सामाजिक सरोकारों को मिला सम्मान | बीएस संवाददाता / मुंबई March 03, 2020 | | | | |
देश के ग्रामीण इलाकों में कैंसर प्रभावित बच्चों को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने वाली शृंखला सेंट ज्यूड इंडिया चाइल्डकेयर सेंटर्स के संस्थापक निहाल कविरत्ने अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए कहते हैं, 'जब मेरी पत्नी श्यामा और मैं 22 साल तक विदेश में रहने के बाद भारत लौटे तो हम बच्चों के लिए इलाज मुहैया कराने की संभावनाएं देख रहे थे।' गैर सरकारी संगठनों और अस्पतालों के कई चक्कर काटने और दोस्तों तथा परिजनों के साथ लंबी चर्चा के बाद कविरत्न दंपती को कैंसर पीडि़त मरीजों और उनके परिजनों की दुश्वारियों का पता चला। ग्रामीण इलाकों के बच्चों के लिए तो यह दोहरी मार थी। एक तो खतरनाक बीमारी और दूसरा इलाज और पोषण का अभाव। और फिर उनकी मदद के लिए आगे आया एक परोपकारी उद्यम, जिसे 2019 के बिज़नेस स्टैंडर्ड अवॉर्ड फॉर सोशल एंटरप्राइज के लिए चुना गया।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के चेयरमैन एस रामादुरई की अगुआई वाले पांच सदस्यीय निर्णायक मंडल ने सेंट ज्यूड इंडिया का चयन किया। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के संस्थापक एमआर माधवन को सोशल आंत्रपे्रन्योर और एलऐंडटी फाइनैंस होल्डिंग्स को सोशली अवेयर कॉरपोरेट का पुरस्कार मिला। सभी विजेताओं ने कई मजबूत प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़कर यह मुकाम हासिल किया। एलऐंडटी फाइनैंस होल्डिंग्स (एलटीएफएच) को ग्रामीण भारत में अपनी डिजिटल साक्षरता मुहिम डिजिटल साक्षी के लिए यह खिताब मिला।
माधवन को उस बात के लिए सम्मानित किया गया जो हर लोकतंत्र के लिए जरूरी है। उन्होंने नेताओं और मतदाताओं को जागरूक बनाने में मदद की। निर्णायक मंडल ने विभिन्न श्रेणियों में विजेता का चयन करने से पहले कई मानकों पर व्यापक चर्चा की। रामदुरई ने कहा, 'विजेताओं का चयन आसान नहीं था।' निर्णायक मंडल में इस बात पर व्यापक सहमति थी कि काम का असर दिखना चाहिए और इसी बात से विजेताओं के चयन में मदद मिली। रामदुरई की अगुआई वाले निर्णायक मंडल में सोशल सेक्टर की जानी मानी हस्तियां शामिल थीं। इनमें बैंस कैंपिटल प्राइवेट इक्विटी के चेयरमैन अमित चंद्रा, गिवइंडिया के निदेशक और मुख्य कार्याधिकारी अतुल सतीजा, प्रथम की सह संस्थापक फरीदा लांबे और इंडियन स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी के संस्थापक-निदेशक लुई मिरांडा शामिल थे। बिज़नेस स्टैंडर्ड अवॉड्र्स फॉर सोशल एक्सीलेंस कॉरपोरेट, एंटरप्राइजेज और व्यक्तिगत उद्यमियों द्वारा समाज में सार्थक बदलाव के लिए किए जाने वाले अहम प्रयासों को दिया जाता है। ये पुरस्कार हमेशा सोशल सेक्टर के कुछ सर्वश्रेष्ठ नामों को अपनी ओर आकर्षित करता है और इस साल खासकर सोशली अवैयर कॉरपोरेट श्रेणी में कड़ी प्रतिस्पद्र्धा देखने को मिली। लेकिन निर्णायक मंडल ने एलटीएफएच और डिजिटल साक्षी पर मुहर लगाई। एलटीएफएच के सीईओ दीनानाथ दुभाषी ने कहा, 'कम आय वाले समुदायों को सशक्त बनाने के सिलसिले में डिजिटल फाइनैंस के पूरे सफर में डिजिटल वित्तीय समावेशन अभी भी ग्रामीण समुदायों के लिए कठिन बना हुआ है, खासतौर पर महिलाओं के लिए।' डिजिटल साखी कार्यक्रम (वित्त वर्ष 2017-1708) ग्रामीण महिलाओं को डिजिटल वित्तीय साक्षरता के माध्यम से सशक्त बनाना चाहता है और उनमें नेतृत्त्व के लिए जरूरी गुण शामिल करना चाहता है। इसका लक्ष्य है अच्छी तादाद में ऐसी महिलाओं की फौज खड़ी करना जो उद्यमी हों और अपना प्रभाव छोडऩे में सक्षम हों।
दुभाषी ने कहा कि कार्यक्रम के शुरुआती वर्षों का एक बड़ा हासिल यह था कि महिलाओं को वित्तीय मामलों में अधिक प्रशिक्षण की आवश्यकता है। उन्हें नेतृत्त्व और विश्वास संपन्न बनाने के साथ-साथ इंटरनेट और मुद्रा संबंधी ज्ञान देना भी उतना ही आवश्यक है। सामाजिक क्षेत्र के तमाम अन्य पहलुओं की तरह आवश्यकता यह है कि अधिकाधिक प्रभाव छोडऩे के लिए सामुदायिक रुख अपनाया जाए। इस पहल ने न केवल उद्यमियों में भरोसा पैदा किया बल्कि इसने समुदाय के लिए रोल मॉडल भी तैयार किए। महाराष्ट्र से शुरू हुआ यह कार्यक्रम अब मध्य प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में शुरू हो चुका है।
