पश्चिम एशिया में अमेरिकी वर्चस्व को चीन की चुनौती | हर्ष वी पंत / January 24, 2020 | | | | |
ईरान संकट के बाद पश्चिम एशिया में फिर से तनाव का माहौल बन चुका है। चीन इसका लाभ उठाते हुए अमेरिका के क्षेत्रीय वर्चस्व को चुनौती दे सकता है। बता रहे हैं हर्ष वी पंत
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके नेता शी चिनफिंग के लिए गुजरा साल एक से अधिक कारणों से बदतर रहा है। इस दौरान चीन को गिरती आर्थिक वृद्धि और बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) से जुड़ी अड़चनों के साथ हॉन्गकॉन्ग संकट से भी जूझना पड़ा। चीन के प्रति न केवल डॉनल्ड ट्रंप की अगुआई वाले अमेरिकी प्रशासन बल्कि पश्चिमी देशों का व्यापक नजरिया भी बदला है। वे चीन पर लगातार आर्थिक दबाव डालते हुए उससे संतुलित संबंधों की मांग करते रहे हैं। हालांकि अमेरिका और चीन के बीच गत दिसंबर में सहमति बनने के बाद द्विपक्षीय व्यापार करार पर 15 जनवरी को हस्ताक्षर किए गए। इस करार में चीन ने अगले दो वर्षों में अमेरिका से 200 अरब डॉलर मूल्य के अतिरिक्त कृषि उत्पाद और अन्य वस्तुएं एवं सेवाएं खरीदने का संकल्प जताया है। यह आंकड़ा वर्ष 2017 में व्यापार युद्ध छिडऩे के समय से अधिक है। फिर भी अमेरिकी बाजार में चीनी उत्पादों की आपूर्ति सीमित करने की कोशिश के तहत लगाए गए कई शुल्कों को बनाए रखा गया है।
इसके पहले जब चीन ने यह सोचा होगा कि हालात इससे बुरे नहीं हो सकते, उसी समय ट्रंप ने पश्चिम एशिया में संकट खड़ा कर चीन को नए साल का तोहफा दे दिया। अमेरिका ने ईरानी रिवॉल्युशनरी गॉड्र्स की विशिष्ट इकाई कुद्स फोर्स के प्रमुख कासिम सुलेमानी को निशाना बनाया तो अमेरिका और ईरान के बीच पिछले कुछ वर्षों का सबसे बड़ा टकराव पैदा हो गया। इसके बाद पहले से ही तमाम समस्याओं से जूझ रहे पश्चिम एशिया में तनाव काफी बढ़ गया। अमेरिका में इस साल आसन्न राष्ट्रपति चुनाव को देखते हुए ट्रंप ने चीन को अपनी विदेश नीति उपलब्धियों के केंद्र में रखा हुआ है। उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों को भी यह मानने को मजबूर कर दिया है कि चीन की तरफ अमेरिका के परंपरागत रवैये में समस्या रही है। चीन पर एक व्यापक बहस हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की बदलती क्षेत्रीय प्राथमिकताओं पर भी गौर करना होगा।
बराक ओबामा के समय एशिया को दी गई महत्ता के उलट ट्रंप की एक स्वतंत्र एवं मुक्त हिंद-प्रशांत अवधारणा संभावनापूर्ण है भले ही इसे एक ठोस नीतिगत परिप्रेक्ष्य न मिला हो। लेकिन अभी पश्चिम एशिया में नया संकट पैदा होने के बाद अमेरिका को इस क्षेत्र में अधिक तवज्जो देना होगा। इससे एक बार फिर चीन को थोड़ी राहत मिल जाएगी जो हिंद-प्रशांत में अपनी सैन्य एवं आर्थिक मौजूदगी बढ़ाने में लगा हुआ है। पश्चिम एशिया में खुद अमेरिका भी अपनी प्रासंगिकता के लिए जद्दोजहद करता नजर आ रहा है। वहीं चीन भी इस क्षेत्र में अपने कदम बढ़ाता जा रहा है। अमेरिका के उलट चीन के ताल्लुकात ईरान के साथ-साथ अरब देशों और इजरायल से भी अच्छे हैं। चीन न केवल ईरान का तीसरा बड़ा सैन्य सहयोगी और इसका सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है बल्कि वह ईरान के साथ द्विपक्षीय सहयोग का दायरा बढ़ाने की संभावनाएं भी तलाश रहा है। पिछले महीने ही चीन-ईरान-रूस ने सामरिक रूप से अहम हरमुज जलडमरुमध्य में संयुक्त नौसैनिक अभ्यास किया था। चीन ने ही ईरान को वह कवच दिया हुआ है जिसकी ओट में वह वैश्विक प्रतिबंधों के बावजूद अपनी सैन्य क्षमताओं का विकास करता रहा है।
