रक्षा कूटनीति की अपनी सीमाएं | |
प्रेमवीर दास / 04 01, 2020 | | | | |
भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि पिछले एक साल में बुरी तरह प्रभावित हुई है और उसने रक्षा को अपनी विदेश नीति की धुरी बना लिया है। लेकिन इस रणनीति के सीमित फायदे हैं। बता रहे हैं प्रेमवीर दास
यह देखना दिलचस्प है कि 'रक्षा कूटनीति' हमारी विदेश नीति की धुरी बन गई है। पिछले वर्षों में विदेश मंत्रालय ने शायद ही कभी राष्ट्रीय हित को आगे बढ़ाने के लिए सैन्य वार्ताओं का सहारा लिया था। विदेश नीति में हमारा जोर आर्थिक मुद्दों, व्यापार, सांस्कृतिक संबंधों आदि पर रहता था। लेकिन अब ऐसा लगता है कि हमारे तरकश में ये कूटनीतिक शस्त्र कम हो गए हैं। हाल की घटनाएं इस बात का स्पष्टï प्रमाण हैं कि रक्षा संबंध हमारी विदेश नीति की धुरी बन गए हैं।
मई 2019 में शानदार चुनावी जीत के बाद बनी नई राष्टï्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के लिए सभी चीजें अनुकूल थीं। अर्थव्यवस्था में जरूर कुछ सुस्ती दिख रही थी लेकिन किसी ने भी नहीं सोचा था कि इसकी हालत इतनी बदतर हो जाएगी। जुलाई में पेश किए गए बजट की अधिकांश घोषणाओं को अगले दो-तीन महीनों में वापस लेना पड़ा। इसके साथ ही अगस्त में अनुच्छेद 370 के अधिकांश प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया। हालांकि यह हमारे संप्रभु अधिकारों के दायरे में था लेकिन इससे एक सहिष्णु राज्य के रूप में हमारी विश्वसनीयता पर कुछ सवाल खड़े हुए। कुछ समय बाद भारत को दुनिया को यह समझाना पड़ा कि उसने घरेलू स्तर पर जो कदम उठाए हैं, वे सही हैं।
यह मामला अभी शांत नहीं हुआ था कि नागरिकता संशोधन कानून ने जाने-अनजाने धर्म को एक बार फिर राज्य की नीति के केंद्र में ला दिया। इससे भारत को अंतरराष्टï्रीय आलोचनाओं का सामना करना पड़ा और इस बार फिर सरकार को ज्यादा आक्रामकता के साथ अपना बचाव करना पड़ा। विदेश मंत्री को तो यहां तक कहना पड़ा कि 'अब हमें पता है कि कौन हमारा दोस्त है।Ó इससे कई देश भारत के दोस्तों की सूची से बाहर हो गए। इनमें ईरान, तुर्की, मलेशिया, इंडोनेशिया और बांग्लादेश शामिल हैं। इन देशों के अहम नेताओं ने भारत की घरेलू नीतियों की आलोचना करने में कोई हिचक नहीं दिखाई। इनमें कुछ इस मामले में दूसरों से ज्यादा मुखर थे।
ऐसे माहौल में अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने कश्मीर के मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता की पेशकश कर डाली। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कई मंचों पर कहा कि भारत और पाकिस्तान सवाल के दो पहलू हैं। इससे पहले अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठïान ने सार्वजनिक तौर पर ऐसी बात कहने से परहेज किया था। इस समय अर्थव्यवस्था में भी गिरावट का दौर है, कई क्षेत्रों में संस्थागत खामियों से अंतरराष्टï्रीय स्तर पर हमारी स्थिति कमजोर हुई है। सच्चाई यह है कि भारत की साख एक साल पहले जैसी नहीं रही, बल्कि दूर-दूर तक वैसी नहीं है।
ऐसे चिंताजनक माहौल में, अगर किसी चीज ने भारत को कुछ हद तक संभाले रखा है तो वह है रक्षा कूटनीति। जैसे कि पहले जिक्र किया जा चुका है कि पिछले 10 साल में यह स्थिति आई है। भारत ज्यादा से ज्यादा देशों के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास कर रहा है और भारत के पोत दूसरे देशों के बंदरगाहों का दौरा कर रहे हैं। अधिकांश देशों के साथ इस तरह की कवायद का ज्यादा मतलब नहीं है लेकिन खासकर अमेरिका और जापान के साथ इस तरह के अभियान बेहद सफल रहे हैं।
