खूबियां-खामियां उजागर | साप्ताहिक मंथन | | टी. एन. नाइनन / March 27, 2020 | | | | |
जब भी कोई संकट आता है तो व्यवस्था की खूबियां और खामियां उजागर होती हैं। सन 2016 में नोटबंदी के दौरान देश के रोजमर्रा के जीवन में मची अफरातफरी के बीच हमारी सामाजिक स्थिरता उजागर हुई थी। लोग बैंक शाखाओं पर कतार में लगे-लगे मर गए लेकिन कहीं दंगा नहीं हुआ। इसके ठीक विपरीत गत माह पूर्वोत्तर दिल्ली में भड़की हिंसा ने हमारी उस सामाजिक खामी को उजागर किया जो यदाकदा देखने को मिल जाती है। पुलिस शुरुआत में नियंत्रण पाने में नाकाम रही और इसने दिखाया कि कानून का प्रवर्तन करने वाली मशीनरी किस हद तक सांप्रदायिक है।
कोविड-19 ने नए सिरे से हमारी ताकत और कमियां उजागर की हैं। प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन की घोषणा की और शीर्ष से नेतृत्व संभाला। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लोगों को बताया कि लॉकडाउन का पालन नहीं करने के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं। परंतु संकट से ग्रस्त लोगों की मदद तथा आर्थिक मोर्चे पर उसके दुष्परिणामों से निपटने की राह राज्यों ने दिखाई है। यह आश्वस्त करने वाला दृश्य है कि भारत विभिन्न स्तरों पर मजबूत है। इसके अलावा मीडिया को भयभीत करने या उसके भोंपू बन जाने के तमाम प्रमाणों के बीच इस बात में भी ज्यादा संदेह नहीं कि प्रवासी कामगारों के पैदल सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों की ओर लौटने (क्योंकि सभी यात्री सेवाएं ठप हैं) की खबरों के बाद सरकारों ने उनके लिए भोजन व्यवस्था की और परिवहन का इंतजाम किया जा रहा है। आशा है कि लोग अपने घरों को जा सकेंगे या जहां हैं वहां रुक सकेंगे ताकि हालात सामान्य होने तक उन्हें आसपास कुछ काम-धंधा मिल सके।
जनधन खाते, आधार और मोबाइल की तिकड़ी जिसे 'जामÓ का नाम दिया गया था, वह काम आई है। ऐसे वक्त में जब यह लगने लगा था कि आधार लोगों तक लाभ हस्तांतरित करने के तरीके के बजाय सरकार की निगरानी का उपाय अधिक है, इसने अपनी उपयोगिता साबित की है। वित्त मंत्री ने जिन उपायों की घोषणा की है उनमें से कई को पूरा करने में यह उपयोगी साबित होगा। बिना इन तीनों उपायों के नकद हस्तांतरण कर पाना अत्यधिक कठिन होता। व्यवस्था बेहतरीन नहीं है। यह सही है कि लोग प्रभावित हुए हैं लेकिन इस अपरिपक्वता के बावजूद यह काफी बेहतर है।
कुछ कमजोरियां भी उजागर हुई हैं। मसलन स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में भारी कमी। यह बात दशकों से हमारे सामने है। टीकाकार लगातार इस पर टिप्पणी करते रहे हैं। दुनिया की कुछ हद तक विकसित तमाम अर्थव्यवस्थाओं के उलट भारत में चिकित्सा व्यय काफी हद तक निजी है। सरकार की बहुत अधिक भूमिका नहीं है। अधिकांश सरकारों के पास पर्याप्त तैयारी ही नहीं है। इसलिए क्योंकि देश में ऐसा सक्रिय सरकारी स्वास्थ्य ढांचा ही नहीं है जो 1.3 अरब भारतीयों की जरूरत पूरी कर सके। यदि देश में कोविड-19 के मरीज मौजूदा 10 गुना की दर से बढ़ते रहे तो व्यवस्था पूरी तरह चरमरा जाएगी। इतना ही नहीं परीक्षण और जांच, जरूरी बचाव उपकरण बनाने, वेंटिलेटर की आपूर्ति आदि में निजी क्षमताओं का इस्तेमाल करने में भी देर की गई है। आशा है कि भविष्य में स्वास्थ्य बजट में इसे लेकर जागरूकता दिखाई जाएगी।
देश की तंगहाल राजकोषीय स्थिति भी एक बाधा है। लंबे समय से घाटों की स्थिति बुरी ही चल रही है। राष्ट्रीय कर्ज अन्य बड़े देशों की तुलना में जीडीपी के प्रतिशत में कम है लेकिन वह फिर भी अधिक है और सरकार द्वारा खर्च बढ़ाने की राह में बाधा बना हुआ है। यही कारण है कि वित्त मंत्री द्वारा घोषित 1.7 लाख करोड़ रुपये का पैकेज न केवल दुनिया में सबसे छोटा है बल्कि एक विश्लेषक के मुताबिक इसमें से केवल 0.6 लाख करोड़ रुपये की राशि ही अलग से आवंटित होगी।
मौजूदा दौर को समाप्त होने में कई सप्ताह और महीने लग जाएंगे। इसका असर भी दीर्घकालिक हो सकता है। शेष विश्व की तरह भारत की वृद्धि दर भी तेजी से घटने की बात कही जा रही है। रोजगार और अन्य सीमित सरकारी संसाधनों के मामले में भी इसकी कीमत चुकानी होगी। यह समस्या भारत की खड़ी की हुई नहीं है लेकिन यदि हमारी सरकारी व्यवस्था ज्यादा बेहतर होती तो शायद हम इससे बेहतर तरीके से निपट पाते और नागरिकों पर इसका कम असर होता।
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