दूरसंचार क्षेत्र को संकट से उबारने का संकल्प जरूरी | श्याम पोनप्पा / January 13, 2020 | | | | |
अगर दूरसंचार एवं संपर्क उद्योग में नई जान नहीं फूंकी गई तो उदारीकरण की शुरुआत के बाद के सबसे कामयाब क्षेत्रों में शामिल यह क्षेत्र भी नकारा साबित हो जाएगा। तबाह हो चुके इस क्षेत्र को दुरुस्त करने के लिए 1999 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार की तरफ से लाई गई राष्ट्रीय दूरसंचार नीति (एनटीपी-99) से इतर कहीं और नहीं देखना है।
यह भारत में दूरसंचार क्षेत्र और मोबाइल फोन की विकास कहानी शुरू होने के पहले की बात है। उस समय दूरसंचार क्षेत्र अटकी हुई हालत में था। करीब 15 दूरसंचार ऑपरेटर ऊंचे लाइसेंस शुल्क के बोझ, उपभोक्ताओं की सीमित संख्या और तगड़ी प्रतिद्वंद्विता में फंसे हुए थे। भारी कर्ज तले दबे ऑपरेटरों के पास अधिक राजस्व कमाने के लिए नेटवर्क स्थापित करने के पैसे भी नहीं बचे थे। उस समय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी टीम ने उद्योग जगत एवं पेशेवरों के साथ मिलकर साहसिक कदम उठाया और उसका जादुई नतीजा निकला। कुछ रचनात्मक नीतियां लागू करने से दूरसंचार जगत में जबरदस्त वृद्धि का रास्ता खुला और बाजार एवं व्यवहार में व्यापक बदलाव भी आए।
1998-99 के हालात
इस दिशा में घटनाक्रम की शुरुआत 1998 में हुई जब प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने दूरसंचार क्षेत्र की समस्याओं पर गौर करने का निर्णय लिया। आईसीआईसीआई और औद्योगिक लागत एवं कीमत ब्यूरो की तरफ से किए गए अध्ययनों पर गौर करने के बाद पीएमओ ने सरकार के भीतर और बाहर के पेशेवरों, उद्योग जगत के हितधारकों और वित्तीय संस्थानों से सलाह-मशविरा किया। इस तरह एनटीपी-99 का खाका तैयार हुआ। भले ही ये नीतियां सर्वोत्कृष्ट नहीं थीं क्योंकि उद्देश्य-उन्मुख प्रक्रियाओं के साथ राजनीतिक अनुकूलन का भी मेल था लेकिन एक बुनियादी प्रगति यह थी कि सरकार ने लाइसेंस के लिए लगाई बोली पर अग्रिम भुगतान के बजाय अर्जित राजस्व के हिस्से के तौर पर ऑपरेटरों से ही शुल्क एकत्रित किए। यह एक मुश्किल राजनीतिक निर्णय था क्योंकि लोगों के बीच यह गलत धारणा थी इसे ऑपरेटरों को मुफ्त में ही दे दिया गया। लेकिन अदालत में घसीटे जाने के बावजूद सरकार अपने फैसले पर अडिग रही और नतीजों ने साबित कर दिया कि यह फैसला पूरी तरह से सार्वजनिक हित में लिया गया था।
वैसे राजस्व में सरकारी हिस्सेदारी काफी अधिक रखे जाने से शुरुआत में उतनी सफलता नहीं मिली। लेकिन वर्ष 2004 में हुई दो घटनाओं ने हालात बदल दिए। अर्जित राजस्व में सरकार की हिस्सेदारी को घटाकर आठ फीसदी कर दिया गया और किसी कॉल के लिए कॉलर एवं रिसीवर दोनों को भुगतान करने के बजाय सिर्फ कॉलर पर ही उसका बोझ डालने का फैसला लिया गया। इस कदम से मांग एवं आपूर्ति दोनों को ही बढ़ावा मिला और मोबाइल फोन की संख्या में विस्फोटक वृद्धि का रास्ता तैयार हो गया। नतीजा यह हुआ कि भारत दुनिया के सबसे तेजी से बढ़ते एवं सबसे आकर्षक बाजारों में से एक बन गया। आगे चलकर सरकार ने नीलामी को बोली से कहीं अधिक राजस्व हिस्सेदारी के जरिये इकट्ठा कर लिया। ऐसा होने के बावजूद यह बात समझ से बाहर है कि आगे की सरकारों ने अपना राजस्व बढ़ाने के लिए दूरसंचार क्षेत्र पर ध्यान नहीं दिया और इसे पतन की राह पर डाल दिया।
मौजूदा संकट
