नरेंद्र मोदी क्या किसी अजीब मनोविकार के शिकार हैं जिसे नेहरूआइटिस का नाम दिया जा सकता है? राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के उत्तर में उन्होंने जो 100 मिनट का भाषण दिया उसमें नेहरू का नाम 23 बार लिया। तो क्या सचमुच वह किसी बीमारी के शिकार हैं? वह पुरानी स्वस्थ संसदीय बहस परंपरा का पालन करते हुए कांग्रेस के नेताओं के साथ चुहल करते हैं लेकिन राहुल गांधी के प्रति उनका रवैया तिरस्कार का ही रहता है। वह उनका नाम तक नहीं लेते या कहें इसके लिए अतिरिक्त सतर्कता बरतते हैं। यदि इन तीनों प्रश्नों का उत्तर न है तो फिर वह वर्षों से ऐसा क्यों करते आ रहे हैं? जब भी मोदी के अधीन किसी काम में गड़बड़ी होती है तो सोशल मीडिया पर उनके तमाम आलोचक तत्काल मखौल उड़ाते हुए कहते हैं कि इसके लिए नेहरू जिम्मेदार हैं, मोदी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। मोदी के सभी वक्तव्यों को याद कीजिए, वह यूं ही दिए गए हों, चुनाव प्रचार की गरमागरमी में दिए गए हों या संसद में। नेहरू का जिक्र बार-बार आता है। ताजा भाषण में 23 बार उनका जिक्र आने से लोगों का ध्यान उस पर गया लेकिन वर्ष 2014 के बाद से अगर मोदी ने हर वर्ष सैकड़ों बार नेहरू का नाम न लिया हो तो मुझे आश्चर्य होगा।उन्होंने तो 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भी नेहरू को घसीट लिया था। उस समय मोदी ने आरोप लगाया था कि नेहरू ने प्रतिष्ठित सेना प्रमुख जनरल के.एस. थिमैया (1957-61) का अपमान किया था। थिमैया कर्नाटक के रहने वाले थे। जब आप मोदी को ताना मारते हुए कहते हैं कि अमुक काम में नेहरू की गलती थी, वह इसका बुरा नहीं मानते। शायद उन्हें भी इस पर यकीन है। भारत के साथ जो भी गलत हुआ और हो रहा है, यानी कश्मीर से लेकर चीन तक और सरकारी कंपनियों से लेकर बेरोजगारी तक, उनकी नजर में सब नेहरू की गलती है। मोदी-शाह की भाजपा का विश्लेषण करते हुए हम पुरानी शैली के विश्लेषक सबसे बड़ी गलती यह करते हैं कि हम पुराने और जाने-पहचाने संदर्भों का प्रयोग करते हैं या कहें कसौटी का इस्तेमाल करते हैं। मोदी-शाह की भाजपा कोई अनूठी पार्टी नहीं है। आप इसे भाजपा, जनसंघ, आरएसएस कुछ भी कहें यह एक हकीकत है। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के अधीन हमें अपवाद देखने को मिला। भारतीय राजनीति पर नजर रखने वाले हम पुराने लोगों की तरह वे भी पुरानी ढब के लोग थे। वाजपेयी इसे समावेशी और उदारवाद कहते। मोदी और शाह की जबान में इसे नेहरूवाद कहा जाता। आरएसएस में बहुत गहरी मान्यता है कि नेहरू सन 1947 में देश का नेतृत्व हासिल करने के काबिल नहीं थे। उन्होंने गांधी और लॉर्ड माउंटबेटन को बहकाया और सरदार वल्लभभाई पटेल को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। और एक बार सत्ता हथियाने के बाद उन्होंने अपने नजरिये वाला गणतंत्र बनाना शुरू किया। उन्होंने सफल योद्धा चंद्रगुप्त मौर्य और कौटिल्य के अर्थशास्त्र की जगह सम्राट अशोक और बुद्ध की शांतिप्रियता को शासन के प्रतीक के रूप में चुना। लब्बोलुआब यह कि नेहरू ने चतुराईपूर्ण ढंग से नए भारत को गैर-हिंदू छवि में ढाला। इससे तमाम दिक्कतें पैदा हुईं। अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण से लेकर सेना की अनदेखी, पश्चिमी विचारों, आर्थिक मॉडल की दासता जैसी बातें इसका उदाहरण हैं। पूरा नेहरूवादी बौद्धिक परिवेश उनके इर्दगिर्द ही बना और सात दशक तक देश की विचार प्रक्रिया पर काबिज रहा। मोदी और शाह तथा उनकी पीढ़ी के भाजपा नेताओं के लिए जो आमतौर पर गैर अंग्रेजीभाषी और गैर पश्चिमी माहौल से उभरे हैं, उनके लिए यह भरोसे का विषय है। इसी कारण मोदी जब एक भाषण में 23 बार नेहरू का जिक्र करते हैं तो यह उनके दिल से निकली बात है।