आंकड़ों की हकीकत और सचिवों की जवाबदेही | ए के भट्टाचार्य / March 02, 2020 | | | | |
सन 2014 में जब नरेंद्र मोदी केंद्र में सत्ता में आए तब माना जा रहा था कि विभिन्न मंत्रालयों में शीर्ष अफसरशाहों के काम करने के तरीके और मंत्रालयों के कामकाज में परिवर्तन आएगा। मोदी की कार्यशैली पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से अलग थी। मोदी को सिंह की तुलना में अधिकारियों से अधिक अपेक्षा करने वाला भी माना जाता था।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि बीते कुछ वर्षों में यानी जब से मोदी ने कमान संभाली है, तब से प्रमुख केंद्रीय मंत्रालयों के सचिवों के लिए क्या कुछ बदला है? एक बदलाव जिसे आसानी से देखा जा सकता है उसका संबंध प्रधानमंत्री की उस महत्त्वपूर्ण भूमिका और प्रभाव से है जो वह विभिन्न महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों में सचिवों की नियुक्ति में रखते हैं। यही कारण है कि कई प्रमुख मंत्रालयों का नेतृत्व ऐसे सचिवों के हाथ में है जिन्हें या तो मोदी ने स्वयं चुना है जिनके साथ उनकी बहुत अच्छी समझ है। कुछ मामलों में इन अधिकारियों से उनका पुराना कामकाजी रिश्ता रहा है।
यह प्रमुख केंद्रीय मंत्रालयों में सचिवों की नियुक्ति के मनमोहन सिंह के तरीके से एकदम अलग था। इस संबंध में अंतिम मंजूरी भले ही सिंह की ओर से आती थी लेकिन ऐसी नियुक्तियों में मंत्रालयों के प्रभारी मंत्रियों की बहुत अहम भूमिका होती थी। जाहिर है वित्त मंत्री के रूप में प्रणव मुखर्जी इस बात पर अंतिम निर्णय लेते थे कि वित्त सचिव कौन होगा। सिंह अपने मंत्रियों की बात मानते थे।
सचिवों की नियुक्ति के प्रबंधन के इस विरोधाभासी तरीके के स्वाभाविक परिणाम की अनदेखी करना संभव नहीं है। सिंह को जहां अक्सर अपने जरूरी कदमों का शीघ्र क्रियान्वयन सुनिश्चित करने में कठिनाई होती थी (क्योंकि संबंधित सचिव प्रधानमंत्री के बजाय अपने प्रभारी मंत्रियों से अधिक जुड़ाव रखते थे) जबकि मोदी का उन पर पूरा नियंत्रण है और माना जाता है कि वह सचिवों से सीधे संपर्क करके काम कराते हैं। इस दौरान कई बार तो प्रभारी मंत्रियों को भी उस संवाद में शामिल नहीं किया जाता।
संक्षेप में कहें तो मोदी के अधीन प्रधानमंत्री कार्यालय अधिक ताकतवर हो गया है और मंत्रियों के पास यह मानने की वजह है कि उनके सचिवों की वफादारी केवल उनके प्रति नहीं बल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय और खासतौर पर प्रधानमंत्री के प्रति भी है। यह धारणा उस समय और मजबूत हो गई जब मोदी ने सचिवों के छोटे और बड़े समूहों से उनके कामकाज के बारे में चर्चा की। इस बैठक में वे सारे मंत्री मौजूद भी नहीं थे जिनके साथ ये सारे सचिव काम करते थे।
क्या इस बदलते समीकरण ने मोदी के मंत्रियों के कामकाज और उनके प्रभाव पर असर डाला है? इस बारे में साफ कुछ नहीं कहा जा सकता और न ही स्पष्ट तौर पर कोई यह दावा कर सकता है कि अपने मंत्रालयों में सचिवों की नियुक्ति में मंत्रियों की घटती भूमिका के कारण सचिवों पर मंत्रियों के प्रभाव में कमी आई है। परंतु एक सवाल अक्सर उठा है कि कैसे सचिवों के जवाबदेही के सिद्धांत पर असर पड़ा है।
इस संदर्भ में वित्त मंत्रालय का हालिया घटनाक्रम भी ध्यान देने लायक है। वर्ष 2020-21 का आम बजट गत 1 फरवरी को पेश किया गया। राजस्व अनुमान तैयार करने की प्रक्रिया में शामिल वित्त मंत्रालय के सचिव अक्सर प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ सलाह-मशविरा करते रहते हैं। उनके पास कम से कम 15 जनवरी तक के कर संग्रह रुझानों की पहुंच होनी चाहिए। महालेखा नियंत्रक द्वारा जारी आंकड़े दर्शाते हैं कि दिसंबर के अंत में केंद्र का कुल कर संग्रह 9.05 लाख करोड़ रुपये अनुमानित था जबकि जनवरी के अंत में यह 9.98 लाख करोड़ रुपये अनुमानित था। इसके बावजूद आम बजट में 2019-20 के पूरे वर्ष के लिए 15.04 लाख करोड़ रुपये का शुद्ध कर राजस्व संग्रह अनुमान प्रस्तुत किया।
यदि कर संग्रह अनुमान हकीकत से दूर रहता है तो कई तरह की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। क्या वित्त मंत्रालय के सचिवों को हकीकत के करीब राजस्व आंकड़े पेश करते समय अधिक चौकन्ना और सावधान नहीं रहना चाहिए? यदि वर्ष 2019-20 का वास्तविक कर संग्रह संशोधित अनुमान से भी कमतर निकलता है तो यह लगातार दूसरा वर्ष होगा जब ऐसा बड़ा विचलन देखने को मिलेगा। आखिर सचिवों की जवाबदेही का क्या? याद रहे कि गत वर्ष ऐसे ही अतिशय अनुमान लगाने में शामिल सचिवों में से एक इस वर्ष राजस्व अनुमान हासिल करने की व्यवहार्यता पर उठे सवालों की आलोचना कर रहे हैं।
इसी प्रकार विनिवेश और सब्सिडी के आंकड़ों को लेकर भी संदेह उत्पन्न हो गया है। वर्ष 2019-20 में विनिवेश प्रक्रिया से 1.05 लाख करोड़ रुपये हासिल होने का अनुमान था। संशोधित अनुमान में इन्हें घटाकर 65,000 करोड़ रुपये कर दिया गया। फरवरी 2020 के अंत तक सरकार विनिवेश से केवल 33,000 करोड़ रुपये जुटा पाई। वर्ष 2019-20 की प्रमुख सब्सिडी की बात करें तो बजट में उल्लिखित 3 लाख करोड़ रुपये के अनुमान को संशोधित करके 2.27 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया।
परंतु महालेखा नियंत्रक के प्रारंभिक आंकड़े दर्शाते हैं कि सरकार जनवरी के अंत तक ही 2.63 लाख करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है। ऐसे में कर संग्रह में और कमी के अलावा क्या 2019-20 के विनिवेश के आंकड़ों में ज्यादा बड़ी कमी देखने को मिल सकती है और क्या सब्सिडी व्यय संशोधित अनुमान से परे जा सकती है? और क्या प्रधानमंत्री कार्यालय जो बजट की तैयारी में वित्त मंत्रालय के अफसरशाहों के साथ लगा हुआ था, उसे पूरी प्रक्रिया की समीक्षा करनी चाहिए ताकि ये आंकड़े हकीकत के करीब दिख सकें? बजट में हकीकत के करीब आंकड़े पेश करना अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
|