मुद्रास्फीति का लक्ष्य निर्धारण बने प्रभावी | अजय शाह / February 26, 2020 | | | | |
मुद्रास्फीति के लक्ष्य तय करने के लिए मौद्रिक नीति से जुड़ी कुछ समस्याओं का हल जल्द निकालने पर ध्यान देना होगा। मौजूदा आर्थिक स्थिति में इसकी अहमियत बता रहे हैं अजय शाह
भारत में मुद्रास्फीति के लक्ष्य-निर्धारण की कहानी नवंबर 2005 से शुरू हुई जब उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित मुद्रास्फीति बढ़कर 5.3 फीसदी हो गई थी। आंकड़े बताते हैं कि मुद्रास्फीति नियोजन का अगला दशक लंंबे मुद्रास्फीति संकट का था। इसने मौद्रिक नीति रणनीति के साथ ही संसद एवं वित्त मंत्रालय और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के बीच प्रिंसिपल और एजेंट के संबंधों को लेकर भी नए सवाल खड़े हुए। उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था का दुनिया के साथ काफी हद तक एकीकरण हो चुका था और वित्तीय सघनता भी बढ़ चुकी थी। इसके चलते एक बंद अर्थव्यवस्था में मौद्रिक नीति की अंतर्दृष्टि काम करना बंद कर चुकी थी। उस पुरानी अंतर्दृष्टि ने ही हमें इस दीर्घकालीन मुद्रास्फीति संकट में धकेला था। हमें मुक्त अर्थव्यवस्था के वृहद-अर्थशास्त्र में नए ज्ञान की जरूरत थी।
लंबे समय तक चले मुद्रास्फीति संकट ने एक एजेंट के तौर पर आरबीआई के चरित्र को लेकर भी सवाल खड़े किए। हरेक सरकारी निकाय का एक स्पष्ट उद्देश्य होना चाहिए। बाध्यकारी शक्ति मिलने के एवज में उसे एक हद तक नतीजा भी देना होगा। आरबीआई को नोट छापने का अधिकार संसद में पारित कानून से मिला था। आरबीआई को वजूद में लाने वाले 1934 के अधिनियम में इसे एक अस्थायी उपाय के तौर पर डिजाइन बताया गया था। एक बेहतर एवं अधिक स्थायी व्यवस्था की तलाश करने का वक्त था। जब संसद आरबीआई को नोट छापने की शक्ति देती है तो जवाबदेही के तौर पर आरबीआई संसद को क्या देता है?
मुद्रास्फीति संकट के काफी नुकसान होते हैं। भारत में मुद्रास्फीति की सबसे ज्यादा मार गरीबों पर पड़ती है। वहीं मुद्रास्फीति नेताओं की चिंता का प्रमुख मुद्दा होता है। कोई भी नेता यह नहीं चाहता है कि चुनाव में जाते समय मुद्रास्फीति के मोर्चे पर उसका प्रदर्शन खराब हो। मुद्रास्फीति को कम एवं टिकाऊ स्तर पर रखना मौद्रिक नीति का काम है। जब आरबीआई नाकाम होता है तो मुद्रास्फीति को कम करने के लिए कोई भी तरीका अपनाने के लिए जबरदस्त राजनीतिक दबाव होता है। जब मैं 2001 में वित्त मंत्रालय से जुड़ा था तो विमल जालान ने मुझे मुद्रास्फीति के बारे में बड़ी अच्छी सलाह दी थी। उन्होंने कहा था कि मुद्रास्फीति के काबू में रहने पर आप आर्थिक नीति के बारे में सोच सकते हैं लेकिन इसके आठ फीसदी पहुंच जाने पर आपको सबकुछ छोड़कर केवल मुद्रास्फीति नियंत्रण के लिए काम करना पड़ता है।
इस तरह मुद्रास्फीति संकट से तमाम मुश्किलें पैदा होती हैं जिनमें निर्यात या आयात पर पाबंदी लगाना और हटाना या सीमा-शुल्कों में बदलाव करना। ये हस्तक्षेप बाजार अर्थव्यवस्था के कामकाज को बाधित करते हैं। जब मुद्रास्फीति को निचले एवं टिकाऊ स्तर पर रखने में आरबीआई नाकाम रहता है तो हम इस तरह के बाध्यकारी कदम उठाने लगते हैं जो बाजार अर्थव्यवस्था की बुनियाद को ही चोट पहुंचाता है। बेहतर तो यही है कि इस तरह का मुद्रास्फीति संकट पैदा ही न हो। इनमें से कोई भी सवाल अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर नया नहीं है। सभी देशों को इन्हीं मुश्किलों से दो-चार होना पड़ता है। एक केंद्रीय बैंक को किस तरह जवाबदेह बनाना है? निम्न एवं टिकाऊ मुद्रास्फीति का लक्ष्य कैसे हासिल किया जाए? दुनिया भर में सबसे ज्यादा प्रभावी समाधान एक औपचारिक व्यवस्था बनाने का है जिसमें केंद्रीय बैंक को मुद्रास्फीति लक्ष्य हासिल करने के लिए जवाबदेह बनाया जाता है।