आज का दूरसंचार संकट काफी कुछ 1998 जैसा ही है। हमारी नियामकीय नीतियों का परिणाम शुल्क दरों को लेकर जंग छिडऩे एवं 'अपने पड़ोसी को गरीब बनाने' की रणनीति के रूप में सामने आया। ऐसा तब है जब अधिकतर लोगों को अच्छी एवं भरोसेमंद सेवाएं नहीं मिल पा रही हैं। इस तरह भारत में दूरसंचार सेवाओं की दरें बेहद कम होने की वजह से लंबे समय तक नहीं टिक सकती हैं। दरें इतने अधिक उपभोक्ताओं से अपेक्षित शुल्क से काफी कम हैं और लागत में घुमावदार कटौती की स्थिति आ सकती है। दरों का यह स्तर दूरसंचार सेवाओं के रखरखाव की भी भरपाई नहीं कर पाता है, दूरदराज के इलाकों में नेटवर्क बढ़ाना तो दूर की बात है। कम शुल्क वाले शहरी क्षेत्रों को अक्सर कम गुणवत्ता वाली सेवाओं का सामना करना पड़ता है जबकि कम आबादी वाले इलाके इन सेवाओं से वंचित ही हैं। उच्चतम न्यायालय के उस फैसले ने दूरसंचार ऑपरेटरों की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं जिसमें स्पेक्ट्रम धारकों पर पिछली तारीख से समायोजित सकल राजस्व (एजीआर) लगाने के सरकारी रुख को सही बताया है।
मौजूदा सरकार को वाजपेयी सरकार की तरह कदम उठाने के लिए संकल्प जुटाने की जरूरत है। दूरसंचार क्षेत्र एवं अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए सरकार को एक क्रांतिकारी हस्तक्षेप करना होगा। पीएमओ के अधिकारियों की दूरसंचार विभाग से मुलाकातों का सिलसिला कई महीनों से जारी है। अब हमें कुछ ऐसे निर्णायक कदमों की जरूरत है:
ठ्ठ स्पेक्ट्रम उपयोग के लिए नीलामी शुल्क के बजाय राजस्व-हिस्सेदारी का तरीका अपनाया जाए। वर्ष 1999 में भी स्पेक्ट्रम लाइसेंस शुल्क के लिए राजस्व हिस्सेदारी का रास्ता अपनाया गया था। ऐसा होने पर स्पेक्ट्रम का महज सरकारी राजस्व के बजाय संपर्क एवं प्रगति के एक सार्वजनिक संसाधन के तौर पर अधिक तर्कसंगत उपयोग हो सकेगा।
ठ्ठ अतिरिक्त स्पेक्ट्रम उपयोग शुल्क खत्म कर देने से विकास एवं वृद्धि के लिए संचार सेवाएं मुहैया कराई जा सकेगी और बाकी दुनिया की तुलना में भारत में क्षमता की खामी भी सुधार सकेगी। अगर अत्यधिक लाभ होता है या फंड को अनुचित राह पर डाला जाता है तो एक अप्रत्याशित लाभ का प्रावधान भी रखा जा सकता है।
ठ्ठ नई तकनीकों को लागू करने वाली नीतियां लागू हों। मसलन, गूगल पिक्सल फोन का नवीनतम संस्करण भारत में इसलिए नहीं जारी किया जा सका है कि यहां पर 60 गीगाहट्र्ज सीमित बैंडविड्थ पर ही उपलब्ध है। इसी तरह 5जी तकनीक के मामले में भारत पहले ही पिछड़ चुका है और स्पेक्ट्रम संपर्क में बड़ा बदलाव लाए बगैर उसे 5जी का लाभ उठाने में वर्षों लगेंगे।
इनके अलावा
बढ़े हुए उत्पादन के लिए ब्रॉड बैंड मुहैया कराने के लिए स्पेक्ट्रम पूलिंग की जाए। इसे भू-स्थिति डेटाबेस चालित साझा स्पेक्ट्रम के जरिये अंजाम दिया जा सकता है जैसा कि यूरोप में लाइसेंसशुदा साझा स्पेक्ट्रम (एलएसए) या अमेरिका में प्राधिकृत साझा स्पेक्ट्रम (एएसए) के दौरान हुआ है।
ठ्ठ संभवत: स्पेक्ट्रम साझेदारी को ढांचागत क्षेत्र के प्रति कंसोर्टियम नजरिया और डिलीवरी के लिए बिना बंडल एवं उपयोग-आधारित लागत अपनाया जाए। नेटवर्क विकास एवं प्रबंधन जैसे आधारभूत ढांचे को सेवा से अलग कर ऐसा किया जा सकता है।
ठ्ठ एक और संभावना यह है कि दो-तीन एकीकृत कंसोर्टियम मौजूद हों जिसमें से हरेक के पास अपना आधारभूत ढांचा हो। इसके लिए अधिक पूंजी निवेश की जरूरत होगी।
ठ्ठ नीतियों एवं नियमों का खाका तय कर सरकार दूरसंचार उद्योग में समन्वयकारी, परामर्शकारी, लक्ष्य-उन्मुख कदम उठाए। दूरसंचार कारोबार में विविध सरकारी एजेंसियां शामिल होती हैं, मसलन दूरसंचार विभाग, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय, ट्राई, वित्त और कानून मंत्रालय के अलावा राज्य सरकारें भी इसका हिस्सा होती हैं।
मोबाइल टेलीफोनी के बगैर काम करना आज अविश्वसनीय नजर आता है। अपने लाभ के लिए दूरसंचार का इस्तेमाल करने वाले नेताओं के बजाय मौजूदा संदर्भों में ये मौके वर्षों तक छूट जाने की संभावना है, जब तक कि सरकार ठोस कार्रवाई का साहस एवं संकल्प न दिखाए।
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