बहुसंख्यकवादी एजेंडे से कमजोर होगा देश | श्याम सरन / January 16, 2020 | | | | |
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रों और शिक्षकों के खिलाफ गत 5 जनवरी को जो हिंसा की गई, उसे अंजाम देने वालों ने भले ही नकाब पहन रखे थे लेकिन उनका राजनीतिक और वैचारिक रुझान छिप नहीं सका। दरअसल यह हमला शैक्षणिक संस्थानों, नागरिक समाज और अल्पसंख्यकों को सोचा समझा संदेश था कि यदि वे भारतीय राज्य और समाज के नए बन रहे बहुसंख्यक ढांचे का विरोध करेंगे तो उनका यही हश्र किया जाएगा।
जेएनयू में जो हुआ वह पहले जामिया और उसके बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में घटी घटनाओं का विस्तार था। जामिया और अलीगढ़ के बाद इन घटनाओं ने समूचे उत्तर प्रदेश को अपनी चपेट में ले लिया था। प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कहा कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) का विरोध करने वालों से बदला लिया जाएगा। इन सभी घटनाओं में यह देखा गया कि लोगों की संपत्ति और उनके जीवन की रक्षा के लिए बनी सरकारी मशीनरी हिंसा भड़कने पर खामोश बनी रही।
खासकर उन लोगों के खिलाफ हुई हिंसा में जो सत्ता के वैचारिक और राजनीतिक एजेंडे के खिलाफ हैं। असहमति को लेकर सरकार की प्रतिक्रिया में एक तरह की निष्ठुरता देखने को मिली जो परेशान करने वाली है। हालिया अतीत में हमने देखा है कि इस तरह का ध्रुवीकरण राजनीतिक लाभ दिला सकता है। परंतु यह एक खतरनाक खेल है जो देश के भविष्य पर बुरा असर डाल सकता है।
धार्मिक और वैचारिक आधार पर हो रहा धु्रवीकरण अक्सर एक दूसरे में गुंथ जाता है। मुस्लिम अल्पसंख्यक वर्ग और वाम धड़े को एक साथ राष्ट्रीय हित के खिलाफ माना जा रहा है। जामिया और एएमयू में और बाद में समूचे उत्तर प्रदेश और जेएनयू में जिस तरह कानून व्यवस्था कायम करने वाली मशीनरी का रुख समझौतापरक रहा वह आगे चलकर मोदी सरकार के समक्ष प्रतिरोध बढ़ाएगी। गैर भाजपा शासित राज्यों में ऐसा प्रतिरोध जोर पकड़ेगा। यह हो रहा है और सरकार के लिए बेहतर यही होगा कि वह इस समस्या से समझदारी से निपटे। यदि वह ऐसा नहीं करती है तो इससे विपक्ष का विस्तार होगा और कुछ तत्त्व प्रतिक्रिया स्वरूप हिंसा का सहारा भी ले सकते हैं। तब सुरक्षा की दृष्टि से बल प्रयोग बढ़ाना अनिवार्य हो जाएगा। इस दौरान नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों पर भी रोक लगेगी।
खतरा यह है कि इस प्रक्रिया में देश का लोकतंत्र खतरे में पड़ेगा। यदि असहमति और ङ्क्षहसा इसी प्रकार बढ़ती रही तो यह एक बड़ी त्रासदी होगी। इससे हिंसा बढ़ेगी और देश बाहरी ताकतों के समक्ष कमजोर पड़ेगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अतीत में चीन ने पूर्वोत्तर की अशांति का इस्तेमाल करते हुए भारत की सुरक्षा को कमजोर किया। पाकिस्तान ने पंजाब और कश्मीर में राजनीतिक अशांति का लाभ लिया। यदि देश के हृदयस्थल में राजनीतिक संकट उत्पन्न होता है तो देश की राष्ट्रीय सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा उत्पन्न होगा। सीमाओं की सुरक्षा की चुनौती तब और बढ़ेगी।
