दूरसंचार में भारत का 'आत्मघाती गोल' | श्याम पोनप्पा / March 09, 2020 | | | | |
साफ नजर आ रहा है कि सरकार दूरसंचार क्षेत्र में व्याप्त समस्याओं को दूर नहीं कर सकती है। इसकी क्या वजह है? दरअसल अधिकारी दूरसंचार कंपनियों से वसूले जाने वाले समायोजित सकल राजस्व (एजीआर) पर आए उच्चतम न्यायालय के फैसले के बरक्स दूरसंचार जगत को स्वस्थ रखने और उपभोक्ता हितों को सुरक्षित रखने के बीच संतुलन साधने की कोशिश में लगे हुए हैं। केंद्र की पूर्ववर्ती संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार और मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार दोनों ही 15 साल तक प्रतिकूल फैसलों के बावजूद अतर्कसंगत दावों पर मुकदमे लड़ती रहीं जिसकी वजह से यह असंगत मतभेद पैदा हुआ है। यह कल्पित 'असंभव त्रिमूर्ति' पूरी तरह अपनी बनाई कृति है।
अगर अधिकारियों ने हवा में चक्की चलाने के बजाय भारत की वास्तविक जरूरतों को पूरा करने में अपनी भूमिका पर ध्यान दिया रहता तो हम कहीं बेहतर स्थिति में होते। अब हम दूरसंचार जगत की विफलता के करीब हैं। इसका कई क्षेत्रों पर विस्फोटक असर होगा, गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) की समस्या गंभीर होगी, बैंकरों का मनोबल गिरेगा, बेरोजगारी बढ़ेगी और निवेश घटेगा। इन आर्थिक समस्याओं के साथ कई सामाजिक समस्याएं भी पैदा होंगी।
सवाल है कि दूरसंचार संकट को हल करना क्या जनहित के लिए केंद्रीय मुद्दा है? हां, क्योंकि लोगों को बढिय़ा आधारभूत ढांचे की जरूरत होती है ताकि समय, धन और सामग्री का कारगर एवं सक्षम ढंग से इस्तेमाल हो सके और उनके पर्यावरण पर बमुश्किल असर पड़े। पानी, स्वच्छता, ऊर्जा, परिवहन एवं संचार सेवाएं देने वाली व्यवस्थाएं इन सभी गतिविधियों का समर्थन करती हैं। भारत में वर्ष 2004-11 के दौरान संचार जगत द्वारा हमारे जटिल सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य एवं जनांकिकी में लाए गए बदलावों की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है। इसके भीतर अब भी काफी अधिक क्षमता है जो हमारी कल्पना एवं केंद्राभिमुख कदम उठाने की क्षमता से ही सीमित हो सकता है। फिर भी संचार उद्योग को लेकर सरकार का निष्क्रियतावादी रवैया निजी ऑपरेटरों के लिए रेल परिचालन को व्यवहार्य बनाने संबंधी रचनात्मक रवैये के ठीक उलट है।
भारत के हितों की पूर्ति तभी हो सकती है जब लोगों को उत्पादकता बढ़ाने और खुशहाली के लिए जरूरी सेवाएं वाजिब दाम पर और आसानी से मिलें। इसी वजह से सरकार एवं लोगों दोनों के लिए बढिय़ा ढांचागत सुविधाओं की अहमियत समझना और इन्हें कार्यरूप देना इतना अहम है।
क्या कर सकती है सरकार?
सरकार के सभी अंगों (विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका), प्रेस एवं मीडिया और समाज के लिए यह स्वीकार करना एक पूर्व-शर्त है कि बढिय़ा आधारभूत ढांचे की परिकल्पना और उसे अंजाम देने के लिए हम सभी को मिलजुलकर प्रयास करने होंगे। यह किसी और का काम नहीं है और दूरसंचार विभाग का तो निश्चित रूप से नहीं है। दूरसंचार विभाग इस काम को अकेले नहीं कर सकता है और न ही इसमें बढ़त ले सकता है क्योंकि इसके लिए जरूरी कदम उसके दायरे के बाहर के भी हैं।
जल्द उठाएं कदम
तत्काल ये काम करने जरूरी हैं:
पहला, एजीआर की मांग को निरस्त कर दें, इसके लिए जिस भी उपलब्ध कानूनी तरीके का इस्तेमाल करना पड़े। मसलन, दूरसंचार ऑपरेटर एजीआर फैसले के खिलाफ अपील दायर कर सकते हैं और सरकार अदालत के बाहर समझौता कर उच्चतम न्यायालय के निर्णय से खुद को दूर कर सकती है। इसके साथ ही सरकार एजीआर मसले पर 2015 में आए दूरसंचार विवाद निपटान एवं अपील अधिकरण (टीडीसैट) को स्वीकार कर ले।
दूसरा, एक अध्यादेश लाकर सभी विस्तारित दावों को निरस्त कर दिया जाए। इसके बाद तमाम राजनीतिक दलों के बीच सहमति बनाकर राष्ट्रहित में एक कानून लाया जाए।
तीसरा, अधिकतम लोगों को कारगर एवं सक्षम ढंग से संचार सेवाएं देने के लिए कदम उठाए जाएं। वाजिब दाम पर बेहतर सेवा देने और सरकार को अधिक राजस्व दिलाने के लिए अधिक व्यापक नेटवर्क बनाने एवं रखरखाव में निम्नलिखित कदम मददगार होंगे:
