आज शुरू हो रहा वित्त वर्ष 2020-21, हाल के दशकों का सबसे कठिन वर्ष साबित होने वाला है। शेष विश्व के साथ भारत भी कोविड-19 के प्रसार को रोकने के लिए संघर्ष कर रहा है। इसके अपने आर्थिक निहितार्थ हैं। हालांकि यह आकलन कर पाना मुश्किल है कि इससे कितना नुकसान होने वाला है। यदि लॉकडाउन निर्धारित समय पर समाप्त भी हो जाता है तो भी आर्थिक गतिविधियों में सुधार होने में वक्त लगेगा। सच तो यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था गहरी मंदी की शिकार हो रही है और इससे भारत की राह और मुश्किल होगी। चूंकि अभी शुरुआती दौर है और अर्थशास्त्री संभावित असर का आकलन करने की प्रक्रिया में हैं इसलिए वृद्धि के अनुमानों में काफी अंतर है। उदाहरण के लिए नोमुरा का आकलन है कि 2020 में भारत की अर्थव्यवस्था 0.5 फीसदी सिकुड़ेगी और मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस ने वर्ष 2020 में भारत के वृद्धि अनुमान को 5.3 फीसदी से घटाकर 2.5 फीसदी कर दिया है। हर नई सूचना के साथ अनुमान भी बदलते रहते हैं लेकिन बजट में जताया गया 10 फीसदी की नॉमिनल वृद्धि का अनुमान तो अब दूर की कौड़ी नजर आ रही है।
वृद्धि दर में आई कमजोरी सरकार की वित्तीय व्यवस्था पर काफी दबाव पैदा करेगी। इसके अलावा सरकार को विभिन्न स्तरों पर व्यापक हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है ताकि इस महामारी के कारण होने वाले नुकसान को कम किया जा सके। सरकार ने आबादी के सबसे वंचित तबके के लिए पैकेज की घोषणा कर दी है लेकिन शायद उसे आम नागरिकों और कारोबारी जगत पर दबाव कम करने के लिए काफी कुछ और करना है। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी कुछ कदम उठाए हैं। इसमें नीतिगत दरों में अहम कटौती, व्यवस्था में नकदी डालना और ब्याज भुगतान को आगे बढ़ाना शामिल है। परंतु शायद कारोबारी जगत की रक्षा के लिए इतना पर्याप्त न हो। खासतौर पर छोटे और मझोले उपक्रमों के बचाव के लिए। कारोबारी जगत को सरकार की मदद की भी आवश्यकता होगी। यह भी संभव है कि कई कंपनियां बंद हो जाएं और कर्जदार बुरी तरह प्रभावित हों। दिवालिया और नकदी प्रवाह की समस्या बैंकिंग क्षेत्र में परिसंपत्ति गुणवत्ता को प्रभावित कर सकती है। इसके लिए पूंजी डालने की आवश्यकता पड़ सकती है। केंद्रीय बैंक और सरकार दोनों को नुकसान को सीमित करने के लिए सतर्क रहना होगा। काफी हद तक नीतिगत हस्तक्षेप भी यह तय करेंगें कि लॉकडाउन सामान्य होने के बाद हालात कितनी जल्दी सामान्य होते हैं। वित्तीय समस्याएं, दिवालिया मामले और बेरोजगारी में बढ़ोतरी के कारण समस्या काफी बढ़ जाएगी।
बहरहाल, भारत की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि सरकार की वित्तीय स्थिति बहुत अच्छी नहीं है और इसके कारण जरूरी कदम उठाने की उसकी क्षमता पर असर पड़ेगा। उदाहरण के लिए सरकार ने देश में कोविड-19 के असर के नजर आने के पहले राजकोषीय प्रबंधन नियमों के निर्गम प्रावधान को लागू कर दिया था। हकीकत तो यह है कि सरकार को मंगलवार को समाप्त हुए वित्त वर्ष 2019-20 के घाटे के संशोधित लक्ष्य को पाने में भी मुश्किल होगी। उदाहरण के लिए प्रत्यक्ष कर संग्रह के बारे में कहा जा रहा है कि यह लक्ष्य से 1.5 लाख करोड़ रुपये कम रहेगा। भारत सरकार ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह अमेरिका आदि विकसित देशों की तरह व्यय कर सके। फिर भी उसे व्यय बढ़ाना होगा। इस दौर में राजकोषीय विस्तार टालना मुश्किल है लेकिन इससे वित्तीय स्थिरता जोखिम बढ़ेगा। सरकार ने वित्त वर्ष के लिए अपनी ऋण योजना नहीं बदली है लेकिन उसे व्यापक वृहद आर्थिक नीति पर काम शुरू कर देना चाहिए। इससे न केवल नुकसान सीमित होगा बल्कि रिकवरी की प्रक्रिया भी सहज होगी।
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