एक खास उम्र वाले लोगों को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का संबोधन सुनकर थोड़ा अचंभा हुआ होगा। उद्धव ने लॉकडाउन के दूसरे चरण की घोषणा के दिन ही अपने गांव लौटने के लिए मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन पर हजारों प्रवासी कामगारों के पहुंचने से मची अफरातफरी और उन पर हुए लाठीचार्ज के संदर्भ में अपनी बात रखी।
पहली बात, उद्धव का संबोधन हिंदी में था। निश्चित रूप से मुख्यत: उत्तर प्रदेश एवं बिहार से ताल्लुक रखने वाले इन कामगारों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए मराठी में बोलना सही नहीं होता लेकिन एक शिवसैनिक के लिए तो यह बहुत बड़ी बात थी। उद्धव ने अपने भाषण में कहा,'आप लोग मेरे राज्य में सुरक्षित हैं। आप घबराएं नहीं। जिस दिन लॉकडाउन हटाया जाता है उसी दिन न केवल मैं बल्कि केंद्र सरकार भी आपके लिए इंतजाम करेगी। इस समय चुनौती यह है कि यहां रुके रहकर कोरोनावायरस का मुकाबला किया जाए। यह महाराष्ट्र है और हम सब एक देश हैं।' यह बयान शरद पवार या पृथ्वीराज चव्हाण नहीं दे रहे थे। यह उद्धव ठाकरे थे, शिवसेना के निर्विवाद नेता।
जब उद्धव के पिता बाल ठाकरे ने दर्जन भर लोगों के साथ शिवसेना की स्थापना की थी तो उनके निशाने पर मुख्यत: प्रवासी लोग होते थे जिनकी मुंबई और नजदीकी इलाकों में संख्या बढ़ती जा रही थी और उनके पास वे नौकरियां भी जा रही थी जो मराठी-भाषी लोगों के पास जानी चाहिए थीं। उस वक्त संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन का खुमार उतरना शुरू हो चुका था। इस आंदोलन ने ही मुख्यत: मराठी भाषी लोगों के राज्य के तौर पर 1960 में महाराष्ट्र के गठन में अहम भूमिका निभाई थी। मुंबई के मराठी युवकों को इस कड़वे सच का आभास होने लगा था कि महाराष्ट्र की राजधानी होने के बावजूद इस शहर पर उनका ही दबदबा नहीं रह गया था।
ऐसे माहौल में बाल ठाकरे ने गैर-मराठी भाषी प्रवासियों के खिलाफ हमलावर तेवर अपनाए। मुंबई में कारोबार पर गुजराती, मारवाड़ी और पारसी समुदायों का दबदबा था जबकि सफेदपोश नौकरियां अंग्रेजी बोलने में कुशल और अकाउंटेंसी एवं शॉर्टहैंड में प्रशिक्षित दक्षिण भारतीय लोगों के पास जा रही थीं। और मुंबई के नए शासक बने मुख्यमंत्री एवं मंत्रियों को मुंबई के मराठी-भाषी लोगों की पीड़ा से कोई सरोकार नहीं था क्योंकि उनके निर्वाचन क्षेत्र तो महाराष्ट्र के दूरदराज के इलाकों में थे। बाल ठाकरे की पत्रिका 'मार्मिक' हर हफ्ते सार्वजनिक उपक्रमों में भर्ती होने वाले लोगों की सूची प्रकाशित करती थी ताकि यह बताया जा सके कि मुंबई के लोगों के हक को किस तरह दूसरे हड़प रहे हैं? एसबीआई, आरबीआई, एयर इंडिया और एलआईसी जैसे संस्थानों में भर्ती होने वाले लोगों के नाम 'पढ़ो और चुप रहो' शीर्षक से छापे जाते थे। साठ के दशक में ठाकरे का नारा हुआ करता था: बजा पुंगी, हटा लुंगी। वह बाहरी लोगों के लिए आम तौर पर 'येंडू-गुंडू' जैसी शब्दावली का इस्तेमाल करते थे। इसका मतलब तमिल, कन्नड़ और मलयालम बोलने वाले लोगों से था। उत्तर भारत के लोग तो मुंबई देर से आए लेकिन दुग्ध-आपूर्ति के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार से इनके आने की रफ्तार बढ़ती ही रही।
