विदेशी मुद्रा भंडार की चुनौती | संपादकीय / January 28, 2020 | | | | |
यदि भारतीय रिजर्व बैंक गत वर्ष की गति से विदेशी मुद्रा एकत्रित करता रहा तो देश का विदेशी मुद्रा भंडार जल्दी ही 500 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा। ताजा आंकड़ों के मुताबिक सन 2019 में 60 अरब डॉलर की बढ़ोतरी के साथ यह 462.19 अरब डॉलर के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया। उच्च विदेशी मुद्रा भंडार से जहां बाहरी आर्थिक झटकों से निपटने की भारत की क्षमता में इजाफा होगा, वहीं यदि इस गति से विदेशी मुद्रा आती रही तो घरेलू नीति प्रबंधन काफी जटिल हो सकता है। वर्ष 2019 में विदेशी फंड की आवक में काफी तेजी आई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि विकसित देशों खासकर अमेरिका में मौद्रिकपरिस्थितियां सहज हुईं। चूंकि निकट भविष्य में मौद्रिक परिस्थितियों के समायोजन योग्य रहने की उम्मीद है इसलिए यह अपेक्षा करना उचित ही होगा कि 2020 में भी यह आवक निरंतर जारी रहेगी। शोध दर्शाते हैं कि जहां प्रत्यक्ष विदेशी निवेश घरेलू नीति और नियामकीय माहौल पर निर्भर करता है, वहीं पोर्टफोलियो निवेश काफी हद तक वैश्विक वित्तीय तंत्र में नकदी की उपस्थिति पर निर्भर करता है। चूंकि विदेशी पूंजी की बढ़ी हुई आवक रुपये पर दबाव बढ़ाती है इसलिए आरबीआई द्वारा भारत की व्यापार प्रतिस्पर्धा बरकरार रखने के लिए किया जा रहा हस्तक्षेप उचित है। रुपया इस समय वास्तविक संदर्भों में अधिमूल्यन का शिकार है। बीते कुछ वर्षों में निर्यात में जो ठहराव आया है उसकी एक वजह यह भी है।
हालांकि यह महत्त्वपूर्ण है कि आरबीआई रुपये का अधिमूल्यन न होने दे लेकिन निरंतर हस्तक्षेप से नीतिगत जटिलताएं पैदा हो सकती हैं। उदाहरण के लिए विदेशी मुद्रा को बाजार में समायोजित करने के लिए आरबीआई जो हस्तक्षेप करता है उसका परिणाम घरेलू मुद्रा के इजाफे के रूप में सामने आता है। इससे तंत्र में नकदी बढ़ती है। वर्ष के आरंभ में बैंकिंग तंत्र में 4 लाख करोड़ रुपये से अधिक की अधिशेष राशि थी। अब जबकि मुद्रास्फीति भी रिजर्व बैंक द्वारा तय दायरे के ऊपरी स्तर पर है, लगातार नकदी डालने से मूल्य स्थिरता का उसका लक्ष्य प्रभावित हो सकता है।
अतिरिक्त नकदी के कारण केंद्रीय बैंक बॉन्ड बाजार में भी हस्तक्षेप नहीं कर पा रहा। बल्कि आरबीआई पर यह दबाव भी बन सकता है कि वह अतिरिक्त नकदी की खपत के लिए बॉन्ड की बिक्री करे। इससे प्रतिफल में और इजाफा होगा। इतना ही नहीं आरबीआई की बैलेंस शीट में कम प्रतिफल वाली विदेशी परिसंपत्ति की दिशा में झुकाव उसकी उस आय और अधिशेष पर भी असर डालेगा जो वह सरकार को हस्तांतरित करता है। बढ़े हुए विदेशी मुद्रा भंडार की अपनी अलग लागत होती है। हालात की जटिलता को देखते हुए कहा जा सकता है कि बाहरी पूंजी को लेकर हमारा नीतिगत रुख पहेलीनुमा बना हुआ है। एक ओर आरबीआई बड़ी तादाद में विदेशी मुद्रा खरीद रहा है ताकि रुपये का अधिमूल्यन रोका जा सके, वहीं दूसरी ओर वह विदेशी डेट प्रवाह को भी प्रोत्साहित कर रहा है।
उदाहरण के लिए गत सप्ताह उसने भारतीय बॉन्ड बाजार में विदेशी पोर्टफोलियो निवेश की सीमा में इजाफा कर दिया। इसी तरह गत वर्ष उसने भारतीय कंपनियों द्वारा पूंजीगत आवश्यकता और रुपये में लिए गए ऋण की अदायगी के लिए की गई बाह्य वाणिज्यिक उधारी के अंतिम उपयोग से जुड़े नियमों में ढील दी थी। उच्च रेटिंग वाली भारतीय कंपनियां विदेशों से ऋण लेने को प्राथमिकता देंगी ताकि उन्हें ब्याज दरों में अंतर का लाभ मिल सके। परंतु इन हालात में विदेशी ऋण में इजाफा आर्थिक नीति प्रबंधन पर असर डालेगा। ऐसे में विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति तथा वैश्विक वित्त के स्तर को देखते हुए केंद्रीय बैंक और सरकार के लिए बेहतर यही होगा कि वे इस बात की समीक्षा करें कि देश के लिए किस तरह के विदेशी फंड बेहतर हैं। केवल ब्याज दर के अंतर का लाभ लेने के लिए फंड का इस्तेमाल नीतिगत चुनौतियों में इजाफा कर सकता है।
|