सत्ता शीर्ष पर ताकतवर जोडिय़ों में अंतर | राष्ट्र की बात | | शेखर गुप्ता / February 16, 2020 | | | | |
अब जबकि अमित शाह ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष का पद छोड़ दिया है तो हम नरेंद्र मोदी-अमित शाह की भाजपा के बारे में क्या कहेंगे? कुछ सप्ताह पहले उनके स्थान पर जे पी नड्डा भाजपा के अध्यक्ष बने। परंतु दिल्ली विधानसभा चुनाव अभी भी उनके एजेंडे में था। आगे की राह कैसी दिखती है? मोदी-शाह की यह सरकार 73 वर्ष के स्वतंत्र भारत के इतिहास में तीसरी ऐसी सरकार है जिसमें सत्ता के शीर्ष पर एक ऐसी जोड़ी है जिसका न केवल कद समान है बल्कि जो साथ मिलकर काम करते हैं। कई ऐसी सरकारें भी रहीं जिनमें एक ही नेता था और कई अल्पकालिक सरकारों में तो वह भी नहीं था। राजनीति पर हाशिये से नजर रखने वालों के लिए ये तीनों प्रकार मनोरंजक हैं। चरण सिंह से इंद्र कुमार गुजराल और वीपी सिंह से चंद्रशेखर और देवेगौड़ा तक के नेतृत्वविहीन शासन को सबसे मनोरंजक माना जाता है क्योंकि उस दौर में लड़ाइयां हुईं, जानकारियां लीक हुईं और इनकी कार्यावधि भी बहुत छोटी रही। इंदिरा गांधी या राजीव गांधी जैसी एक नेताओं वाली सरकारों में प्राय: ये किस्से सुनने को मिलते रहे कि कौन अंदर या बाहर हो रहा है लेकिन जहां दो समान नेताओं के बीच सत्ता की साझेदारी हुई वहां कतई बोर करने वाली बातें सामने नहीं आईं। पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व वाली ऐसी पहली सरकार के किस्से 75 वर्ष बाद आज भी सुर्खियों में रहते हैं।
आप कह सकते हैं कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच सत्ता की साझेदारी आपसी विश्वास पर आधारित थी। परंतु अंतर यह है कि उस सरकार में प्रधानमंत्री समकक्षों में प्रथम भी नहीं थे। बल्कि संप्रग की दूसरी सरकार में तो उनकी हैसियत राहुल गांधी के बाद तीसरे ताकतवर व्यक्ति की रह गई थी। इसके बाद हमारे पास क्रमश: अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा/राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की दो सरकारें रह जाती हैं। दोनों सरकारें दो ताकतवर लोगों ने मिलकर चलाईं। पहली सरकार वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने मिलकर चलाई और दूसरी नरेंद्र मोदी और अमित शाह मिलकर चला रहे हैं। परंतु यहां भी अंतर है। वाजपेयी और आडवाणी बहुत करीबी व्यक्तिगत मित्र और दयालु, पुराने सहयोगी और हम उम्र थे।
उन्हें हमेशा समकक्ष माना गया। एक अधिक लोकप्रिय, स्वीकार्य और नरम था जबकि दूसरा कठोर, राजनीतिक और वैचारिक। वे एक दूसरे से असहमत भी होते थे लेकिन निर्णय एक दूसरे पर टाल भी देते थे। मैंने कई बार उनकी तुलना बुजुर्ग दंपती से की जो एक दूसरे के प्रति वफादार, निर्भर और स्नेहिल होते हैं लेकिन उनमें अक्सर झगड़ा भी होता है। मोदी और शाह एकदम अलग श्रेणी में हैं। नेहरू और पटेल करीबी और समान थे लेकिन उनके बीच कई असहमतियां थीं जो सार्वजनिक भी थीं। लेकिन उनमें बड़ा कौन था इसे लेकर कभी कोई संशय नहीं रहा। लंबे समय के दौरान उनका आपसी तनाव क्या मोड़ लेता यह हम कभी नहीं जान पाएंगे क्योंकि आजादी के तीन वर्ष के भीतर ही पटेल का निधन हो गया। वाजपेयी और आडवाणी के रिश्ते अलग थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि नई भाजपा का निर्माण आडवाणी ने किया, उन्होंने नए हिंदुत्व की जगह बनाई और उसे स्थापित किया। उन्होंने पार्टी पर नियंत्रण कायम किया।
भाजपा के भीतर भी वह एक जन नेता और सौदेबाजी में उस्ताद थे। वह गठजोड़ करने और तोडऩे में भी माहिर थे। वाजपेयी की छवि एक सार्वजनिक वक्ता और रूमानी व्यक्ति की थी। अपनी राजनीति के दौरान ज्यादातर उन्होंने आडवाणी का अनुसरण किया। भले ही कई बार वह उनके तौर तरीकों से आहत भी होते और किनारा भी करते जैसा कि उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस के वक्त किया। परंतु वह कभी आडवाणी की अवज्ञा नहीं करते थे। वहीं जब पार्टी को सत्ता मिलने की बारी आई तो आडवाणी ने व्यवहार कुशलता दिखाई। उन्हें पता था कि उनके नेतृत्व में विविध विचारधारा वाले गैर कांग्रेसियों का गठजोड़ खड़ा करना मुश्किल है। सबके लिए कहीं अधिक स्वीकार्य चेहरा चाहिए था जो वाजपेयी थे। वाजपेयी प्रधानमंत्री बने लेकिन पार्टी और सरकार में असली ताकत आडवाणी के पास रही।
