'आप' के लिए सत्ता के साथ आंतरिक लोकतंत्र भी जरूरी | सियासी हलचल | | आदिति फडणीस / February 07, 2020 | | | | |
इस बात को लेकर शायद ही कोई संदेह है कि 11 फरवरी को आने वाले चुनावी नतीजों में आम आदमी पार्टी (आप) ही दिल्ली में सरकार बनाने जा रही है। आप सरकार के शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली के क्षेत्र में किए गए प्रयोगों ने दिल्ली के निवासियों खासकर निचले तबके का ध्यान खींचा है। हालांकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सीटें इस बार दोगुनी या फिर तिगुनी भी हो सकती हैं लेकिन वह संख्या भी छह या नौ तक ही पहुंचेगी। कांग्रेस तो इस चुनाव में कोई असर डालने की स्थिति में दिख ही नहीं रही है। लेकिन आप पार्टी मजबूती से लड़ रही है और यही बात हालात को पेचीदा बना रही है।
करीब 30 वर्षों से सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय कमल मित्र चिनॉय 40 वर्षों तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) का सदस्य रहने के बाद वर्ष 2014 में आप से जुड़ गए थे। उन्होंने उस समय भाकपा से इस्तीफा देने की वजह बताते हुए कहा था, 'यह समय भारतीय धर्मनिरपेक्षता के लिए बेहद अहम है। यह कहना आसान है कि आप के पास कोई सिद्धांत नहीं है। ग्राम्शी ने बार-बार इस पर जोर दिया था कि सभी लोग किसी न किसी तरह से बुद्धिजीवी होते हैं। चिनॉय ने अपने एक लेख में कहा था, 'बड़ा फर्क परंपरागत विचारधाराओं का बचाव एवं वैधता देने वाले परंपरागत बुद्धिजीवियों और ताकत के एकाधिकारवादी इस्तेमाल के बीच होता है। वहीं बदलाव और क्रांति के लिए जरूरी माने जाने वाले संगठित बुद्धिजीवी जैसे उनके प्रतिद्वंद्वियों की जड़ें लोकप्रिय आंदोलनों और लोकप्रिय संस्कृति में होती हैं।'
लेकिन इसके दो साल बाद ही चिनॉय ने आप से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने केजरीवाल को लिखे एक व्यक्तिगत पत्र में कहा था कि उन्हें अपनी राह में बदलाव करने की जरूरत है और अपने इर्दगिर्द मौजूद लोगों के गिरोह से आजाद होना होगा। साफ था कि सत्ता का एकाधिकारवादी इस्तेमाल फिर से अपना सिर उठा रहा था। बेहद अजीब बात है कि आम आदमी पार्टी के समर्थक से आलोचक बनने वाले सभी लोग आज उसी बात को थोड़े अपरिष्कृत रूप से कह रहे हैं कि केजरीवाल अपने आसपास मौजूद कुछ लोगों के हाथों में खिलौना बनकर रह गए हैं। इससे एक पेचीदा समस्या खड़ी हो रही है। क्या भारत के सभी दूसरे दलों से अलग होने की मंशा रखने वाले एक लोकतांत्रिक दल के लिए अ-लोकतंत्र ही आधार बन सकता है?
