आरसेप का विकल्प खुला रहे तो बेहतर | श्याम सरन / February 18, 2020 | | | | |
आरसेप व्यापार समझौते में न शामिल होकर भारत अपने लिए जोखिम पैदा कर रहा है। वह नियम बनाने वालों से नियम का पालन करने वालों की श्रेणी में शामिल हो सकता है। जानकारी दे रहे हैं श्याम सरन
भारत ने गत वर्ष क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) में शामिल नहीं होने का निर्णय लिया था। इस संधि से संबंधित वार्ता अंतिम दौर की ओर बढ़ रही है और वर्ष 2020 के अंत तक यह समझौता अंतिम रूप ले लेगा। भारत ऐसी क्षेत्रीय व्यापार व्यवस्था को स्वीकार करने को तैयार नहीं था जिसमें उसे आयात वृद्धि से निपटने की सीमित पात्रता थी। उत्पादों के मूल स्थान से संबंधित नियमों को लेकर कुछ मसले थे। मूल स्थान वाला मुद्दा पहले ही आपूर्ति शृंखला आधारित क्षेत्रीय रूप से एकीकृत व्यापार नेटवर्क में निहित है। आमतौर पर किसी भी कारोबारी साझेदार का उत्पाद कई अन्य देशों से आए घटकों और वस्तुओं से बनता है। किसी विशेष मुल्क को ध्यान में रखकर किए गए कारोबारी उपाय और शुल्क बहुत मायने नहीं रखते। भारत यदि इन आपूर्ति शृंखलाओं का हिस्सा नहीं है तो इसमें उसका ही नुकसान है। इसलिए क्योंकि विभिन्न कारोबारी साझेदारों के साथ अलहदा शुल्क व्यवहार एक जटिल कवायद है।
बहरहाल, यदि भारत मानता है कि उसके कारोबार का भविष्य क्षेत्रीय और वैश्विक आपूर्ति शृंखला का हिस्सा बनने में है तो आरसेप से बाहर रहने का निर्णय विरोधाभासी है। यदि भारतीय बाजार के आकार का लाभ लेते हुए आरसेप की आपूर्ति शृंखला में शामिल हुआ जाता कहीं अधिक बेहतर रणनीति होती। इससे बुनियादी ढांचे, व्यापार सुविधा उपायों और गुणवत्ता आदि में तत्काल सुधार देखने को मिलता क्योंकि आपूर्ति शृंखलाओं के लिए यह ज्यादा उपयोगी होता है। आपूर्ति शृंखला केवल कम शुल्क वाली व्यवस्था में कारगर हो सकती है जहां घटकों और कच्चे माल का उदारतापूर्वक आयात किया जा सके।
ताजातरीन आर्थिक समीक्षा में भी यह अनुशंसा की गई है कि भारत को चीन जैसा, श्रम आधारित निर्यात दायरा तैयार करना चाहिए और देश में बढ़ते युवाओं के लिए रोजगार के जबरदस्त अवसर तैयार करने चाहिए। यहां आवश्यकता यह है कि नेटवर्क उत्पादों पर ध्यान केंद्रित किया जाए। ये वे उत्पाद होते हैं जो तमाम मूल्य शृंखलाओं में तैयार होते हैं जहां असेंबली शृंखला बड़े पैमाने पर इनका उत्पादन करती हैं। कहा जाता है कि ऐसा करने से देश में असेंबलिंग का काम मेक इन इंडिया के साथ एकीकृत होगा। बजट पेश करते समय अपने भाषण में वित्त मंत्री ने आर्थिक समीक्षा की बात दोहराते हुए कहा कि भारत को नेटवक्र्ड वस्तुएं बनाने की आवश्यकता है। ऐसा करके वह वैश्विक मूल्य शृंखला का हिस्सा बन सकता है। इससे निवेश ज्यादा आता है और युवाओं को ज्यादा रोजगार प्राप्त होते हैं।
इस संदर्भ में भारत को भी आरसेप को लेकर खुले दिमाग का परिचय देना चाहिए। बाली में गत 3 और 4 फरवरी को आरसेप सदस्यों की अनौपचारिक बैठक में शामिल होने के आसियान के न्योते का सकारात्मक प्रत्युत्तर इसी क्रम में था। वार्ताकारों को असेंबल इन इंडिया नीति को बातचीत की टेबल पर लाना था। वह साझेदारों की हमारी कुछ चिंताओं को दूर करने की इच्छाशक्ति का भी परीक्षण कर सकता था। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह अवसर गंवा दिया गया। जैसा कि हमने पहले कहा आपूर्ति शृंखला कम शुल्क की व्यवस्था में काम करती है। जबकि बीते चार बजट में शुल्क बढ़ाया गया है। भारत आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के 25 वर्ष के रुझान से पीछे हट रहा है। आयात प्रतिस्थापन की नीति तेजी से मजबूत हो रही है लेकिन उसका नीतिगत असर क्या होगा इसे लेकर भ्रम है। क्या नीतिगत चयन रुपये की कमजोर विनिमय दर में नहीं दिखना चाहिए? क्या विदेशी निवेश ऐसे क्षेत्रों में बुलाया जाना चाहिए जहां भारतीय कारोबारी कमजोर हैं?