इसी स्थिति ने गत 20 फरवरी 2015 को 'मौद्रिक नीति प्रारूप समझौताÓ को जन्म दिया जिसमें मुद्रास्फीति के लक्ष्य तय करने का दायित्व वित्त मंत्रालय एवं आरबीआई के बीच करार में निहित किया गया। इसके एक साल बाद आरबीआई अधिनियम को संशोधित कर मुद्रास्फीति का लक्ष्य तय करने को आरबीआई का उद्देश्य बना दिया गया। यह उचित ही है कि इस संशोधन के साथ ही 1934 अधिनियम में आरबीआई को अंशकालिक निकाय बताने वाले बिंदु को हटा दिया गया। पहली बार आरबीआई के उद्देश्य में स्पष्टता आई और अब यह महज अस्थायी व्यवस्था नहीं रह गई थी।
नए प्रारूप ने कितने अच्छे ढंग से काम किया है? किसी की भी उम्मीदों से बेहतर रहा है। व्यावहारिक लोग सोचते हैं कि मुद्रास्फीति का संबंध केवल फसलों एवं बारिश से है। यह सोचना एक बेहद बौद्धिक अवधारणा है कि वैध रकम पैदा करने के तरीके का लंबे समय में मुद्रास्फीति पर निर्णायक असर होता है। असल में, उच्च बौद्धिक अवधारणा के मुताबिक फसलों एवं बारिश में हमेशा ही उतार-चढ़ाव रहता है वहीं मौद्रिक नीति प्रारूप समझौता संपन्न हो जाने के बाद मुद्रास्फीति नियंत्रण में आ गई।
आंकड़ों में एक खामी है। दिसंबर 2019 में मौसमी रूप से समायोजित मुद्रास्फीति को 21.3 फीसदी आंका गया। इसका 12 महीनों तक सालाना मुद्रास्फीति पर असर होगा। लेकिन यह कोई बहुत गंभीर मुद्रास्फीतिकारी समस्या नहीं है: जनवरी 2020 में मौसमी समायोजित मुद्रास्फीति फिर से 3.04 फीसदी पर आ गई। फसलों एवं बारिश वितरण से उतार-चढ़ाव आता है लेकिन यह व्यवस्थागत मुद्रास्फीति नहीं है। मुख्य में यह एक ऐतिहासिक सुधार था, भारत में वैध रकम के लिए एक संस्थागत व्यवस्था की दिशा में पहला कदम था। अब ऐसे तीन कमजोर बिंदु हैं जिन पर गौर करने की जरूरत है। पहली समस्या मौद्रिक नीति समिति के संयोजन को लेकर है क्योंकि इसमें अकेले आरबीआई गवर्नर के ही पास नियंत्रण होता है। दूसरी समस्या मौद्रिक नीति के उद्देश्य एवं ऋण प्रबंधन उद्देश्य के बीच तनाव की है। सार्वजनिक ऋण प्रबंधन को आरबीआई से अलग होने की जरूरत है। तीसरी समस्या मौद्रिक नीति के कमजोर संचरण की है: बॉन्ड बाजार, बैंकिंग एवं पूंजी पर नियंत्रण संबंधी सुधारों की जरूरत है ताकि मौद्रिक नीति समिति के फैसलों को अधिक धारदार बनाया जा सके।
कानून के उस प्रावधान को लेकर भी चर्चा है जो पांच वर्षों के बाद यानी फरवरी 2021 में मुद्रास्फीति निर्धारण प्रारूप की समीक्षा करने की जरूरत बताता है। कानून पर नजर डालने से पता चलता है कि पांच साल में मुद्रास्फीति निर्धारण प्रारूप की समीक्षा करने का कोई प्रावधान नहीं है। उल्लेख केवल लक्ष्य की समीक्षा का है ताकि यह परखा जा सके कि वार्षिक आधार पर मुद्रास्फीति लक्ष्य को चार फीसदी से बदलने की जरूरत है या नहीं। इन तीनों समस्याओं का समाधान तलाश लिए जाने के बाद ही 2 फीसदी मुद्रास्फीति का लक्ष्य रखना वाजिब होगा।
अर्थव्यवस्था में छाई सुस्ती से निपटने के लिए नरम मौद्रिक नीति और शिथिल राजकोषीय नीति की मांगें उठी हैं। हल्की संस्थागत स्मृति से काफी मदद मिलेगी। हमें मौजूदा आर्थिक नीति की समस्याओं में इजाफा करने वाली मुद्रास्फीति संकट या राजकोषीय संकट की कोई जरूरत नहीं है। मौद्रिक नीति केवल यही काम कर सकती है कि स्थायित्व एवं पूर्वानुमेयता का माहौल बनाया जाए। इससे परिवारों एवं कंपनियों के लिए भविष्य में दूर तक देख पाना और उसके हिसाब से विश्वस्त योजना बना पाना संभव होता है। वैध रकम के संस्थागत प्रावधानों को कमजोर करने से निजी निवेश को प्रोत्साहन नहीं मिलेगा।
(लेखक नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस ऐंड पॉलिसी, नई दिल्ली में प्रोफेसर हैं।)
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