कांग्रेस नेतृत्व में आंतरिक भ्रम से कार्यकर्ता भी हो रहे भ्रमित | सियासी हलचल | | आदिति फडणीस / February 21, 2020 | | | | |
प्रबंधन का सिद्घांत कहता है: नेतृत्व करो, अनुसरण करो या मार्ग से हट जाओ। राहुल गांधी इनमें से किसका पालन कर रहे हैं, किसी को नहीं पता। उनका अनिर्णय देश के मुख्य विपक्षी दल को बहुत अधिक नुकसान पहुंचा रहा है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के अत्यंत खराब प्रदर्शन और राहुल गांधी द्वारा राष्टï्रीय अध्यक्ष का पद छोडऩे के बाद सोनिया गांधी को अस्थायी बनाया गया था। उस बात को छह महीने से अधिक वक्त बीत चुका है। सोनिया गांधी की नियुक्ति पर संगठन की मुहर अभी लगनी शेष है (यह वैसे भी असंवैधानिक है क्योंकि पार्टी संविधान में अस्थानीय या अंतरिम अध्यक्ष की कोई व्यवस्था नहीं है)। कांग्रेस का अंतिम पूर्ण सत्र 2018 में दिल्ली में आयोजित किया गया था। सामान्य तौर पर पूर्ण सत्र हर तीन वर्ष में एक बार आयोजित किए जाते हैं। परंतु हमें सुनने को मिल रहा है कि इस समय सीमा को भी आगे बढ़ाया जा सकता है क्योंकि खुलकर कहें तो कांग्रेस में भारी गड़बड़ी चल रही है और पार्टी सामूहिक सोच के साथ ही खुद को संकट से बाहर निकालने पर विचार कर रही है।
राहुल गांधी ने एक बार कहा था कि सत्ता जहर है। परंतु वह भी हार मानने को तैयार नहीं हैं। पूर्ण सत्र को इसलिए आगे बढ़ाया जा रहा है ताकि 'राहुल लाओ, देश बचाओÓ जैसा अभियान छेड़ा जा सके और वह एक बार पुन: कांग्रेस अध्यक्ष बनें। ध्यान रहे कि उनसे पहले उनके पिता, उनकी मां, दादी और नाना तक इस पद पर रह चुके हैं। उनके सभी रिश्तेदार मजबूत मस्तिष्क वाले लोग थे जिन्होंने कांग्रेस पार्टी पर अपनी पहचान छोड़ी और उसकी दिशा तय करने में मदद की। परंतु राहुल के बारे में कोई नहीं जानता।
राहुल गांधी अलग-अलग अवसरों पर इस बात के प्रति लगाव दर्शाते रहे हैं कि कांग्रेस कैसी दिखनी चाहिए। सबसे पहले उन्होंने पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की बात की। उन्होंने कहा कि पार्टी में ज्यादा लोकतंत्र होना चाहिए। ऐसे में पार्टी संगठन से कहा गया कि वह प्राइमरीज का आयोजन करे जहां ज्यादा पार्टी कार्यकर्ताओं के ज्यादा वोट पाने वाले नेताओं को ही अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी का टिकट मिलेगा। प्राइमरीज में जीत हासिल करने वाले लोगों में से कई पुराने कांग्रेस नेताओं के बच्चे थे। दूसरी या तीसरी पीढ़ी के कांग्रेसियों की तरह उन्हें भी वफादारी और संरक्षण हासिल था। ऐसे में प्राइमरीज में हारने का मतलब था, पारिवारिक विरासत गंवाना। ऐसे में जो लोग पार्टी का यह आंतरिक चुनाव जीतने में कामयाब रहे, वहीं वे असली चुनाव में हार गए। ऐसे में कांग्रेस को मां-बेटे की पार्टी से अलग छवि देने का प्रयास नाकाम रहा।
इसके बाद सवाल यह भी था कि पार्टी को आखिर किसे चुनना चाहिए। राहुल को? या सोनिया को? या फिर प्रियंका को? और भविष्य की संभावना, रॉबर्ट? पार्टी को धर्मनिरपेक्षता की राह पर आगे बढऩा चाहिए? या समाजवाद की? या कुछ-कुछ दोनों? जाहिर है इससे कुछ नहीं होना था क्योंकि नरेंद्र मोदी की राजनीतिक काट कोई व्यक्ति ही हो सकता है, कोई विचार या मुद्दा नहीं? इस विषय पर भी अत्यधिक भ्रम की स्थिति है। राहुल कहते हैं कि वह पूरे मसले से बाहर हैं लेकिन ऐसा है नहीं। उनके द्वारा चुने हुए लोग ही प्रियंका के सलाहकार हैं। अहम नियुक्तियों में उनके सलाहकारों की बात सुनी जा रही है। लेकिन बात तो उनकी भी सुनी जा रही है जो सोनिया के वफादार होने का दम भरते हैं। ऐसे में पार्टी कार्यकर्ता इस बात को लेकर भ्रमित हैं कि आखिर निर्णय कौन ले रहा है?
जब जयराम रमेश ने कहा कि विपक्षी दल को सरकार द्वारा जनहित में लिए गए निर्णयों की सराहना करनी चाहिए (उदाहरण के लिए उज्ज्वला) तो वीरप्पा मोइली और कपिल सिब्बल ने तत्काल उनकी बात का विरोध किया। जब मिलिंद देवड़ा ने आम आदमी पार्टी के राजकोषीय विवेक के लिए उसकी तारीफ की तो अजय माकन ने उनका गला पकड़ लिया और कहा कि वह कांग्रेस छोड़ दें। ठीक इसी तरह शर्मिष्ठा मुखर्जी ने पी चिदंबरम की आलोचना की क्योंकि वह दिल्ली चुनाव में आप की जीत से उत्साहित थे। इस दौरान सामान्य कर्मचारी असहाय होकर देखते रहे। काफी हद तक टेनिस मैच के दर्शकों की तरह। कुछ तो खुलकर कहते हैं कि इधर उधर देखते-देखते उनकी गरदन में दर्द होने लगा है।
सच तो यही है कि कांग्रेस के लिए परिवार ही अपील की आखिरी अदालत है। वही बराबरी वालों में सबसे श्रेष्ठ है। यदि गांधी परिवार नहीं होगा तो सभी नेता समान होंगे। यदि सभी नेता समान होंगे तो कोई भी कांग्रेस का नेतृत्व कर सकता है। यानी हर बार जब परिवार पाश्र्व में गया तो कांग्रेस का बंटवारा हुआ। यह बात हमें एक असहज करने वाले नतीजे पर पहुंचाती है। वह यह कि देश के सबसे अधिक आबादी वाले लोकतंत्र में सबसे बड़ी राजनीतिक ताकतों में से एक का नेतृत्व केवल एक परिवार कर सकता है। केवल उस परिवार के पास ही यह शक्ति है कि वह खुद को उस जवाबदेही से मुक्त कर सके। परंतु फिलहाल ऐसा होता हुआ नजर नहीं आता। भाजपा में बहुत खामोशी से इस बात पर चर्चा चल रही है कि क्या अब वक्त आ गया है कि सन 2024 के चुनाव के पहले इसे व्यक्तियों की लड़ाई से विचारों की लड़ाई में तब्दील किया जाए। जहां तक कांग्रेस की बात है, वह न तो व्यक्तियों को लेकर स्पष्ट है और न ही विचारों को लेकर।
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