चीन ने ईरानी सैन्य कमांडर के खिलाफ कार्रवाई की त्वरित निंदा करते हुए इसे अमेरिका की 'सैन्य जोखिम कार्रवाई' बताया। चीन ने अपनी प्रतिक्रिया में इस हमले को 'अंतरराष्ट्रीय संबंधों को तय करने वाले बुनियादी मानकों के खिलाफ' बताते हुए कहा कि इससे क्षेत्र में तनाव एवं अशांति बढ़ेगी। दूसरी तरफ ईरान ने उम्मीद जताई कि पश्चिम एशिया में तनाव बढऩे से रोकने में चीन अहम भूमिका निभा सकता है। यह अलग बात है कि चीन ने अभी तक अमेरिका के खिलाफ सीधे मुकाबले में उतरने से परहेज किया है। हालांकि उसने अमेरिका के एकपक्षीय रवैये की आलोचना करने के साथ ईरान के परमाणु कार्यक्रम का बचाव भी किया है।
असलियत यह है कि चीन ने पिछले साल अमेरिकी प्रतिबंधों की छूट सीमा खत्म होने के बाद नाटकीय रूप से ईरानी तेल का आयात कम भी कर दिया है। ईरान के तेल आयात पर अमेरिकी प्रतिबंध लगने के पहले चीन ईरान से तेल आयात करने के मामले में सबसे आगे था। लेकिन प्रतिबंधों में छूट खत्म होने के बाद चीन उससे तेल आयात करने में हिचकिचाहट दिखा रहा है। चीन को यह लग रहा है कि कहीं ईरान से तेल आयात करने पर अमेरिका इसे प्रतिबंधों का उल्लंघन न मानने लगे। ईरान से तेल आयात का बिल भुगतान भी ईरान के तेल एवं गैस क्षेत्र में निवेश करने वाली चीनी कंपनियों के बकाया कर्ज के निपटारे में लगाया जा रहा है।
अमेरिका ने बीते कई दशकों से पश्चिम एशिया में अपना दबदबा कायम रखा है। वर्ष 1980 में पूर्व राष्ट्रपति जिमी कार्टर द्वारा प्रतिपादित कार्टर सिद्धांत में साफ तौर पर कहा गया है कि फारस की खाड़ी के तेल क्षेत्रों को किसी भी बाहरी खतरे से सुरक्षित रखने के लिए अमेरिका प्रतिबद्ध है। ऐसे संकेत दिख रहे हैं कि ट्रंप एक बार फिर से दशकों पुराने इस सिद्धांत की तरफ लौट सकते हैं। लेकिन उन्होंने एक बार फिर अमेरिका की क्षेत्रीय भूमिका से जुड़ी बहस को केंद्रीय मंच पर ला खड़ा किया है। पश्चिम एशिया में चीन के बढ़ते असर को देखते हुए ऐसे हालात दिख रहे हैं कि अमेरिका और चीन के बीच इस क्षेत्र को लेकर प्रतिस्पद्र्धा छिड़ जाए। अमेरिका के हालिया कदमों को देखें तो पश्चिम एशिया में चीन की ताकत और प्रभाव बढऩे की ही संभावना दिख रही है क्योंकि वह अपने क्षेत्रीय हितों को सुरक्षित रखने के लिए अधिक जिम्मेदारी की तलाश में है।
फिर भी अभी तक ऐसा कोई सबूत नहीं है कि चीन पश्चिम एशिया में अमेरिका की भूमिका को चुनौती देने की मंशा रखता है। असल में, चीन यह सुनिश्चित करना चाहेगा कि तमाम बयानबाजी के बावजूद वह इस क्षेत्र में बहुत सक्रिय न दिखे। यह समय चीन के लिए कुछ वर्षों से कमजोर चल रहे ऊर्जा ढांचे को मजबूत करने का एक और मौका देता है। पश्चिम एशिया में लड़ी गई लड़ाइयों ने अमेरिकी ताकत को कमजोर किया है जबकि चीन को साहस प्रदान किया है। चीन यही उम्मीद कर रहा होगा कि इतिहास एक बार फिर खुद को दोहरा सकता है।
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन नई दिल्ली के शोध निदेशक और किंग्स कॉलेज लंदन में अंतरराष्ट्रीय संबंध के प्रोफेसर हैं)
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