1. व्यवहार्य शर्तों पर स्पेक्ट्रम उपयोग किया जा सके
(ए) वायरलेस नियमन
वायरलेस विकल्पों की तुलना में फाइबर या केबल के लिए भारत के अधिकतम लोगों तक पहुंच पाना व्यवहार्य नहीं है। सही मायनों में, सबसे नजदीकी फाइबर टर्मिनेशन प्वाइंट से आगे तक कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए वायरलेस मध्यवर्ती कनेक्शन और अधिकांश स्थानीय संपर्कों के लिए वाई-फाई का इस्तेमाल होता है। इसके लिए तकनीक उपलब्ध है और समुचित कानून के साथ प्रशासकीय फैसले कर 60 गीगाहट्र्ज, 70-80 गीगाहट्र्ज और 700 मेगाहट्र्ज से नीचे के बैंड में स्पेक्ट्रम को वायरलेस कनेक्टिविटी देने के लिए तत्काल अधिकृत ऑपरेटरों के सुपुर्द किया जा सकता है। पहले दो बैंड उच्च-क्षमता वाले छोटी एवं मझोली दूरी के लिए उपयोगी है जबकि तीसरा बैंड 10 किलोमीटर तक की दूरी के लिए उपयोगी है। दूरसंचार विभाग अक्टूबर 2018 में वाई-फाई के लिए 5 गीगाहट्र्ज बैंड पर जारी अपनी ही नजीर का अनुसरण कर सकता है। उस समय विभाग ने कहा था कि अमेरिकी संघीय संचार आयोग के नियमों को मॉडल के तौर पर इस्तेमाल किया जाए। इसे बस अपनी परिस्थितियों के हिसाब से ढालने की जरूरत है। हमारे यहां ऑपरेटरों द्वारा किए गए भुगतान के चलते अधिकृत ऑपरेटर मध्यवर्ती नेटवर्क के इस्तेमाल पर सीमाएं लगी हुई हैं। सार्वजनिक हित में बनी नीतियां नीलामी के बगैर भी स्पेक्ट्रम के उपयोग की अनुमति देती हैं और यह उच्चतम न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन भी नहीं करता है।
(बी) नीतियां: स्पेक्ट्रम के लिए राजस्व साझेदारी
दूसरी जरूरत यह है कि सभी लाइसेंसशुदा स्पेक्ट्रम का भुगतान नीलामी भुगतान के बदले उपयोग आधारित राजस्व हिस्सेदारी के तौर पर किया जाए। इस प्रभाव वाला कानून सुनिश्चित कर सकता है कि संचार के लिए स्पेक्ट्रम का भुगतान असली उपयोग पर राजस्व हिस्सेदारी या सभी वाई-फाई बैंडों के लिए मुक्त पहुंच के जरिये किया जाए। हस्तक्षेप से बचने के लिए भौगोलिक स्थिति संबंधी आंकड़ों के जरिये न्यूनतम प्रशासकीय लागत के आधार पर प्रतिबंधित मध्यवर्ती उपयोग शुल्क लगाया जा सकता है। अतीत में देखा गया है कि भारत में अग्रिम शुल्क से अधिक आय राजस्व साझेदारी से हुई है।
राजस्व साझेदारी के दो अन्य कारण भी हैं। पहला, भारतीय बौद्धिक संपदा अधिकार वाले उपकरणों का बड़ी संख्या में विनिर्माण करने की जरूरत है ताकि हमें आयात पर ही निर्भर न रहना पड़े। बेहतर भुगतान संतुलन हासिल करने और रणनीतिक संदर्भों में यह काफी अहम है। दूसरा, घरेलू एवं वैश्विक बाजारों के लिए संचार उपकरणों के डिजाइन एवं विकास समाधानों में स्थानीय प्रतिभाओं को जोड़ा जाए। हालांकि घोषित नीतिगत दावों के उलट उनके लिए स्पेक्ट्रम पहुंच वस्तुत: असंभव होने से ऐसा नहीं होता है।
2. ढांचागत साझेदारी के लिए नीति एवं संगठन
सरकार को साझा ढांचागत आधार तैयार करने के लिए अनुकूल नीतियों एवं नियमों को लाने की जरूरत है। इसका एक तरीका नेटवर्क विकास एवं प्रबंधन के लिए कंसोर्टियम बनाने का है जिसमें अधिकृत ऑपरेटरों के उपयोग पर शुल्क हो। शुल्क लेकर पहुंच देने वाले कम-से-कम दो कंसोर्टियमों में सरकार की अल्पांश भागीदारी होगी और उनके बीच प्रतिस्पद्र्धा से गुणवत्ता एवं कीमत सुनिश्चित हो सकती है। अधिकृत सेवा प्रदाता उपयोग के हिसाब से भुगतान कर सकते हैं। 5जी स्पेक्ट्रम के लिए कंसोर्टियम नजरिया अपनाने की मीडिया रिपोर्ट सोच में गंभीर खामी दर्शाती है।
3. नेटवर्क विकास एवं सेवा के लिए कोई फंड बाकी नहीं रह जाने से ऐसे भुगतानों से यही भ्रम होता है कि गलत सूचनाओं के आधार पर मौलिक प्रयास किए जा रहे हैं। इससे मुफ्त सेवाओं की सोच को बढ़ावा मिलता है जबकि ऊंचा सरकारी शुल्क सही ठहराया जाता है।
लोगों की जरूरतें पूरा नहीं कर पा रही पवन-चक्कियों की दिशा बदलने के बजाय हमारे सामूहिक हितों के लिए इस बात की जरूरत है कि पूरी क्षमता एवं निष्ठा से प्रयास किए जाएं।
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