मौजूदा विवाद की जड़ घरेलू और बाहरी प्रवास की मजबूरी | सुनीता नारायण / January 13, 2020 | | | | |
इस वक्त तटस्थ रहना संभव नहीं है। मेरी राय है कि कुछ धर्मों के प्रवासियों को भारत की नागरिकता देने के लिए बनाए गए कानून नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) 2019 में भारी खामियां हैं। यह न केवल देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के खिलाफ है बल्कि यह मानवीय आव्रजन का व्यापक मुद्दा हल करने में भी नाकाम है। यह न केवल भारत में गैरकानूनी ढंग से प्रवेश करने वाले विदेशी नागरिकों और भारत से गैरकानूनी रूप से बाहर जाने वाले लोगों बल्कि आंतरिक प्रवास से भी जुड़ा मसला है।
जब लोग गांव से शहर और दूसरे देश जाते हैं तो यह 'भीतरी' और 'बाहरी' लोगों के बीच तनाव भी पैदा करता है। सीएए इन पहलुओं को एक साथ जोड़कर विभाजन का ऐतिहासिक अन्याय खत्म करने के लिए धर्म पर आधारित नागरिकता देने का सरल तरीका है। धर्म के आधार पर भारत से अलग पाकिस्तान और बांग्लादेश बने थे। इस तरह यह कानून चयनात्मक, संकुचित और अन्यायपूर्ण है। इससे भी बुरा यह है कि यह हमें भीतरी एवं बाहरी आधार पर बांटेगा और नफरत फैलाएगा। इसका अंत कब होगा? या यह सिर्फ बढ़ेगा और कैंसर की तरह बढ़ता जाएगा?
अचरज नहीं होना चाहिए कि असम के लोगों में व्याप्त गुस्सा सीएए कानून के चयनात्मक चरित्र को लेकर नहीं है। इनमें से ज्यादातर लोगों को तात्कालिक भविष्य में नागरिकता मिलने की संभावना है। लेकिन वे नहीं चाहते हैं कि बाहरी लोग- चाहे वे हिंदू, मुस्लिम या जैन हों, उनके राज्य में आएं। उन्हें बाहरी लोगों के आने पर अपनी जमीन और आजीविका छिन जाने के अलावा अपनी सांस्कृतिक पहचान गंवाने की आशंका भी है। यह लड़ाई पहले से ही कम मात्रा में उपलब्ध संसाधनों के लिए होने के साथ उनकी पहचान के बारे में भी है। यहीं पर मामला जटिल हो जाता है।
तथ्य यह है कि प्रवासी दुनिया के अधिकांश हिस्सों में राजनीति को पहले से ही परिभाषित कर रहे हैं। नौकाओं में छिपकर गैरकानूनी रूप से यूरोप की कोशिश करने वाले लोगों के झुंड और अमेरिका में राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने बाहरियों को दूर रखने के लिए सीमा पर दीवार बनाने को मिशन घोषित किया हुआ है। इस असुरक्षित वक्त में गुस्सा एवं भय बढ़ रहा है और नफरत से भरी ध्रुवीकृत राजनीति तेज हो रही है।
जिनेवा स्थित अंतरराष्ट्रीय प्रवासी संगठन (आईओएम) की विश्व प्रवास रिपोर्ट 2020 के मुताबिक दुनिया की महज 3.5 फीसदी आबादी ही वर्ष 2019 में एक से दूसरे देश गई थी। लेकिन प्रवास की यह दर अनुमान से कहीं तेज बढ़ रही है। इसकी वजह यह है कि गत दो वर्षों में बड़े पैमाने पर प्रवास एवं विस्थापन की घटनाएं हुई हैं। सीरिया से लेकर दक्षिण सूडान तक जारी हिंसात्मक संघर्ष ने लोगों को देश छोड़कर कहीं और शरण लेने के लिए बाध्य किया है। फिर गंभीर आर्थिक एवं राजनीतिक अस्थिरता भी वजह है। अब इसका विस्तार भी हुआ है क्योंकि जलवायु परिवर्तन से प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं और लोग अपने घर स्थायी तौर पर छोडऩे के लिए मजबूर हो रहे हैं। इसका मतलब है कि दुनिया भर में 27.2 करोड़ लोग अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों की श्रेणी में शामिल हुए जिनमें से दो-तिहाई लोग प्रवासी मजदूर थे।
