सामाजिक एवं राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक वृद्धि | नितिन देसाई / January 21, 2020 | | | | |
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गत जुलाई में जब अपना पहला बजट पेश किया था तो तमाम दूसरे विश्लेषकों की तरह इस लेखक ने भी आर्थिक चिंताओं की एक सूची तैयार की थी। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर में तीव्र गिरावट, राजकोषीय दबाव, दोहरी बैलेंस शीट की समस्याएं, गैर-बैंकिंग वित्त कंपनियों (एनबीएफसी) को पेश आ रही मुश्किलें, रोजगार सृजन की सुस्त रफ्तार, छोटी इकाइयों एवं कृषि क्षेत्र में व्याप्त तनाव, कारोबारी लड़ाइयां और वैश्विक वृद्धि चालकों में सुस्ती जैसे बिंदुओं को उस सूची में रखा गया था। लेकिन आज भी हालात जस के तस हैं और कुछ समस्याएं तो और भी गंभीर हो गई हैं।
हालांकि अब सरकार इन मुश्किलों की मौजूदगी स्वीकार करने के लिए कहीं अधिक तैयार है और खुद प्रधानमंत्री बजट प्रक्रिया की सीधी बागडोर संभालते हुए नजर आ रहे हैं। वैसे यह सरकार अपनी आर्थिक नीति को दिशा देने में भी अर्थशास्त्र की तुलना में नाट्यशास्त्र पर अधिक यकीन करती है लिहाजा हम वृद्धि तेज करने के लिए नाटकीय एवं अप्रत्याशित उपायों की उम्मीद कर सकते हैं। लेकिन इस समय हमें क्या इसी की जरूरत है?
दीर्घावधि वृद्धि की बुनियाद निवेशकों के उस विश्वास पर टिकी होती है जो उन्हें देश के सामाजिक एवं राजनीतिक परिवेश की स्थिरता को लेकर होता है। विदेशी निवेशकों के मामले में तो यह बात खास तौर पर सही है। इस मोर्चे पर हालात गत जुलाई के बाद काफी बदले हैं। देश का राजनीतिक एवं सामाजिक वातावरण नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) लाने के लिए चलाए गए अभियान और आने वाले दिनों में राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी (एनपीआर) एवं राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) लाए जाने की चर्चाएं सत्ताधारी दल की तरफ से दी जा रही तमाम सफाई के बावजूद डर एवं संदेह पैदा कर रही हैं।
नागरिकता से संबंधित प्रस्तावों के खिलाफ दी जा रही दलीलें इसके आर्थिक प्रभावों पर आधारित न होकर संविधान में निहित धर्मनिरपेक्ष भारत के विचार को दी जा रही चुनौती पर आधारित हैं। पिछले 70 साल से धर्मनिरपेक्ष भारत के ही तौर पर लोग इस देश को देखते रहे हैं। ऐसे में यह महज दुर्घटना नहीं है कि संप्रदायवाद के खिलाफ इस प्रतिरोध की अगुआई कर रहे युवा संविधान की प्रस्तावना का पाठ कर रहे हैं।
संप्रदायवाद और भेदभाव के आरोपों पर जोर-शोर से चर्चा होती रही है। इसे देखने का एक तरीका यह है कि सीएए कानून उन कथित अवैध प्रवासियों पर लागू होगा जो 2014 से पहले भारत आ चुके हैं। सीएए बुनियादी तौर पर आम-माफी देने वाला कानून है। पहले भी अवैध शरणार्थियों की समस्या से जूझ रहे कई देशों ने उन्हें वापस न भेज पाने पर ऐसी छूट देकर नागरिकता दी है। अमेरिका ने भी 1986 में रीगन के कार्यकाल में ऐसी माफी दी थी। लेकिन सीएए कानून के जरिये दी जा रही छूट साफ तौर पर विभेदकारी है क्योंकि यह मुस्लिमों को छूट से बाहर कर देता है।
अभी यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि इस कानून पर उच्चतम न्यायालय का रुख क्या होगा? लेकिन यह समझा जा सकता है कि इतने सारे लोग इस कानून को समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन क्यों मान रहे हैं? इस कानून ने केंद्र एवं कई राज्य सरकारों के बीच तनातनी की स्थिति भी पैदा कर दी है जो उच्च वृद्धि पथ के लिए जरूरी माने जाने वाले सहकारी संघवाद की संभावनाओं को सीमित करता है।
जीएसटी परिषद में आम सहमति से फैसले लिए जाने की स्थापित परंपरा से अलग होने को इस दिशा में पहले संकेत के तौर पर देखा जा सकता है। अगर केंद्र एवं राज्यों के बीच तनातनी की स्थिति और बिगड़ती है तो हम आर्थिक नीति के अन्य क्षेत्रों में भी सहकारी संघवाद की सोच से भटकाव देख सकते हैं। यह निवेश निर्णयों के अलावा आर्थिक वृद्धि को भी प्रभावित करेगा।