भारत ने 2002 में अमेरिका से सैन्य साजोसामान की खरीद शुरू की थी और अब तक वह उससे 20 अरब डॉलर से अधिक की खरीद कर चुका है। इनमें मुख्यत: विमानों की खरीद शामिल हैं। साथ ही दोनों देशों के बीच कुछ अहम रक्षा सौदे भी हुए हैं जिनके तहत प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण भी होना है। जापान अब समुद्र में होने वाले त्रिपक्षीय मालाबार अभ्यास का नियमित हिस्सा है।
कई बार यह दावा किया जा चुका है कि हिंद-प्रशांत परस्पर हित का मंच है लेकिन यह नहीं बताया जा रहा है कि इस बारे में हमारी समझ अलग है। समुद्र में आवागमन की आजादी को अलग रख दें तो इसके उद्देश्य की कोई सटीक पहचान नहीं है। कूटनीतिज्ञों और रणनीतिकारों ने परोक्ष रूप से ऐसे संकेत दिए हैं कि इसका असली मकसद इस क्षेत्र के चीन के बढ़ते प्रभाव को कम करना है लेकिन यह संकेत नहीं देते हैं कि किसी तरह के सैन्य गठबंधन के बिना यह कैसे होगा और चीन कैसे हमारे कुछ साझा हितों के लिए खतरा है। अमेरिका की प्रशांत और मध्य कमान के जरिये हमेशा इस क्षेत्र में सैन्य मौजूदगी रही है जबकि हमारे सशस्त्र सेनाओं के प्रमुख की मानें तो हमारी आकांक्षा केवल प्रायद्वीपीय है।
इससे भारत हिंद-प्रशांत में एक अहम ताकत नहीं बनेगा। आम बजट में रक्षा के लिए महज 14 फीसदी राशि आवंटित की गई है। तीन दशक पहले भी यह राशि लगभग इतनी ही थी। भारत के जिन अन्य देशों के साथ सामुद्रिक रक्षा संबंध हैं, उनके लिए हिंद प्रशांत सहयोग का आधार नहीं है। इनमें फ्रांस, ब्रिटेन और रूस शामिल हैं। रूस ने तो सार्वजनिक रूप से इस अवधारणा का मजाक उड़ाया था और वह भी विदेश मंत्रालय द्वारा भारत में आयोजित सम्मेलन में। इसलिए पिछले दशक में हमारी रक्षा कूटनीति का अहम हिस्सा अमेरिका के साथ संबंध रहे हैं। इन संबंधों की धुरी अमेरिका से सैन्य साजोसामान की खरीद है।
अगर रक्षा कूटनीति हमारी विदेश नीति का अहम हिस्सा बन गई है तो यह अच्छी बात है। ट्रंप के हालिया दौरे की एकमात्र उपलब्धि यह रही कि इस दौरान 3 अरब डॉलर के सैन्य हेलीकॉप्टर की खरीद के लिए सौदा हुआ। ऐसी कोई वजह नहीं है कि इस तरह की वार्ता नहीं होनी चाहिए लेकिन इनकी अपनी सीमाएं हैं।
दुनिया में कई ऐसे देश हैं जो हम पर बराबर नजर बनाए हुए हैं। इनमें चीन और रूस प्रमुख हैं। चीन के साथ हमारी हजारों किलोमीटर लंबी विवादित सीमा है और दोनों देशों के सुरक्षा संबंधों में भी तनाव है। रूस से साथ हमारे छह दशक पुराने सैन्य संबंध हैं लेकिन अब उसमें कुछ दरारें आ गई है। मुस्लिम दुनिया में ईरान को आसानी से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसी तरह आसियान में इंडोनेशिया और पड़ोस में बांग्लादेश की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है।
विदेशों में भारत की छवि घरेलू मुद्दों से परिभाषित हो रही है। रक्षा कूटनीति अपने आप इस नकारात्मकता को दूर नहीं कर सकती है। दुर्भाग्य से इस महीने पूर्वी तट पर होने वाले 38 देशों के पोतों के अभ्यास को कोरोनावायरस के कारण रद्द कर दिया गया है। यह भारत की अंतरराष्टï्रीय छवि को सुधारने का बेहतरीन मौका था।
कुल मिलाकर भारत दुनिया में एक बड़ी ताकत बनकर उभरना चाहता है तो उसे चमकता हुआ दिखना चाहिए, बिखरता हुआ नहीं। भारत को अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि को ध्यान में रखते हुए अपने घरेलू मुद्दों को सुलझाना चाहिए। रक्षा कूटनीति हमें यहीं तक ला सकती है, इससे आगे नहीं।
(लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य रह चुके हैं।)
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