रामादुरई ने कहा कि जूरी ने एलटीएफएच के काम के आकार और प्रभाव, लैंगिक विविधता, ग्रामीण प्रभाव, ग्रामीण उपस्थिति और भविष्य में इसका आकार बढ़ाने की संभावना आदि को खासतौर पर रेखांकित किया। जूरी के निहाल और श्यामा कविरत्ने द्वारा संचालित सेंट ज्यूड इंडिया चाइल्ड केयर सेंटर पर ध्यान देने के लिए भी प्रभाव बहुत बड़ी वजह रहा। इन सेंटर को सोशल एंटरप्राइज ऑफ द इयर का पुरस्कार मिला। सेंट ज्यूड सेंटर घर से दूर एक घर की तरह है। यह उन परिवारों के लिए है जो कैंसर के इलाज के लिए अपने बच्चों के साथ बड़े शहर में जाते हैं। सन 2006 में एक सेंटर और 8 परिवारों के साथ शुरुआत करने के बाद आज यह 39 सेंटर चलाता है और देश के 9 शहरों में 500 परिवारों की सेवा करता है।
निहाल कविरत्ने कहते हैं, 'बीते 14 वर्षों में इन केंद्रों में 20,000 से अधिक लोग आए और उन्होंने (परिवारों और बच्चों) 8 लाख रातें चैन के साथ गुजारीं।' इस पहल के बारे में वह कहते हैं, '27 जनवरी 2006 को मुझे टाटा मेमोरियल अस्पताल में बाल कैंसर दिवस कार्यक्रम में मंच पर बुलाया गया था। मेरे हाथ में माइक था और सामने नन्हें चेहरों का सागर लहरा रहा था, सारे गंजे थे, उन्होंने मास्क पहने थे, उनके हाथों में आईवी पोर्ट लगी थी, वे प्रसन्न थे लेकिन उन्हें किसी चीज की उम्मीद थी। मैंने अचानक ही उनसे वादा किया कि किसी गांव या छोटे कस्बे से अपने मां-बाप के साथ इलाज के लिए मुंबई जैसे बड़े शहर में आने वाले किसी बच्चे को सड़क पर दिन नहीं काटने होंगे।' वह कहते हैं कि उनके मित्र और परिजन पहले तो भौंचक्के रह गए लेकिन फिर वे उनकी मदद में जुट गए। निर्णायक मंडल ने कहा कि इस तरह के संस्थान न केवल बीमारी से लडऩे बल्कि इसके लेकर बने डर एवं चेतावनी भरे माहौल को भी दूर करने में मददगार होंगे। कविरत्ने के लिए सफर तो अभी बस शुरू ही हुआ है। उनका मानना है कि एक ऐसा समय आएगा जब किसी गांव या छोटे कस्बे के किसी भी बच्चे को कैंसर के उपचार के लिए बड़े शहर में आने पर सड़कों पर रहने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा।
काम को लेकर ऐसी ही प्रतिबद्धता एवं समर्पण एम आर माधवन में भी नजर आता है जिन्हें पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के लिए वर्ष का सामाजिक उद्यमी चुना गया है। माधवन देश में लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए जरूरी कदम उठाने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हैं। इसके लिए वह लोकतांत्रिक संस्थानों को मदद देने के साथ ही राजनीतिक समूहों के बीच जागरूकता पैदा करने की कोशिश भी करते हैं। माधवन ने अपनी इस संस्था की शुरुआत से जुड़ा प्रसंग सुनाते हुए कहा, 'आईसीआईसीआई सिक्योरिटिज में काम करते समय मैं प्रथम के साथ वॉलंटियर से जुड़ा था और उसी समय व्यापक बदलाव लाने में अंशदान के लेकर रुचि जगी।' इसी प्रेरणा ने एक वित्त पेशेवर को लोकतांत्रिक मूल्यों की आवाज बुलंद करने वाला बना दिया।
लोकतंत्र केवल चुनाव प्रक्रिया या एक संस्था से ही नहीं जुड़ा है। यह अदृश्य धागों का एक गुच्छा है जिन्हें सावधानी से देखभाल की जरूरत होती है और जागरूक एवं मुखर नागरिक इसकी जान होते हैं। माधवन की संस्था पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने इस प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाई है। सांसदों को मदद देने के अलावा यह संस्था युवाओं को कानून निर्माण एवं लोक नीति के सबक सीखने के लिए फेलोशिप भी देती है। माधवन के लिए यह सफर चुनौतियों से भरा रहा है। जिन दो विदेशी फाउंडेशनों से इसका करार था उन्हें सरकार से मंजूरी नहीं मिल पाई तो संस्था के पास फंड की भारी किल्लत हो गई थी। माधवन ने कहा, 'हालांकि उसी समय कई भारतीय परोपकारी हमारी मदद के लिए आगे आ गए। फिर नौ वर्षों से हमारा सिलसिला जारी है।'
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