वित्त मंत्री की बातों से भी स्पष्ट है कि देश संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहा है। उन्होंने कहा, 'यह देखा गया है कि मुक्त व्यापार समझौतों के तहत होने वाला आयात बढ़ रहा है। इसके लाभ के अवांछित दावों से घरेलू उद्योग को खतरा पैदा हो गया है। ऐसे आयात पर कड़ी निगरानी की जरूरत है। इस संदर्भ में सीमा शुल्क अधिनियम में उपयुक्त प्रावधान शामिल किए जा रहे हैं। आने वाले महीनों में हम स्रोत आवश्यकता के नियम की समीक्षा करेंगे। खासकर चुनिंदा संवेदनशील वस्तुओं के बारे में ताकि यह सुनिश्चित हो कि मुक्त व्यापार समझौते नीतिगत दिशा के साथ सामंजस्य में हों।'
सीमा शुल्क में ऐसा ही एक प्रस्तावित संशोधन उल्लेखनीय है। अधिनियम की धारा 11 (2) का एक प्रावधान केंद्र सरकार को यह अधिकार देता है कि वह देश की अर्थव्यवस्था को सोने या चांदी के अनियंत्रित आयात या निर्यात से होने वाले नुकसान से बचाए। इस प्रावधान में संशोधन कर इसमें सोने और चांदी के अलावा 'कोई अन्य वस्तु' का प्रावधान जोडऩा चाहती है। यह एक अहम व्यापार प्रतिबंध वाला उपाय होगा और यह स्पष्ट नहीं है कि यह विश्व व्यापार संगठन के साथ हमारे नए दायित्वों के अनुरूप होगा या नहीं।
अब ज्यादातर वैश्विक व्यापार व्यापक क्षेत्रीय समझौतों के अधीन होते हैं। उत्तरी अमेरिका मुक्त व्यापार समझौता, यूरोपीय संघ और लैटिन अमेरिका की में ऐसी व्यवस्थाएं हैं। आरसेप एशिया में उनका समकक्ष होगा। विश्व व्यापार संगठन की भूमिका कमजोर पड़ी है और अबाध व्यापार और निवेश प्रवाह की अवधारणा के साथ, खासकर विकासशील देशों में, हम तेजी से विश्व व्यापार व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं। यह प्रत्युत्तर के सिद्घांत पर आधारित होगा और व्यापार प्रवाह पर शुल्क का असर कम तथा मानकों, विशिष्टताओं, बौद्घिक संपदा संबंधी उपायों तथा पर्यावरण मानक का असर अधिक होगा। इस नई विश्व व्यवस्था की निगरानी सुधरे हुए और पुनर्गठित विश्व व्यापार संगठन के हाथ होगी। चीन और अमेरिका जैसे बड़े कारोबारी देशों के अलावा अन्य देशों के लिए यहां सीमित गुंजाइश होगी तथा बड़े क्षेत्रीय कारोबारी समझौते अहम होंगे। भारत का विदेश व्यापार वैश्विक व्यापार के दो फीसदी से कम है। यदि भारत इन समझौतों में से किसी का हिस्सा नहीं बना तो वह नियम बनाने वालों में नहीं रह जाएगा। इस पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए क्योंकि हमारी भविष्य की आर्थिक संभावनाएं इससे जुड़ी हैं।
सन 1991 में जब भारत ने आर्थिक सुधार और उदारीकरण की नीतियां अपनाईं तब आशंका थी कि देश का उद्योग जगत लडख़ड़ा जाएगा। ये आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं और भारत स्थायी रूप से उच्च वृद्घि पथ पर वापस आ गया। सफल आर्थिक नीति को छोडऩे और नाकाम आयात प्रतिस्थापन को को अपनाने का क्या तुक है? देश को वैश्विक असेंबली हब बनाने और उसके बाद विपरीत नीतियां अपनाने की बात अनुपयुक्त है।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सीपीआर के सीनियर फेलो हैं)
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