इस आकलन के मुताबिक, दुनिया भर में सबसे ज्यादा भारत के लोग विदेशों में रहते हैं। प्रवासी भारतीय नागरिकों की संख्या करीब 1.75 करोड़ है। इन आंकड़ों में घरेलू प्रवास तो शामिल ही नहीं है। अगर घरेलू प्रवासियों की संख्या भी जोड़ लें तो आप पाएंगे कि भारत के लोग केवल काम एवं आजीविका की तलाश में गांव से शहर और वहां से दूसरे देश जा रहे हैं। लोग अपना स्थायी निवास छोड़ रहे हैं क्योंकि उनके पास कोई और चारा नहीं है या फिर वे अधिक विकल्प चाहते हैं। गत वर्ष जून में जब एरिजोना रेगिस्तान में लू लगने और पानी की कमी से छह साल की बच्ची गुरप्रीत कौर की मौत हुई तो उसके पंजाब निवासी मां-बाप अमेरिका में गैरकानूनी ढंग से पहुंचने की कोशिश कर रहे थे। पंजाब में युद्ध या हिंसा की स्थिति नहीं है जिससे उन्हें ऐसा कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। लेकिन गुरप्रीत के मां-बाप का कहना था कि वे 'हताश' होकर अपने और अपने बच्चों के लिए बेहतर जिंदगी की तलाश में थे।
जलवायु परिवर्तन से परेशान एवं विस्थापित लोगों की संख्या भी बढ़ेगी। आईओएम इस तरह के विस्थापन को 'नव-विस्थापन' की संज्ञा देते हुए कहता है कि तूफान, बाढ़ एवं सूखे जैसी आपदाओं से विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या 60 फीसदी से अधिक है। 'हॉर्न ऑफ अफ्रीका' देशों में सूखे के चलते करीब आठ लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा था। वर्ष 2018 में चक्रवाती तूफानों की चपेट में रहे फिलीपींस के भीतर नव-विस्थापित लोगों की संख्या सर्वाधिक थी।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव हाशिये पर मौजूद गरीबों पर सबसे ज्यादा पड़ते हैं। बढ़ी असमानता यह तनाव बढ़ा रही है, ग्रामीण अर्थव्यवस्था मरणासन्न है। मौसम से संबंधित घटनाएं लोगों को उस दिशा में ले जाएंगी जहां वापसी की संभावना नहीं है, लिहाजा वे प्रवासियों के झुंड में शामिल हो जाएंगे। अपने शहरों में अनधिकृत बस्तियों की मौजूदगी से हमें यह बखूबी मालूम है।
ऐसे में क्या किया जाना चाहिए? पहली बात, साफ है कि हमें स्थानीय अर्थव्यवस्था बनाने के लिए रणनीति की जरूरत है ताकि लोग दूर जाने के लिए मजबूर न हों। सत्तर के दशक में महाराष्ट्र में आए भीषण अकाल के समय वी एस पागे रोजगार गारंटी योजना लेकर आए थे। मुंबई के पेशेवरों ने ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों की मदद के लिए करों का भुगतान किया। आज तो हम इससे कहीं अधिक कर सकते हैं।
लेकिन सबसे अहम यह है कि हम प्रवास पर विभाजनकारी एजेंडा न खड़ा करें। एक बार बाहरी लोगों की गिनती का सिलसिला शुरू हो गया तो उसका कोई अंत नहीं होगा। सच यह है कि विश्व प्रवास रिपोर्ट में कहा गया है कि 2019 में विदेश में रहने वाले भारतीय नागरिकों ने करीब 80 अरब डॉलर भेजे थे जो सर्वाधिक है। हमें इस बात को याद रखने की जरूरत है कि यह महज संख्या नहीं बल्कि लोग हैं।
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