वाम चरमपंथ से निपटने का उदाहरण भी हमारे सामने है जहां राज्य सत्ता द्वारा अत्यधिक बल प्रयोग के बावजूद केवल सीमित सफलता हासिल हुई। राज्य द्वारा हथियारबंद दमन हिंसा फैलाने वालों तक ही सीमित नहीं रहता। अपनी प्रकृति के अनुसार ही यह एक बड़ी आबादी को अपनी चपेट में ले लेता है। इससे हिंसक प्रतिरोध कम होने के बजाय बढ़ता है। ऐसी अशांति को खत्म करने के लिए हमेशा संवाद ही काम आया है और यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही संभव हुआ।
जम्मू कश्मीर का संवैधानिक दर्जा बदलने के बाद लगातार छठे महीने एक तरह की बंदी लागू है। ऐसे में देश के अन्य हिस्सों में संभावित घटनाक्रम को लेकर सचेत होने की आवश्यकता है। असंतोष को वैमनस्य में बदलने देना समझदारी नहीं होगा।
सरकार के भीतर यह अनकहा भरोसा विद्यमान है कि उसके बहुसंख्यकवादी एजेंडे का अंतरराष्ट्रीय नीति पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा। भारत एक बड़ी शक्ति और तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था वाला देश है। वह अपने मित्रों और शत्रुओं दोनों जगह आलोचना करने वाली आवाज को खामोश करने की ताकत रखता है। यह भरोसा गलत है। पहली बात तो यह कि भारतीय अर्थव्यवस्था को राजनीतिक उथलपुथल से बचाया नहीं जा सकता है।
अल्पसंख्यकों की बढ़ती नाराजी और क्रोध इस पर अपना असर डालेंगे। अर्थव्यवस्था की मौजूदा मंदी देश के विभिन्न हिस्सों में बढ़ती अशांति के असर में और गंभीर होगी। ऐसे में विदेशी निवेशकों के रुझान पर नकारात्मक असर होगा। ऐसे में हमारे लिए कूटनयिक गुंजाइश भी कम होगी।
भारत ने बीते सात दशक में बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक और बहुभाषी विविधतापूर्ण लोकतंत्र के रूप में जो राजनीतिक पूंजी जुटाई है उसके लिए भी कतई सराहना की कोई भावना नहीं है। व्यापक आर्थिक और सैन्य क्षमताओं से जो क्षमता हासिल हुई है उसे बल प्रदान करने का काम हमारा सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव करता है। प्रधानमंत्री मोदी के दूसरे कार्यकाल के आरंभ के बाद घटी घटनाओं जिनमें कश्मीर का संवैधानिक दर्जा बदलना, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण संबंधी निर्णय और अब सीएए शामिल है, ने देश के बाहर एक नकारात्मक अवधारणा बनाने का काम किया है।
जेएनयू जैसी घटनाएं इस छवि को और बिगाड़ेंगी। दूसरे देशों के नागरिक समाज और मीडिया से भारत पर दबाव आ सकता है। इसके साथ ही वे हमारे मित्र और शत्रु देशों की सरकारों को यह अवसर प्रदान करेंगी कि वे भारत की कीमत पर लाभ ले सकें। इससे भी हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा उत्पन्न होगा।
एक विभाजित देश, असुरक्षित भी होता है। जबकि विविध लोगों से बना एकजुट देश एक समावेशी राष्ट्र का निर्माण करता है। मौजूदा राजनीतिक प्रतिष्ठान के नेतृत्वकर्ता चाहे वे केंद्र के हों या राज्य के, उन्हें यह समझना होगा कि उनकी विभाजनकारी नीतियां देश की राष्ट्रीय सुरक्षा और बेहतरी के खिलाफ खतरनाक हो सकती हैं। उन्हें यह समझना होगा कि उनकी नीतियां देश के अल्पसंख्यकों, नागरिक समाज और कारोबारी जगत के मन में गहरा भय और आशंका पैदा कर रही हैं। सरकार को उन्हें आश्वस्त करना होगा। यदि ऐसा नहीं किया गया तो भारत धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था से निपटने और जटिल और तेजी से बदलते भूराजनीतिक परिदृश्य में प्रभावी नहीं रह जाएगा।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो हैं)
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