पुराने मुद्दों से नहीं उबर पाए भारत और श्रीलंका के संबंध | सियासी हलचल | | आदिति फडणीस / February 11, 2020 | | | | |
कुछ चीजें नहीं बदलती हैं। शायद वे बदली भी नहीं जा सकतीं। श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे भारत की यात्रा पर आए। उनकी पांच दिन की यात्रा मंगलवार को संपन्न हो गई। श्रीलंका के मीडिया, खासकर तमिल भाषा के समाचार माध्यमों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस बयान को प्रमुखता दी गई, जिसमें उन्होंने कहा कि वह 'इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि श्रीलंका सरकार एकीकृत श्रीलंका में तमिल मूल के लोगों की समानता, न्याय एवं शांति की अपेक्षाओं को समझेगी।' हालांकि श्रीलंका के प्रधानमंत्री ने मीडिया के समक्ष दिए बयान में तमिल मुद्दे का बिल्कुल जिक्र नहीं किया। राजपक्षे ने इनसे इतर आर्थिक, शैक्षणिक एवं कौशल विकास, रक्षा और खुफिया जानकारियां साझा करने में द्विपक्षीय सहयोग पर अधिक जोर दिया।
राजपक्षे ने कहा, 'मैं प्रधानमंत्री मोदी से आग्रह करता हूं कि वह श्रीलंका के सभी हिस्सों में आवासीय परियोजना के विस्तार में और सहायता मुहैया कराएं। इससे देश के ग्रामीण हिस्सों में रहने वाले कई लोगों को लाभ मिलेगा।' जो तमिल मूल के लोगों के लिए विशेष घोषणाओं की उम्मीद कर रहे थे, उन्होंने पाया कि राजपक्षे के बयान में सभी के लिए आवास पर जोर दिया गया है, न कि जाफना में रहने वाले तमिल क्षेत्रों के संबंध में खास तौर पर यह बात कही गई है। जाफना में भारत ने हजारों विस्थापित तमिल लोगों के लिए आवास बनाए हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो श्रीलंका लगातार इस बात से इनकार करता रहा है कि उसे अल्पसंख्यक तमिलों को लेकर किसी तरह की समस्या पेश आ रही है। दूसरी तरफ, भारत लगातार श्रीलंका को तमिल लोगों से जुड़ी समस्या सुलझाने की सलाह देता रहा है।
यात्रा की पृष्ठभूमि
राजपक्षे की भारत यात्रा से ठीक पहले एक सोची-समझी रणनीति के तहत कुछ निर्णय लिए गए थे। पिछले सप्ताह श्रीलंका के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर तमिल भाषा में राष्ट्रीय गान गाने की अनुमति नहीं दी गई। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है, लेकिन इसमें श्रीलंका के उत्तर एवं पूर्व में रहने वाले तमिल मूल के लोगों और भारत सरकार के लिए स्पष्ट संदेश था कि नई सरकार समस्त श्रीलंका को ध्यान में रखकर आगे बढ़ रही है और वह इसी रणनीति के साथ आगे बढ़ेगी। भारत ने भी श्रीलंका सरकार के इस स्पष्ट संदेश को भांप लिया और राष्ट्रीय गान से जुड़े कदम पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। भारत ने इसे श्रीलंका का आंतरिक मामला मान कर इसमें हस्तक्षेप करने से स्वयं को अलग रखा।