बाल ठाकरे की शिवसेना मुंबई और आसपास के इलाकों से आगे नहीं बढ़ पाई तो इसकी वजह यह थी कि महाराष्ट्र के बाकी हिस्सों के लोग बाहरी लोगों को खतरे के तौर पर नहीं देखते थे। इससे पार पाने के लिए पार्टी की रणनीति का एक दौर खत्म हुआ और हिंदू राष्ट्रवाद का नया दौर शुरू हुआ। साल बीतने के साथ शिवसेना का राजनीतिक दर्शन भी अलग दिशाओं में विकसित हुआ है। नब्बे का दशक आने तक सेना ने आक्रामक हिंदुत्ववादी रुख अपना लिया था और 1992-93 के मुंबई दंगों में निभाई गई उसकी सक्रिय भूमिका ने उसे मुंबई के बाहर भी अपना जनाधार बढ़ाने में मदद की। गुजराती, उत्तर भारतीयों और कन्नडिगा जैसे कई गैर-महाराष्ट्रीय समुदायों ने 1995 के विधानसभा चुनाव में मुंबई की कुल 32 में से 31 सीटें जिताने में मदद की। लेकिन कई लोगों के लिए यह 'मराठी मानुष' का निर्णायक प्रभाव था और इसी ने शिवसेना को परिभाषित किया। मराठी मानुष महाराष्ट्रीय और मराठी-भाषी है।
अब हम 2020 की तरफ लौटते हैं। इस समय शिवसेना न केवल अपने सियासी दुश्मन कांग्रेस के साथ गठबंधन में है बल्कि वह देश के अन्य हिस्सों से आए लोगों को अपना दोस्त बनाने में भी लगी हुई है। बाल ठाकरे अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद शिवसेना को पश्चिम महाराष्ट्र, विदर्भ और मराठवाड़ा तक नहीं पहुंचा पाए। पार्टी का प्रभाव मूलत: मुंबई, पुणे और नाशिक तक ही सीमित रहा। ठाकरे किसानों को अपने साथ जोडऩे में भी नाकाम रहे।
लेकिन बहुत कुछ बदल चुका है। 2004 के राज्य विधानसभा चुनावों के पहले उद्धव ठाकरे ने 'मी मुंबईकर' अभियान शुरू किया था जिसका मकसद मराठी के अलावा अन्य भाषाएं बोलने वाले लोगों तक पहुंचना था। खास तौर पर उत्तर भारतीय लोग इसके निशाने पर थे। उद्धव ने लेखक धवल कुलकर्णी से कहा था, 'मुंबई ने यहां आने वाले सभी लोगों की सेवा की। लिहाजा धर्म और जाति जैसी संकीर्ण पहचानों को तिलांजलि देना और इसका खोया हुआ गौरव लौटाना जरूरी है।' कुलकर्णी ने ठाकरे परिवार की अंदरूनी खींचतान के बारे में एक किताब 'द कजिंस ठाकरे: उद्धव, राज ऐंड द शैडो ऑफ देयर सेनाज' लिखी है।
इन कोशिशों का ही नतीजा है कि आज महाराष्ट्र के हरेक ग्रामीण लोकसभा क्षेत्र में शिवसेना को 70,000 से लेकर 1 लाख तक मत मिले हैं। और कोविड-19 महामारी ने आज मुंबई ही नहीं समूचे महाराष्ट्र को प्रवासी कामगारों की जरूरत बता दी है। सवाल है कि शिवसेना इससे राजनीतिक तौर पर कैसे निपटेगी?