खूब नजर आने वाले कारोबारियों की सुनाई नहीं देती आवाज | कनिका दत्ता / January 14, 2020 | | | | |
भारत में कारोबार की स्थिति में कुछ बातें अवास्तविक हैं और पिछले सप्ताह मंगलवार के समाचारपत्रों से बेहतर इसे कुछ भी बयां नहीं कर पाता है। समाचारपत्रों में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के भीतर घुसकर मारपीट करने वाले नकाबपोश गुंडों के हमले से जुड़ी खबरें छाई हुई थीं। इन तस्वीरों के ठीक उलट एक और तस्वीर छपी थी जिसमें प्रधानमंत्री के साथ खड़े उद्योगपतियों का एक समूह नजर आ रहा था। ये सभी पुरुष एवं बुजुर्ग उद्योगपति अर्थव्यवस्था को मुश्किल स्थिति से बाहर निकालने के मुद्दे पर बुलाई गई बैठक में शामिल थे।
पिछले कुछ दिनों में बॉलीवुड हस्तियों के एक तबके ने जेएनयू में हुई हिंसा के खिलाफ खुलकर आवाज उठाई है। नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) पारित होने और जल्द ही देश भर में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) की घोषणा भी विवादों में है। ये दोनों मुद्दे एक-दूसरे से जुड़े हुए नहीं हैं लेकिन उन्हें एक साथ जोड़कर नागरिक समाज के खिलाफ निष्ठुर बहुसंख्यकवाद के विरोध की बुलंद आवाज बना दिया गया है।
वैसे यह अजीब है कि किसी ने भी यह सवाल नहीं उठाया कि हमारा कारोबारी समुदाय दिखाई देने के बावजूद सुनाई क्यों नहीं दे रहा है? आखिरकार भारत के सबसे ताकतवर शख्स प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक उनकी पहुंच किसी भी अभिनेता, लेखक, गायक या डांसर से कहीं अधिक है।
गत 12 दिसंबर को सीएए पर राष्ट्रपति के दस्तखत होने के साथ ही देश भर में विरोध भड़क उठे थे। उसके बाद से प्रधानमंत्री कारोबारियों से समूह या व्यक्तिगत तौर पर कम-से-कम तीन बार मिले हैं। गत 20 दिसंबर को उन्होंने उद्योग मंडल एसोचैम के सम्मेलन को संबोधित किया। नए साल के पहले दिन प्रधानमंत्री ने 60 उद्यमियों एवं कारोबारी दिग्गजों से मुलाकात की, फिर 6 जनवरी को वह उद्योग जगत के दिग्गजों के एक और समूह से मिले।
आखिरी मुलाकात तो जेएनयू में हुई हिंसा के चंद घंटों बाद ही हुई थी। इस समूह में शामिल केवल एक उद्योगपति ने सार्वजनिक तौर पर अपनी राय रखी थी लेकिन यह साफ नहीं है कि उन्होंने प्रधानमंत्री के साथ बैठक में इसे उठाया या नहीं। वह आनंद महिंद्रा थे जिन्होंने एक ट्वीट में इसका जिक्र किया था। खुलकर अपनी बात कह चुके उद्योगपति इस मंत्रमुग्ध जमात से बाहर ही रहे लेकिन उन्होंने हिंसा की साधारण निंदा ही की। केवल हर्ष गोयनका ही पूरे साहस से कह पाए कि 'धार्मिक जंगल की आग ने पूरे देश को आगोश में ले रखा है'। इसे सत्तारूढ़ पार्टी के शासन एजेंडा की सीधी आलोचना माना गया। नौशाद फोब्र्स ही अपने लेखों के जरिये कारोबारी समुदाय की नीति-निरपेक्ष चुप्पी का अपवाद बने रहे हैं।
चलिए, मोदी से मुलाकात करने वाले उद्योगपतियों को संदेह का लाभ दे देते हैं। शायद उन्होंने निजी तौर पर प्रधानमंत्री के समक्ष यह बात रखी हो कि एक लोकतांत्रिक देश में प्रदर्शन करने के लिए नागरिक समाज पर बेजा हमले करने से निवेशकों को आश्वस्त करने में शायद ही मदद मिलेगी। शायद उन्होंने यह भी कहा हो कि पुलिस के अपना दायित्व निभाने के बजाय राजनीतिक आकाओं के प्रति झुकाव दिखाने से वे लोग परेशान हो रहे हैं जो अपनी संपत्ति की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं?
