतरण में तेजी लानी होगी। यह न केवल बेरोजगारी भत्ते की तरह काम करेगा बल्कि उन्हें फिर से काम पर लौटने में भी मददगार होगा।
आखिर में, इन सबको संभव बनाने के लिए यह समझ होनी बेहद जरूरी है कि जरूरत पडऩे पर आरबीआई सरकारी बॉन्डों की खरीद कर राजकोषीय घाटे के एक हिस्से की भरपाई सीधे ही करेगी।
(लेखिका एचएसबीसी सिक्योरिटीज ऐंड कैपिटल मार्केट्स इंडिया की मुख्य अर्थशास्त्री हैं)
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