कम न हो हस्तांतरण | संपादकीय / January 27, 2020 | | | | |
हाल के दशकों में राज्य सरकारों के संचालन से जुड़ी जवाबदेहियों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। राज्य सरकारों को जो सेवाएं प्रदान करनी चाहिए और जो वे प्रदान कर सकती हैं उन पर अधिक राजनीतिक जोर दिया जाने लगा है। जाहिर है इसे राज्य सरकारों को मिलने वाली कर हिस्सेदारी में बढ़ोतरी से जोड़कर देखा जाता है। कर ही देश और उसके नागरिकों के बीच जुड़ाव का प्राथमिक जरिया है। जानकारी के मुताबिक 15वें वित्त आयोग के माध्यम से इस परिपाटी को उलटा जा रहा है। इस समाचार पत्र में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्य सरकारों के व्यय के लिए अलग किया जाने वाला टैक्स पूल का 42 फीसदी हिस्सा वास्तव में कम किया जा सकता है। इसमें बांटने वाले पूल में किसी तरह के बदलाव को शामिल नहीं किया गया है। वित्त आयोग की शर्तों में बाद में हुए बदलाव के आधार पर आगे चलकर इसमें भी परिवर्तन कर सकता है। उक्त बदलाव के अनुसार राष्ट्रीय संसाधनों पर रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा की आवश्यकताओं का अलग से दावा होने की बात कही गई है।
चूंकि रक्षा केंद्र सरकार का दायित्व है इसलिए आयोग द्वारा ऐसा करने से यकीनन बांटने लायक पूल में कमी आएगी। यदि राज्यों के एकीकृत हस्तांतरण में कमी के साथ मिलाकर देखें तो यह राशि बहुत ज्यादा होगी और इसके अभाव में राज्यों की जरूरी सेवाएं मुहैया कराने की क्षमता पर असर पड़ सकता है। हमें इस दिशा में आगे नहीं बढऩा चाहिए। आयोग जहां यह दावा कर सकता है कि केंद्र सरकार की खास योजनाओं और पहलों के लिए पहले से आवंटित धन में दावेदारी करके इसकी क्षतिपूर्ति की जा सकती है। परंतु यह पर्याप्त नहीं होगा। राज्य सरकारें लोगों को जरूरी सेवाएं मुहैया कराने के लिए सीधे तौर पर उत्तरदायी हैं। उनके पास यह अधिकार होना चाहिए कि वे जरूरी संसाधन अपने पास रहते हुए शासन संबंधी निर्णय ले सकें। हाल के दशकों में देश की राजनीति कमोबेश इसी दिशा में आगे बढ़ी है। राज्य स्तर के राजनेताओं से उनके मतदाता यही अपेक्षा करते हैं कि वे उन्हें जरूरी सेवाएं मुहैया कराएंगे और यह अपेक्षा गलत भी नहीं है। जाहिर है राज्य सरकारों को मुहैया कराए जाने वाले संसाधनों में यह लोकतांत्रिक गतिशीलता नजर आनी चाहिए।
इसमें दो राय नहीं कि केंद्र सरकार कहेगी कि उसके पास खुद संसाधनों की कमी है। खासतौर पर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) व्यवस्था लागू होने के बाद ऐसा हुआ है। परंतु इसके लिए वह किसी और को दोष नहीं दे सकती। अर्थव्यवस्था के आकार में इजाफा उसकी जवाबदेही है और कर संग्रह में कमी आने की एक अहम वजह आर्थिक वृद्धि में आया ठहराव भी है। राज्य भी जीएसटी को लेकर शिकायत कर सकते हैं। वे कह सकते हैं कि उन्होंने कुछ अप्रत्यक्ष कर जुटाने की अपनी शक्तियां केंद्र को सौंप दीं और हस्तांतरणीय कर पूल में कमी करके तो उन्हें पुरस्कृत नहीं किया जा सकता है।
देश की आम राजनीतिक परिस्थितियों पर गौर करना भी आवश्यक है। हाल के वर्षों में देश के संघीय ढांचे को लेकर कई तरह के तनाव उभरे हैं। कई राज्य सरकारों द्वारा नागरिकता संशोधन अधिनियम को लागू करने के प्रति अनिच्छा इसका केवल एक उदाहरण है। अन्य उदाहरणों की बात करें तो अलग-अलग जनांकीय दबाव और देश के भौगोलिक क्षेत्र में सापेक्षिक राजनीतिक शक्ति में बदलाव भी हमारे सामने हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि राज्यों को अधिक वित्तीय संसाधन आवंटित करने की दशकों लंबी गतिशील प्रक्रिया में बदलाव करना राष्ट्रीय हित में नहीं होगा। इसे समझदारी नहीं माना जा सकता है।
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