सीवर में दम तोड़ते सफाईकर्मी को समय पर मिले वाजिब मुआवजा | इंसानी पहलू | | श्यामल मजूमदार / February 16, 2020 | | | | |
चुनाव के समय मतदाताओं को चांद लाकर देने का वादा करना राजनीतिक दलों के लिए आम है। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में एक गहरे सीवर की सफाई करते समय एक 24 वर्षीय सफाई कर्मचारी की मौत होने के दो दिन बाद ही आम आदमी पार्टी (आप) ने अपने चुनाव घोषणापत्र में यह ऐलान कर दिया कि सफाई करते समय मर जाने वाले कर्मचारियों के परिवार को उसकी सरकार एक करोड़ रुपये की मदद देगी। आप नेतृत्व को शायद यह नहीं पता है कि देश में सीवरों की सफाई करते समय दम घुटने से मर जाने वाले केवल आधे कर्मचारियों के घरवालों को ही 10 लाख रुपये की सहायता राशि मिल पाती है। उच्चतम न्यायालय ने सफाईकर्मियों के परिजनों को इतनी राशि देने का आदेश दिया हुआ है। ऐसे में सवाल उठता है कि इन कर्मचारियों के लिए एक करोड़ रुपये की राशि देने का वादा करने के पहले यह सुनिश्चित क्यों नहीं कर लिया गया कि दिल्ली में ऐसे सारे लोगों के परिजनों को 10 लाख रुपये का मुआवजा फौरन दिलाया जाए?
केंद्र सरकार ने भी कुछ बेहतर काम नहीं किया है। बजट 2020-21 में सिर पर मैला ढोने वाले सफाईकर्मियों के पुनर्वास के लिए आवंटित राशि में कोई वृद्धि नहीं की गई है जबकि वर्ष 2019 में सीवर की सफाई के दौरान सबसे ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। इससे विशेषज्ञ यह सवाल पूछने को बाध्य हुए कि क्या सरकार इस अभिशाप से मुक्ति के लिए वाकई में गंभीर भी है? सफाई के दौरान मरने वाले कर्मचारियों और समुचित मुआवजा नहीं मिलने वाले लोगों की सटीक संख्या जान पाना तो नामुमकिन है लेकिन यह संख्या निश्चित रूप से सरकारी आंकड़ों से अधिक होती है। किसी भी हाल में, दुनिया में कहीं भी लोगों को गैस चैंबर बन जाने वाले सीवरों के भीतर ऑक्सीजन सिलिंडर और मास्क के बगैर नहीं भेजा जाता है। गैर-आधिकारिक अनुमानों के मुताबिक देश भर में औसतन हरेक पांच दिन पर एक सफाईकर्मी की मौत हो जाती है।
मसलन, मुंबई के नगर निगम ने शहर को साफ-सुथरा रखने के लिए करीब 30,000 लोगों को सीधे तौर पर नौकरी दी हुई लेकिन सीवर पाइपों की सफाई का मुश्किल एवं खतरनाक काम सामान्यत: अस्थायी कर्मचारियों से ही कराया जाता है। उन्हें सीवर में फंसी गंदगी को अपने हाथों से ही साफ करना होता है और वे ठेकेदारों के जरिये दैनिक आधार पर काम पर रखे जाते हैं। इस स्थिति में वे हादसे का शिकार होने पर किसी चिकित्सकीय एवं जीवन बीमा सुरक्षा से वंचित रह जाते हैं और मौत की स्थिति में मिलने वाले मुआवजे की गिनती भी शायद ही कोई करता है।
यह समझ के बाहर है कि देश के दो बड़े महानगरों में भी वैज्ञानिक तरीके से बनी सीवर एवं सीवेज प्रणालियों और उनके रखरखाव की कितनी कमी है? सीवेज निपटान असल में ठेकेदारों के शोषण का शिकार होने वाले गरीब लोगों पर छोड़ दिया जाता है और इस पूरी व्यवस्था की कोई सरकारी निगरानी या नियमन नहीं होता है। पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) ने राजधानी दिल्ली में सीवर एवं सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान हुई मौतों पर पिछले साल एक अध्ययन किया था। ऐसी छह घटनाओं की जांच के बाद तैयार रिपोर्ट में कहा गया है कि शहरी नियोजन में सीवरेज प्रणाली के रखरखाव और सुरक्षा के उपकरण एवं सेप्टिक टैंकों की सफाई के प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं होने के साथ ही दोषियों के खिलाफ आपराधिक अभियोग चलाने का भी इंतजाम न होने से कर्मचारियों को यह काम खुद ही करना पड़ता है।
सिर पर मैला ढोने पर रोक एवं सफाईकर्मियों के पुनर्वास से संबंधित कानून वर्ष 2013 में पारित किया गया था। इस कानून की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें सीवरों की सफाई को केवल तभी खतरनाक बताया गया है जब यह काम सुरक्षा का ध्यान न रखते हुए उपकरणों के बगैर किया जाए। लेकिन कानून में यह नहीं बताया गया है कि किन उपायों को सुरक्षा एहतियात के लिए जरूरी माना जाएगा और सुरक्षा उपकरण क्या हैं? इसके अलावा यह उस स्थिति में सीवर की हाथों से सफाई की मंजूरी भी देता है जब इन प्रावधानों का ध्यान रखा जाए। लेकिन इसमें इस पहलू को भुला दिया गया है कि सीवर में बनने वाली जहरीली गैस इन मजदूरों की मौत की सबसे बड़ी वजह बनती है। अगर पूरी सावधानी रखी जाए तब भी गैस से दम घुटने को नहीं रोका जा सकता है।
यह रिपोर्ट सैनिटेशन वर्कर्स प्रोजेक्ट के एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहती है कि देश भर में करीब 50 लाख सफाई कर्मचारी ऐसे खतरनाक काम में लगे हुए हैं। सीवेज की सफाई के दौरान होने वाली मौतों का सबसे बड़ा कारण ऑक्सीजन की कमी और हाइड्रोजन सल्फाइड जैसी जहरीली गैसों की मौजूदगी है। इसके अलावा यह बात भी विदित है कि अधिकतर सीवेज कर्मचारी टीबी रोग से ग्रसित हैं। इससे पता चलता है कि कई सीवर कर्मचारियों की मौत 40 साल की उम्र में ही क्यों हो जाती है? दरअसल वे तमाम स्वास्थ्य समस्याओं से घिर जाते हैं और उसके शिकार हो जाते हैं। इंसानी मल को बार-बार साफ करने से उन्हें सांस एवं त्वचा से जुड़ी कई बीमारियां हो जाती हैं। इसके अलावा एनीमिया, पीलिया, ट्रैकोमा और कार्बन मोनो-ऑक्साइड की समस्या भी रहती है। सफाई कर्मचारियों में 90 फीसदी संख्या महिलाओं की होने से उनकी सेहत पर अधिक असर पड़ता है। शुष्क शौचालयों की सफाई के लिए लोग महिला सफाईकर्मियों को ही रखना पसंद करते हैं क्योंकि अक्सर शौचालय घरों के भीतर बने होते हैं। इसके अलावा पुरुष कामगारों की तुलना में महिला सफाईकर्मी की मजदूरी भी कम होती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साल पहले प्रयागराज मेले के दौरान कुछ सफाई कर्मचारियों के पैर धोए थे और उन्हें कर्मयोगी बताया था। अगर वह इतना सुनिश्चित कर सकें कि काम पर मर जाने वाले इन कर्मयोगियों के परिवार को वाजिब मुआवजा समय पर मिल जाए तो काफी अच्छा होगा।
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