मोदी के लिए यह नेहरू पर ध्यान केंद्रित करने का उपयुक्त समय है। बीते कुछ सप्ताह में प्रकाशित तीन किताबों ने कुछ पुराने सवालों को जिंदा किया है। ताजातरीन किताब है वी पी मेनन, द अनसंग आर्किटेक्ट ऑफ मॉडर्न इंडिया, जिसे लिखा है उनकी परपोती नारायणी बसु ने। यह किताब तमाम दस्तावेजी प्रमाणों के साथ बताती है कि नेहरू ने पटेल को पहली कैबिनेट के सदस्यों की सूची से बाहर रखा था। वह इसके लिए तब राजी हुए जब माउंटबेटन ने हस्तक्षेप किया। नेहरू की प्रशंसात्मक जीवनी लिखने वाले एम जे अकबर ने अपनी नई किताब गांधीज हिंदुइज्म- द स्ट्रगल अगेंस्ट जिन्नाज इस्लाम में काफी शोध और दस्तावेजों के साथ यही बात कही है। इसके साथ ही कांग्रेस नेता जयराम रमेश द्वारा लिखित वी के कृष्ण मेनन की जीवनी को भी शामिल किया जा सकता है जहां नेहरू राष्ट्रीय सुरक्षा और असैन्य-सैन्य रिश्तों के बीच दुविधात्मक रूमानियत के साथ सामने आते हैं। इन दिनों नेहरू और उनके दौर का नए सिरे से आकलन हो रहा है। मोदी इसका फायदा उठाएंगे। परंतु क्या नेहरू को लेकर मोदी की असाधारण आसक्ति यहीं तक सीमित है? वह और आरएसएस जिसे उनके दौर की चूक और अन्याय मानते रहे हैं क्या यह उसे लेकर उनकी सनक भर है? मोदी और शाह के बारे में हम यह जानते हैं कि वे पूरी तरह भावनाओं से संचालित नहीं होते, न ही वे बौद्धिक और राजनीतिक आनंद के लिए पुरानी बहसों को जिंदा करने में वक्त जाया करते हैं। यहां चौथा सवाल पैदा होता है जिसका जिक्र तो हमने किया था लेकिन व्यापक राजनीतिक बहस दूर न हो जाए इसलिए उस पर विस्तार से बात नहीं की। सन 2014 के बाद मोदी के राजनीतिक संदेशों में तीन और बातें निरंतर हैं। पहली बात, वह कभी नेहरू-गांधी परिवार के अन्य सदस्यों पर हमला नहीं करते। वह राजीव गांधी का जिक्र करना जरूरी नहीं समझते। उन्होंने कभी इंदिरा गांधी पर हमला नहीं किया। वह आपातकाल का जिक्र करते हैं लेकिन इंदिरा गांधी का नाम नहीं लेते।इसके पीछे की राजनीति समझना मुश्किल नहीं है। नेहरू-गांधी परिवार के सभी सदस्यों में आज भी इंदिरा गांधी सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। इसे इस बात से समझिए कि उनके पुराने 1, सफदरजंग रोड स्थित आवास पर जिसे उनकी हत्या के बाद स्मारक में बदल दिया गया, वहां आज भी देश भर से बड़ी तादाद में लोग आते हैं, खासतौर पर दक्षिण भारत से बसों में भरकर। दूसरी बात पर मैं अटकल लगा रहा हूं और वह यह कि मोदी शायद गुप्त रूप से उनके प्रशंसक भी हैं। शायद इसलिए कि उन्होंने पार्टी और सरकार पर जबरदस्त नियंत्रण रखा, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें व्यापक प्रतिष्ठा हासिल है और उन्होंने पाकिस्तान के दो टुकड़े किए। शायद यही कारण है कि वह कभी इंदिरा गांधी की आलोचना नहीं करते। दूसरी बात, आप देखेंगे कि मोदी पटेल के अलावा कांग्रेस के अन्य नेताओं की निरंतर तारीफ करते हैं। लाल बहादुर शास्त्री को तो आरएसएस ने काफी हद तक अपने प्रतीक में बदल दिया है। गत गुरुवार के भाषण में भी उनका एक से अधिक बार सकारात्मक तरीके से जिक्र सुनने को मिला।वह राहुल से सीधे कभी नहीं उलझते। उन्हें नाम लेने लायक भी नहीं समझते लेकिन उनकी पार्टी के अन्य नेताओं से जरूर संपर्क करते हैं। अधीर रंजन चौधरी से मित्रवत चुटकी लेना हो या शशि थरूर पर फब्ती कसना, गुलाम नबी आजाद की तारीफ या दिग्विजय सिंह से कविता कहने की होड़ लगाने तक इसके तमाम उदाहरण हैं। यहां तक कि उन्होंने मनमोहन सिंह को महान व्यक्तित्व और विद्वान बताते हुए उनकी सराहना की। तीसरा, वह नेहरू के समकालीन और आलोचक राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं की भी तारीफ करते हैं। हमारे लिए चौथे सवाल का उत्तर यहीं है। सवाल यह कि आखिर मोदी नेहरू-गांधी परिवार के सारे नेताओं में केवल नेहरू पर हमला क्यों करते हैं? एक स्तर पर यह विशुद्ध राजनीति है। वह मानते हैं कि कांग्रेस वंशवाद पर टिकी है जो काफी हद तक नेहरूवादी देन है। यदि वह उसे हटा सकें तो गांधी परिवार का पराभव है। साथ ही उस विचार और पार्टी का भी। अन्य नेताओं, छोटे विपक्षी दलों आदि से वह आसानी से निपट सकते हैं। इस प्रक्रिया में वह अपने और अपने उत्तराधिकरियों के लिए ऐसी जगह भी बना लेंगे जहां भारत को आरएसएस के विचार में ढाला जा सके। नेहरू के भ्रमित अशोकवादी शासन की जगह कौटिल्य के धार्मिक राज्य की तरह।
