रक्षा क्षेत्र के लक्ष्य और हमारी तैयारी | प्रेमवीर दास / February 25, 2020 | | | | |
यदि भारत को रक्षा क्षेत्र के निर्यात में इजाफा करना है तो सबसे पहले उसे यह समझना होगा कि निर्यात और उत्पादन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डाल रहे हैं प्रेमवीर दास
हाल ही में लखनऊ में आयोजित डिफेंस एक्सपो में प्रधानमंत्री ने भारतीय विनिर्माताओं से कहा कि वे अगले पांच वर्ष में रक्षा निर्यात को दोगुना बढ़ाकर 5 अरब डॉलर (37,000 करोड़ रुपये) तक करें। इस दौरान ऐसी रिपोर्ट भी हैं जो संकेत देती हैं कि निजी क्षेत्र की एक बड़ी कंपनी जो बड़े सैन्य प्लेटफॉर्म निर्माता बनने की इच्छा रखती थी, का नकदीकरण हो गया है और सरकार को उसकी तमाम बैंक गारंटियों को भुनाना पड़ा। ये दोनों बातें असंगत हैं और इन पर चर्चा की आवश्यकता है। वर्ष 2011 में नौसेना ने पांच ऑफशोर पैट्रोल वैसल्स (ओपीवी) यानी अपतटीय गश्ती पोत का ऑर्डर एक निजी कंपनी पीपावाव डिफेंस ऐंड ऑफशोर इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड को दिया। नौसैनिक प्लेटफॉर्म में सबसे साधारण माने जाने वाले ये पोत 2,500 करोड़ रुपये की लागत में बनने थे और इनकी आपूर्ति 2014-15 से शुरू होनी थी। वर्ष 2015 तक कंपनी का परिचालन बंद हो गया और रिलायंस नेवल ऐंड इंजीनियरिंग लिमिटेड ने उसका अधिग्रहण कर लिया। जुलाई 2017 में आर-नेवल ने दो ओपीवी लॉन्च किए, हालांकि ये निर्माण की स्थिति में नहीं थे। इस कंपनी ने उन्नत युद्घपोत और पनडुब्बियां बनाने का दम भरने वाली कंपनी ने अब दिवालिया होने का आवेदन दिया है। रक्षा मंत्रालय ने तमाम बैंक गारंटियों को नकदीकृत करते हुए युद्घपोतों के लिए 980 करोड़ रुपये का भुगतान किया था लेकिन पोतों का कहीं अता-पता नहीं है। ऑर्डर रद्द हो गया और एक भी पोत की आपूर्ति नहीं हुई। इसके बावजूद यदि किसी नेवल प्लेटफॉर्म के निर्यात की संभावना है तो ओपीवी उनमें शीर्ष पर हैं।
यह एक नौसैनिक अनुभव है। एक अन्य निजी स्वामित्व वाला शिपयार्ड भी उत्पादक बने रहने के लिए संघर्ष कर रहा है। केवल लार्सन ऐंड टुब्रो ने प्रगति की है। सबसे पहले उसने हमारी परमाणु पनडुब्बियों का ढांचा तैयार किया और उसके बाद कुछ पारंपरिक युद्धपोत बनाए। अन्य दो सेवाओं की तस्वीर भी अलग नहीं है। निजी क्षेत्र का कोई समूह सामान्य विमान या हेलीकॉप्टर बनाने की स्थिति में भी नहीं है। हकीकत में हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड (एचएएल) नामक सरकारी कंपनी ही दशकों से सामान्य लड़ाकू विमान बना रही है। वह भी वायुसेना की जरूरत के मुताबिक उनका निर्माण नहीं कर पा रही है। इनमें से किसी का निर्यात करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। हमारे द्वारा तैयार किए डिजाइन वाले लड़ाकू विमान तेजस और एएलएच हेलीकॉप्टर के मामले में निर्माण क्षमता हमारी जरूरतों से भी कम है। मौजूदा क्षमताओं के साथ उत्पादन में जबरदस्त तेजी लाना बहुत अधिक महत्त्वाकांक्षी है। कहने का अर्थ यह कि निर्यात के लिए कोई प्लेटफॉर्म नहीं है। जहां तक सेना की बात है तो इकलौता स्वदेशी प्लेटफॉर्म अर्जुन टैंक है लेकिन वह ऐसे अधिकांश देशों के लिए अनुकूल ही नहीं है जो अपने टैंक नहीं बनाते। कई अन्य सिस्टम मसलन बीएमपी और टी90 टैंक आदि लाइसेंस के अधीन बनते हैं और उनके निर्यात की इजाजत की संभावना बहुत कम है।