इसका पहला प्रमाण तब मिला जब वाजपेयी को अपने विश्वसनीय मित्र और सहयोगी जसवंत सिंह को कैबिनेट में नहीं शामिल करने दिया गया। पार्टी में झगड़े चलते रहे क्योंकि आरएसएस के करीबी धड़े उन्हें ब्रजेश मिश्रा और दामाद रंजन भट्टाचार्य को लेकर प्रताडि़त करते रहे। सबसे अहम बात, 2002 के गुजरात दंगों के बाद जब वाजपेयी मोदी को हटाना चाहते थे तब आडवाणी ने ऐसा नहीं होने दिया। सामरिक विषयों पर भी अंतिम बात आडवाणी की ही मानी जाती थी। यह बात दस्तावेजों में है कि जनरल परवेज मुशर्रफ के साथ आगरा शिखर बैठक का विचार आडवाणी का ही था और उसे रद्द करने का भी। उन दिनों भी चाटुकार और कानाफूसी करने वाले यही कहते कि दोनों नेता राम-लक्ष्मण की तरह साथ रहते हैं। यह तब तक चला जब तक कि आडवाणी का धैर्य चुक नहीं गया। उनका अपना एक दरबार था। मैंने 2009 में लिखा था कि उनके आसपास के लोगों ने उन्हें भड़काया और कुछ नाटकीय घटनाएं घटीं।
वाजपेयी के कार्यकाल के अंतिम वर्ष में यह अफवाह फैलाई गई कि वह थक गए हैं और सेवानिवृत्त हो सकते हैं। कहा गया कि वह सत्ता अपने उत्तराधिकारी को सौंप सकते हैं। तब वाजपेयी ने अपनी चुप्पी तोड़ी और व्यंग्यात्मक लहजे में कहा कि वह न तो 'टायर्ड हैं और न रिटायर्ड'। मामला तब और जटिल हो गया जब 2003 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जीत से उत्साहित आडवाणी ने अनिच्छुक वाजपेयी पर दबाव बनाया कि 2004 के आम चुनाव जल्दी करा लिए जाएं। प्रचार अभियान के दौरान वाजपेयी के बुढ़ापे और उनके थके होने की खबरें दोबारा आने लगीं। कहा जाने लगा कि अगला कार्यकाल वह आडवाणी को सौंपेंगे। वाजपेयी ने अपनी नाराजगी छिपाई नहीं। राजग के चुनाव हारने के बाद उन्होंने लोगों से यह नहीं छिपाया कि किसके लालच और पाप के कारण यह हश्र हुआ। मोदी-शाह की व्यवस्था कई मायनों में अलग है।
तीन अहम बातों का जिक्र करें तो पहली बात वे दो दशक से साथी हैं। एक जन नेता है और दूसरा शानदार पार्टी प्रभारी। भूमिकाएं अलग हैं और उनका बंटवारा स्पष्ट है। एक वोट लाता है और दूसरा पार्टी और चुनावी व्यवस्था से उन्हें संग्रहीत करता है। यहां तक यह रिश्ता नंबर एक और नंबर दो का है। काफी हद तक कॉर्पोरेट जगत के चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर और चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर, मुख्यमंत्री और उसके विश्वसनीय मुख्य सचिव जैसा, कमांडेंट और सार्जेंट मेजर जैसा। हालांकि शाह ने इस सप्ताह टाइम्स नाऊ के कार्यक्रम में कहा कि उन्हें तुलनाएं पसंद नहीं लेकिन आप चाहें तो चंद्रगुप्त मौर्य और कौटिल्य से भी तुलना कर सकते हैं।
दूसरा, सार्वजनिक जीवन को लेकर दोनों का दृष्टिकोण अलग है। एक मुखर सार्वजनिक व्यक्तित्व है, जिसे वैश्विक स्तर पर प्रशंसा मिलती है तो दूसरा परदे के पीछे से सत्ता संचालित करता है और प्रमुख देशों के राजदूतों तक से मिलने से परहेज करता है। एक भीड़ जुटाता है तो दूसरा पार्टी के वफादारों को प्रोत्साहित करता है। एक अच्छे पुलिसवाले की भूमिका में होता है तो दूसरा अपने यकीन पर चलता है, भले ही इसमें वह बुरा क्यों न नजर आए। तीसरी बात, इस मामले में नंबर दो की उम्र नंबर एक से 14 साल कम है। यानी उसके लिए नंबर एक के बाद भी राजनीतिक भविष्य है।
हालिया दिल्ली चुनाव के साथ शाह की पार्टी प्रमुख की पारी समाप्त हो गई। शायद वह इसे अलग तरह से समाप्त करते लेकिन हरियाणा से झारखंड और दिल्ली तक तथा कुछ हद तक महाराष्ट्र में मतदाताओं ने उनके सामने यह कड़वा सच रख दिया कि मोदी के लिए मतदान का मतलब भाजपा के लिए मतदान नहीं है। पार्टी की ध्रुवीकृत विचारधारा के लिए तो कतई नहीं। शाह इस हकीकत के साथ ही अपने राजनीतिक करियर के दिलचस्प और अपरिचित दौर में प्रवेश कर रहे हैं। उनकी सफलता या विफलता का आकलन एक प्रमुख मंत्री के रूप में उनके प्रदर्शन के आधार पर किया जाएगा। मोदी के साथ वह हमारे राजनीतिक इतिहास की सबसे ताकतवर जोड़ी बनाते हैं। आने वाले वर्षों की घटनाएं उनके रिश्तों को परिभाषित करेंगी और समय बीतने के साथ शाह की दास्तान उसे अधिक प्रभावित करेगी।
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