हालांकि इस तरह की बातें कही जाने की संभावना बेहद कम ही हैं। अगर आप इस बात को ध्यान में रखें कि जोरदार तालियां बजाने के प्रधानमंत्री के अनुरोध को एसोचैम सम्मेलन में मौजूद कारोबारियों ने एक नहीं बल्कि दो बार पूरे जोश से पूरा किया।
क्या उन्होंने पूर्वानुमेय नीतिगत पथ की तत्काल जरूरत को लेकर प्रधानमंत्री को कोई सलाह दी? या फिर किसी ने यह कहा कि तीन साल पहले बिना किसी चेतावनी के अचानक ही 80 फीसदी नोट वापस लेने से इतनी समस्याएं हुई थीं कि आज भी उसका असर महसूस हो रहा है? या, अप्रत्यक्ष कर प्रणाली में व्यापक बदलाव के लिए एक साल की अग्रिम समयसीमा पर जोर देने से न तो कारोबारियों को फायदा हुआ है और न ही सरकार का राजस्व संग्रह ही बढ़ा है? या 'सशक्त रुपये' के लिए मजबूत मांग निर्यातकों के लिए मददगार नहीं रही है क्योंकि यह संरक्षणवाद की तरफ ले जाता है?
ऐसा होना संभव है लेकिन इसकी संभाव्यता कम है। एसोचैम बैठक की प्रतिक्रियाओं से यही लगता है कि कारोबार जगत सरकार से अर्थव्यवस्था को राहत देने की मांग कर रहा है क्योंकि सितंबर में घोषित कॉर्पोरेट कर कटौती से बात नहीं बन पाई है। इस तरह बहुत मुश्किल गुजरे साल के अंतिम दिन 31 दिसंबर को निर्मला सीतारमण ने 100 लाख करोड़ रुपये से अधिक की ढांचागत निवेश योजना की घोषणा कर दी। किसी को भी नहीं मालूम है कि इसके लिए पैसे कहां से आएंगे और न ही ढांचागत परियोजनाओं से जुड़े शुरुआती अवरोधों को दूर करने के तरीके बताए गए हैं। जो भी हो, जब सरकार के सामाजिक एजेंडा को नागरिक समाज रूपी अवरोध से टकराना पड़ रहा है तब यह ऐलान एक अच्छा प्रदर्शन है।
फिर भी, वर्ष 2014 के सुहाने दिनों से विषमता साफ दिखती है। उस समय कारोबारी नेता मेक इन इंडिया और स्टैंड अप इंडिया जैसे तमाम निवेश आयोजनों में उत्साह से हिस्सा लेते थे और प्रधानमंत्री की तारीफ में कसीदे पढ़ते थे। यह सबकुछ सारे टीवी चैनलों पर खुले दिल से प्रचारित किया जाता था। लेकिन अब होने वाली ये बैठकें बंद दरवाजों के भीतर होती हैं और वहां होने वाली चर्चा के मुद्दे भी गोपनीय होते हैं। इसका मतलब है कि अपने कूटनीतिक अंदाज में भी कारोबारी प्रमुखों के पास अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के बारे में कुछ अच्छा कहने के लिए बहुत बातें ही हैं।
ये कारोबारी नेता भारतीय समाज के विकास-पथ को लेकर भले ही अधिक फिक्र न करते हों लेकिन उन्हें यह बात समझनी ही होगी कि सत्ता के समक्ष सच्ची बात कहने से बचने का नुकसान खुद उनके कारोबार को भी उठाना होगा।
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