गहरी साजिश के दिख रहे लक्षण | आदिति फडणीस / January 20, 2020 | | | | |
करीब एक वर्ष पहले 14 फरवरी को देश उस समय स्तब्ध रह गया था जब 350 किलोग्राम विस्फोटक से भरे एक एसयूवी वाहन ने केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवानों को ले जा रही एक बस को पुलवामा में टक्कर मार दी। इस हमले में 44 जवान मारे गए। इस हमले की कई गुत्थियां आज भी अनसुलझी हैं। यह बस सीआरपीएफ के 78 वाहनों के काफिले में शामिल थी। तो फिर उस खास बस को ही क्यों चुना गया? यह एसयूवी कहां से आई और इसे खरीदने के लिए पैसे किसने दिए? बारहवीं की परीक्षा देने जा रहे 22 साल के आदिल अहमद डार को किसने इस हमले के लिए प्रेरित किया? सबसे बड़ी बात कि 350 किग्रा विस्फोटक कहां से आया? इसमें किसने मदद की और किसी की जानकारी के बिना इतनी भारी मात्रा में विस्फोटक कैसे जमा हुआ?
उस समय देश के चुनाव का बुखार छाया हुआ था। बालाकोट पर हुआ सर्जिकल हमला ऐसा जवाब था जिससे साबित हुआ कि देश में दमदार सरकार है और इससे विपक्ष पूरी तरह रक्षात्मक हो गया। कई विश्लेषकों का मानना है कि नरेंद्र मोदी सरकार इसी निर्णायक कार्रवाई के दम पर सत्ता में लौटी थी। लेकिन कई सवालों के जवाब अब भी नहीं मिला है। पुलवामा हमला हाल के दिनों में सुरक्षा बलोंं पर सबसे बड़ा आतंकी हमला है। अब जम्मू-कश्मीर पुलिस के अधिकारी दविंदर ङ्क्षसह की गिरफ्तारी से यह मामला एक बार फिर सुर्खियों में हैं। खासकर, हमलावर का साथ देने वालों की भूमिका को लेकर।
पुलिस ने 11 जनवरी को 57 साल के पुलिस उपायुक्त दविंदर सिंह को कुलगाम के मीर बाजार से हिजबुल मुजाहिदीन के दो आंतकवादियों नवीद बाबा और अल्ताफ के साथ गिरफ्तार किया। उनके साथ एक वकील भी था जो आतंकवादी संगठनों के लिए काम करता है। सिंह को 13 जनवरी को निलंबित कर दिया गया क्योंकि उसको हिरासत में 48 घंटे हो चुके थे। अब इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है कि आखिर सिंह उन लोगों की संगत में कैसे पहुंच गया, जिन्हें पकडऩे की जिम्मेदारी उस पर थी। उस पर आतंकवाद और पुलवामा हमले में भी शामिल होने के आरोप लगने लगे। हालांकि आतंकवादरोधी विशेषज्ञों का कहना है कि इस आरोप में ज्यादा दम नहीं है क्योंकि पुलवामा हमले से करीब छह महीने पहले ही उसका वहां से तबादला कर दिया गया था। चूंकि आरडीएक्स एक अस्थायी विस्फोटक है, इसलिए इसका लंबे समय तक भंडारण नहीं किया जा सकता है।
कश्मीर में रह चुके 1976 बैच के भारतीय पुलिस सेवा सेवा (आईपीएस) के असम-मेघालय काडर के अधिकारी कुलबीर कृष्णन ने कहा कि समस्या व्यवस्थागत है। उन्होंने कहा, 'आप एक गलत आदमी के लिए जम्मू-कश्मीर के 60 हजार पुलिसकर्मियों को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं। लेकिन यह साफ है कि सिंह के पीछे किसी का हाथ है, अन्यथा आप इतने लंबे समय तक लगातार काम नहीं कर सकते हैं। जो भी उनकी मदद कर रहे थे, चाहे वे पुलिस अधिकारी हैं, राजनेता हैं या प्रशासन में बैठे अधिकारी हैं, उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।'
सच्चाई यह है कि आंतकवादियों से लडऩे के लिए आतंकवादियों का इस्तेमाल एक आंतकवादी निरोधक रणनीति है। यह बहुत पुरानी रणनीति है। पंजाब के दिग्गज पुलिस अधिकारी केपीएस गिल ने राज्य में यही रणनीति अपनाई थी जब भारत ने उग्रवादी संगठनों के बीच फूट डालने के लिए खालिस्तान लिबरेशन फोर्स की मदद की थी। पूर्वोत्तर में कई पुलिसकर्मी विद्रोही बन गए थे। मेघालय में एक पुलिकर्मी ने गारो नैशनल लिबरेशन आर्मी बनाई थी। चैंपियन संगमा और उनके 'आर्मी चीफ' सोहन डी शीरा सशस्त्र गतिविधियां चलाते थे और पैसों की उगाही करते थे। संगमा को बांग्लादेश के अधिकारियों ने पकड़कर सीमा सुरक्षा बल के हवाले किया था। शीरा एक मुठभेड़ में मारा गया।
आतंकवादरोधी विशेषज्ञों का कहना है कि सशस्त्र समूहों को हथियार, पैसा और दूसरी सुविधाएं देना आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में जायज गतिविधि का हिस्सा है। संभव है कि सिंह ने ऐसी ही शुरुआत की हो और फिर अपना दायरा बढ़ाया हो। जम्मू-कश्मीर में जब गुलाम नबी आजाद/मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार थी तो उस समय सिंह सुर्खियों में आया था। उस समय एक महिला ने जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में गुहार के खिलाफ उगाही करने का आरोप लगाया। उसका आरोप था कि सिंह ने उसके पति को बंधक बना रखा है और उसकी रिहाई के लिए पैसे मांग रहा है। न्यायालय ने सिंह को फटकार लगाई। लेकिन कुछ ही महीनों में सिंह को प्रोन्नत कर दिया गया। इस मामले की जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी के हवाले की गई है जिसे आरोपपत्र तैयार करने में चार महीने का समय लग सकता है। तब तक सिंह को कठघरे में खड़ा करने से बचा जाना चाहिए। लेकिन बीमारी व्यवस्थागत है, सिंह तो केवल उसका लक्षण है।
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