नागरिकता निर्धारण संबंधी प्रस्तावों ने देश भर में छात्रों की अगुआई में विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया है। प्रदर्शनों के प्रति अधिकारियों के कुछ हद तक एकतरफा रवैये और प्रदर्शनकारियों पर हिंसात्मक जवाबी हमलों के प्रति बरती जा रही सहिष्णुता सड़कों पर टकराव और हिंसा बढऩे का सबब बन सकता है। ऐसी स्थिति सार्वजनिक अव्यवस्था का माहौल पैदा करेगी जिससे निवेशक पैसे लगाने को लेकर भयभीत होंगे। खासकर देश के उत्तरी राज्यों में करोड़ों नए रोजगार पैदा करने की जरूरत है।
नागरिकता संबंधी इन प्रस्तावों को लागू करने से जमीनी स्तर पर व्यापक गतिरोध पैदा होगा और अगर 2005 के बाद असम में लागू हुए एनआरसी के अनुभव को आधार बनाएं तो इस कवायद का खासा आर्थिक प्रभाव भी होगा। असम में एनआरसी लागू हुआ तो उससे देश की महज तीन फीसदी ही प्रभावित हुई लेकिन इसे अंजाम देने में करीब एक दशक का वक्त लग गया। इस काम में 50,000 से अधिक सरकारी कर्मचारी लगे और 1,200 करोड़ रुपये से भी अधिक की लागत आई।
सरकार ने अब कहा है कि उसका एनआरसी को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने का कोई इरादा नहीं है लेकिन यह सत्तारूढ़ पार्टी के चुनाव घोषणापत्र का हिस्सा रहा है और उसके तमाम नेता इस बात को पूरी शिद्दत से कहते आए हैं। बहरहाल डर यह है कि एनआरसी और एनपीआर एक ही काम अंजाम देने के लिए हैं और इनका वैसा ही असर होगा जैसा असम में एनआरसी लागू करने पर हुआ है।
बड़ी समस्या गरीब लोगों पर पडऩे वाले प्रभाव को लेकर है। इनमें से कई लोग अपनी नागरिकता साबित करने के लिए जरूरी दस्तावेज नहीं पेश कर पाएंगे जिसके बाद उनकी जिंदगी भारत की नागरिकता साबित करने में ही उलझ जाएगी। अधिकार समूह राइट्स ऐंड रिस्क एनालिसिस ग्रुप (आरआरएजी) ने असम में एनआरसी से बाहर रखे गए लोगों के बीच एक छोटा सर्वेक्षण कर उन पर पड़े आर्थिक बोझ का जायजा लिया।
सर्वेक्षण में शामिल 62 लोगों ने नागरिकता विवाद से संबंधित सुनवाई में शामिल होने पर औसतन प्रति व्यक्ति 19,065 रुपये खर्च किए थे। यह हमारी औसत प्रति व्यक्ति आय का करीब 15 फीसदी है और एक गरीब व्यक्ति की आय का बड़ा हिस्सा है। इस सर्वेक्षण के मुताबिक, उनमें से कई लोगों को इसके लिए अपनी कृषि भूमि गिरवी रखने, मवेशी और कृषि उपज/बगीचा बेचने, ऑटो रिक्शा जैसा आय का इकलौता साधन भी बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा। कई लोगों को तो इसके लिए कर्ज भी लेना पड़ा।
इसके अलावा दूरदराज के इलाकों में रहने वाले लोगों को एनआरसी सेवा केंद्र तक पांच-दस बार जाने से जुड़ी चुनौतियां भी थीं। इस सर्वेक्षण में उन लोगों को शामिल नहीं किया गया जिन्हें अपने दम पर विदेशी अधिकरण में बचाव करना पड़ा जिस पर अमूमन एक-डेढ़ लाख रुपये तक का खर्च आया।
असम में 1994-2005 के दौरान गरीबी दर 52 फीसदी से कम होकर 34 फीसदी पर आ गई थी लेकिन उसके बाद एनआरसी प्रक्रिया शुरू होने पर यह राज्य गरीबी के खिलाफ जंग में पिछडऩे लगा। वर्ष 2012 में अधिकांश राज्यों ने 10 फीसदी तक का सुधार दिखाया था, वहीं असम की गरीबी दर में केवल दो फीसदी की गिरावट आई। उस समय देश की अर्थव्यवस्था उछाल पर थी। क्या इसका यह मतलब है कि असम में एनआरसी शुरू होने से यह व्यवधान आया?
सरकार को यह तय कर लेना होगा कि विकास उसकी प्राथमिकता है या नहीं। अभी उच्च वृद्धि और पांच वर्षों में पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था काफी मुश्किल लग रही है। लेकिन अगर यह अपने नागरिकता प्रस्तावों पर आगे बढ़ती है तो इससे केंद्र एवं राज्यों के बीच तनातनी, सामाजिक वैमनस्य और गरीबों की जिंदगी पर असर देखने को मिलेंगे। इस स्थिति में उसे विकास लक्ष्यों को तिलांजलि देनी होगी। सत्ताधारी दल को स्वीकार करना चाहिए कि गत 70 वर्षो में भारत एक धर्मनिरपेक्ष एवं उदार लोकतंत्र बना है और इसके आम नागरिकों के मन में यह संकल्पना गहराई तक पैठी हुई है। भारत को लेकर अंतरराष्ट्रीय जगत की छवि भी कुछ ऐसी ही है।
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