संक्षेप में कहें तो ऐसा कोई सैन्य प्लेटफॉर्म नहीं है जो संभावित निर्यातक हो सकता हो। एक संभावना यह है कि एम 77 हॉवित्जर गन को महिंद्रा एक अमेरिकी कंपनी के साथ मिलकर बनाए, बशर्ते कि अनुबंध इसकी इजाजत दे और पहले हमारी सेना की जरूरत पूरी हो। ऐसे में राइफल, गोली-बारूद, हथगोले, छोटी तोपों जैसी सामग्री बचती हैं। इनमें काफी इजाफा हो जाए तो भी हम तय लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएंगे। मैं मान रहा हूं कि अग्नि, पृथ्वी और आकाश जैसे मिसाइल सिस्टम निर्यात सूची में नहीं आ रहे हैं। प्रश्न यह है कि यहां से हम कहां जाएंगे।
रक्षा क्षेत्र की तमाम सरकारी कंपनियां वर्षों से काम कर रही हैं और उन्होंने कौशल और ज्ञान हासिल किया है। भले ही यह गुणात्मक और मात्रात्मक या दोनों ही रूप में हमारी सेना के लिए अपर्याप्त हो। इन क्षमताओं को हासिल करने में वक्त लगता है और यह मानना उचित नहीं कि निजी कंपनियों को इसे हासिल करने में इतना ही समय नहीं लगेगा। केवल विदेशी विनिर्माताअेां के साथ गठजोड़ करने से क्षमता हासिल नहीं होगी। सवाल यह भी है कि कोई भी संभावित खरीदार भला लॉकहीड मार्टिन या बोइंग जैसे मूल विक्रेता से ही खरीद क्यों नहीं करेगा? इस संदर्भ में चयन डीपीएसयू क्षेत्र की मजबूती (जिसके पास क्षमताएं हैं भले ही वे असंतोषजनक हैं) या निजी क्षेत्र में सक्रिय निवेश के बीच ही करना होगा। इसके अलावा इन दोनों का सम्मिश्रण भी काम आ सकता है।
मौजूदा नीतियों में एक विशिष्ट भारतीय साझेदार को चिह्नित करना पड़ता है जो विदेशी आपूर्तिकर्ता के साथ गठजोड़ करता है। जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं न तो डीपीएसयू और न ही निजी क्षेत्र की कंपनी इस क्षेत्र की तकनीकी बाधाओं को पार कर सकती है। इसका हल संयुक्त उपक्रम में निहित है। परंतु यह कहना आसान है और करना मुश्किल। दोनों क्षेत्रों का काम करने का तरीका और अनुशासन काफी अलग है। सरकारी क्षेत्र में जहां उपयोगकर्ता लक्ष्य तय करता है और कंपनी उसे पूरा करने का काम करती है वहीं निजी कंपनियों के लिए मुनाफा सबसे अहम है। परंतु इनका मिलना आसान नहीं है। केवल सख्त नीतियों का कड़ाई से किया गया क्रियान्वयन ही इससे जुड़ी दुविधा दूर कर सकता है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि ऐसा करने की राजनीति इच्छाशक्ति भी है या नहीं। कुल मिलाकर भारत के रक्षा प्लेटफॉर्म निर्माता या बड़ा हथियार निर्यातक बनने की संभावना बहुत सीमित है।
हमारी अपर्याप्तता की एक वजह यह भी है कि हम विभिन्न सेनाओं द्वारा चाहे गए हथियार और प्लेटफॉर्म डिजाइन कर पाने में नाकाम रहे हैं। बीते दशकों के दौरान नौसेना में कुछ विशेषज्ञता हासिल की गई है लेकिन शेष दो शाखाओं में ऐसा नहीं हुआ है। ध्यान रहे इन शाखाओं में यह जिम्मेदारी रक्षा शोध एवं विकास संस्थान (डीआरडीओ) की है। मिसाइल तंत्र के अलावा इस क्षेत्र में कमजोरी बनी रही है। इसे हमें देश में ही विकसित करना होगा क्योंकि विदेशी आपूर्तिकर्ता कभी विशेषज्ञता नहीं हस्तांतरित करते। हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए क्षमता निर्माण क्योंकि उसके बिना हम रक्षा क्षेत्र में कभी आत्मनिर्भर नहीं हो पाएंगे। निर्यात तो दूर की बात है।
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