आप ने अपने संक्षिप्त जीवनकाल में खुद को शासन के कई क्षेत्रों में स्थापित कर लिया है। लेकिन पार्टी के भीतर लोकतंत्र के मामले में वह पीछे है। पंजाब में चुनाव, दिल्ली में नगर निगमों के चुनाव हारने के बाद उठे बगावती सुर और प्रशांत भूषण एवं योगेंद्र यादव जैसे वरिष्ठ नेताओं को जिस तरह से पार्टी से निकाला गया, उसने पार्टी के भीतर लोकतंत्र के अभाव को उजागर कर दिया। भूषण, यादव और आनंद कुमार पर आरोप लगा था कि उन्होंने दिल्ली विधानसभा चुनावों में पार्टी की संभावनाओं को धूमिल करने का काम किया था। इस आरोप को सभी नेताओं ने सिरे से खारिज करते हुए कहा था कि वे केवल पार्टी को अधिक लोकतांत्रिक तरीके से चलाने की कोशिश कर रहे थे।
पंजाब में आजाद-खयाल रखने वाले विधायक सुच्चा सिंह छोटेपुर ने 2014 के आम चुनाव के ऐन पहले शिरोमणि अकाली दल छोड़कर आप का दामन थाम लिया था। आप नेताओं का कहना था कि गुरदासपुर में सुच्चा सिंह के भाषण से केजरीवाल काफी प्रभावित हुए थे। आप को पंंजाब विधानसभा के दो उपचुनावों में शिकस्त मिली तो केजरीवाल ने राज्य में पार्टी गतिविधियां चलाने का जिम्मा सुच्चा सिंह को ही सौंप दिया। वैसे सुच्चा सिंह कांग्रेस में भी अमरिंदर सिंह के साथ काम कर चुके हैं। वर्ष 2009 में अमरिंदर उन्हें कांग्रेस के पाले में ले गए थे। उस समय अमरिंदर प्रताप सिंह बाजवा के लिए प्रचार कर रहे थे और बाजवा को जीत दिलाने में सुच्चा सिंह की भी भूमिका स्वीकार की जाती है।
लेकिन सुच्चा सिंह कोई मेहरबान शख्स नहीं हैं। आप कहती है कि सुच्चा सिंह एक वीडियो में नोटों का बंडल लेते हुए नजर आ चुके हैं। लेकिन उनके विरोधी तक यह कहते हैं कि सुच्चा सिंह कई मामलों में गलत हो सकते हैं लेकिन वह भ्रष्ट नहीं हैं। वह कहते हैं कि उन्हें उस समय फंसाया गया जब उन्होंने केजरीवाल और उनके 'गिरोह' का यस मैन बनने से इनकार कर दिया। कभी आप के अंदरूनी तंत्र का हिस्सा रहे और चार दशकों से मनीष सिसोदिया के मित्र रहे कुमार विश्वास ने भी पार्टी छोड़ दी है और अब वह आप के सबसे मुखर आलोचकों में से एक हैं।
समाज-विज्ञानी आनंद तेलतुंबडे कहते हैं कि आप का दिल्ली की सत्ता में वापस लौटना इस बात पर निर्भर करता है कि वह एक 'स्टार्टअप' के तौर पर खुद को फिर से तलाश पाती है या नहीं। इसके लिए उसे खुद को नए सिरे से खड़ा करने के साथ ही अपने 'ग्राहकों' यानी दिल्ली की जनता से माफी भी मांगनी होगी। उनका कहना है कि आप का कारोबारी मॉडल मेट्रो शहरों की नव-उदारवादी पीढ़ी को आकर्षित करता है। यह तबका आदर्शवादी है और भ्रष्ट एवं अक्षम नेताओं के हाथों भारत की क्षमताएं धूसरित होते हुए देखकर व्यथित है।
आप की पूर्व विधायक अलका लांबा कहती हैं कि वर्ष 2017 में हुए नगर निगम चुनावों तक सब कुछ बहुत अच्छा था। लेकिन उस चुनाव में टिकट वितरण को लेकर किसी भी विधायक से सलाह-मशविरा नहीं किया गया और फिर हालात बिगडऩे शुरू हो गए। इस दौरान आशुतोष और आशिष खेतान जैसे कई अहम नेताओं ने भी अंदरूनी लोकतंत्र की कमी का हवाला देते हुए पार्टी छोड़ दी। आप में मतभेद को लेकर आखिरी शब्द अभी कहे नहीं गए हैं। क्या आप अलोकतांत्रिक पार्टी संरचना के दम पर वास्तव में लोकतांत्रिक नतीजे दे सकते हैं? आम आदमी पार्टी को इस विरोधाभास का जवाब तलाशना होगा।
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