पिछले महीने राजपक्षे ने चीन के सहयोग से बने 269 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली कोलंबो मेगा पोर्ट सिटी का उद्घाटन किया और इसे भविष्य का वित्तीय केंद्र घोषित कर दिया। उन्होंने इस बात को भी नकार दिया कि उनका देश चीन के कर्ज जाल में फंसता जा रहा है। भारत वास्तव में आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग समझौते पर किसी तरह की पहल की उम्मीद नहीं कर रहा था। इस समझौते का मकसद एफटीए की त्रुटियां दूर करना और सेवाओं एवं तकनीक हस्तांतरण के कारोबार पर समझौता करना था। इससे आर्थिक एवं व्यापार संबंधों को एक नया आयाम मिलता। राजपक्षे की यात्रा में ऐसा कुछ नहीं हुआ। दूसरे शब्दों में कहें तो राजपक्षे ने यह लगभग स्पष्ट कर दिया कि श्रीलंका राजनीति एवं सुरक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा के लिए तैयार है, लेकिन चीन आर्थिक विकास में उनका पसंदीदा सहयोगी है।
राजपक्षे ने यह बात बिल्कुल स्पष्ट कर दी कि उन्हें भारत से किस तरह की उम्मीदें हैं। उन्होंने कहा, 'मैं राष्ट्रपति गोटाभाया राजपक्षे की बात दोहराना चाहूंगा कि पिछले साल अप्रैल में देश में जिस तरह से घटनाक्रम हुए उसके बाद हमें अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति पर दोबारा विचार करना पड़ा और इस दिशा में भारत का सहयोग सराहनीय होगा। ईस्टर के दिन हुए एक के बाद एक बम विस्फोट के बाद प्रधानमंत्री मोदी को श्रीलंका आने के लिए मैंने धन्यवाद दिया। उनके दौरे से हमें इस भीषण त्रासदी से जूझने की असीम शक्ति मिली। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को सहायता देने के लिए 40 करोड़ डॉलर के ऋण की प्रधानमंत्री मोदी की पेशकश का भी हम स्वागत करते हैं। हमें आतंकवाद से लडऩे के लए भी भारत से 5 करोड़ डॉलर की सहायता मिली है। हमने सहयोग के उन प्रस्तावों पर भी चर्चा की, जो राष्ट्रपति गोटाभाया के नवंबर दौरे में रखी गई थीं।' राष्ट्रपति गोटाभाया राजपक्षे नवंबर में भारत दौरे पर आए थे।
आगे की राह
श्रीलंका में इस साल अगस्त में आम चुनाव होने वाले हैं, लेकिन वहां के संविधान के अनुसार राष्ट्रपति मार्च में संसद भंग कर नए चुनाव करा सकता है। देश के राष्ट्रपति रह चुके महिंदा राजपक्षे इस समय अंतरिम प्रधानमंत्री एवं वित्त मंत्री हैं। उनकी लोकप्रियता श्रीलंका के सिंहली बहुल दक्षिण भाग में सर्वोच्च स्तर पर है। ऐसा माना जा रहा है कि इस लोकप्रियता के दम पर श्रीलंका पोडुजना पेरामुना (एसएलपीपी) 225 सदस्यीय संसद के चुनाव में धमाकेदार प्रदर्शन करेगी। इससे सरकार के लिए अल्पसंख्यकों के अधिकारों में कमी करने संबंधी कानून पारित कराना आसान हो जाएगा। मौजूदा मंत्रिमंडल में कोई भी तमिल या मुस्लिम प्रतिनिधि नहीं है। एक बात तो अब साफ दिख रही है। श्रीलंका का रवैया अब एक राष्ट्र के तौर पर नरम नहीं रहेगा और अल्पसंख्यकों को अधिक संदेह की दृष्टि से देखा जाएगा। दूसरी तरफ नई सरकार के लिए सिंहली बहुत बौद्ध धर्मावलंबियों की अपेक्षाओं पर खरा उतरना आसान नहीं होगा। क्या वहां की सरकार यह बात जेहन में रखेगी कि वह इसी समुदाय के समर्थन की बदौलत सत्ता में आई है? या क्या यह धीरे-धीरे लेकिन निश्चित तौर पर उस राजनीतिक विचार पर अंकुश लगाने का प्रयास करेगी, जो अधिक मुखर हो रहा है? श्रीलंका में राजनीति अब पहले के मुकाबले अधिक पेचीदा होने वाली है।
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