आने वाले वर्षों में स्पष्ट रूप से राजकोषीय विस्तार समर्थन करते हुए अर्थशास्त्रियों ने सरकार से कहा है कि उसे पूंजीगत व्यय (कैपेक्स) का रास्ता अपनाना चाहिए। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि गांवों पर केंद्रित नकदी और रोजगार योजनाओं पर आवंटन बढ़ाने के बजाय पूंजीगत व्यय और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर ज्यादा व्यय किया जाना चाहिए। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी रंगराजन ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि मंदी से निपटने के लिए राजकोषीय घाटे के लक्ष्य में 'थोड़ी ढील' दी जानी चाहिए। उन्होंने टेलीफोन पर बातचीत में कहा, 'सरकार द्वारा किया जाने वाला कोई भी अतिरिक्त व्यय निवेश निवेश केंद्रित होना चाहिए। हम ऐसी स्थिति से गुजर रहे हैं, जब निवेश सुस्त है और उपभोक्ताओं की ओर से मांग भी कम है। ऐसे में सिर्फ पूंजीगत व्यय का सीधा सकारात्मक असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।' उन्होंने कहा कि कंपनियों के लिए कर में कटौती का फैसला उचित था। इसके साथ ही उन्होंने आयकर में किसी कटौती को लेकर सावधानी बरतने की सलाह भी दी। उन्होंने कहा, 'कर कटौती की अपनी क्षमता होती है, वहीं कर कटौती की तुलना में व्यय बढ़ाना तत्काल प्रभाव के हिसाब से ज्यादा मजबूत तरीका है।' सरकार इस समय अप्रत्याशित आर्थिक मंदी और राजस्व में कमी के दौर से गुजर रही है, जिसकी वजह से वह मांग बढ़ाने के लिए खर्च को बढ़ावा दे रही है। सकल घरेलू उत्पाद के मौजूदा स्तर पर राजकोषीय घाटे में 0.5 प्रतिशत बढ़ोतरी का विकल्प है, जिससे 1 लाख करोड़ रुपये मिल सकेंगे। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के अध्यापक अर्जुन जयदेव ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा, 'ऐसे समय में जब निजी क्षेत्र से कोई निवेश नहीं हो रहा है, सरकारी खर्च बढ़ाकर निजी क्षेत्र को ज्यादा निवेश के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। अगर सरकार मांग बहाल करने के कदम उठाती है तो निजी कारोबारी ज्यादा खर्च करेंगे क्योंकि वे इस समय बिक्री गिरने को लेकर चिंतित हैं।' विशेषज्ञों ने यह भी कहा कि गांवों पर केंद्रित दो गरीबी उन्मूलन योजनाओं- महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) और प्रधानमंत्री कृषि समन निधि (पीएम-किसान) का इस्तेमाल सही तरीके से पूंजीगत व्यय के पूरक के रूप में किया जाए तो इससे राजकोषीय विस्तार में मदद मिल सकती है। 2019 तक सरकार की ग्रामीण योजनाओं के समन्वय का काम देख रहे पूर्व ग्रामीण विकास सचिव अमरजीत सिन्हा ने कहा कि दो योजनाएं अलग अलग मकसद पूरा करती हैं और इनके वित्तपोषण की बहुत ज्यादा जरूरत है, जिससे इन्हें ज्यादा प्रभावी बनाया जा सके। सिन्हा ने कहा, 'मनरेगा श्रमिकों के रोजगार को लेकर तनाव के समाधान के लिए है, जिसकी मांग कृषि जिंसों के दाम गिरने पर ज्यादा होती है। ऐसी ही स्थिति में पीएम-किसान से अनाज के दाम कम होने पर भूमिधारक किसानों को मदद मिलती है।' इंदिरा गांधी डेवलपमेंट रिसर्च के निदेशक महेंद्र देव ने कहा कि मनरेगा के तहत वेतन बढऩे से ग्रामीण लोगों की आमदनी में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हो सकती है और उन्होंने सुझाव दिया कि इस मद में आवंटन बढ़ाया जाना चाहिए। हालांकि वह पूंजीगत व्यय के सीधे असर को लेकर असहमत हैं। उन्होंने कहा, 'ग्रामीण इलाकों में पूंजी केंद्रित परियोजनाओं की लंबी अवधि होती है और इसका आर्थिक लाभ मिलने में वक्त लगता है। इसके विपरीत पीएम किसान से तत्काल खपत को बढ़ावा मिलता है।' रेटिंग एजेंसियों के अर्थशास्त्रियों की राय रंगराजन के समर्थन में हैं कि सरकार को पूंजीगत व्यय पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इक्रा में प्रमुख अर्थशास्त्री अदिति नैयर का कहना है, 'इक्रा का मानना है कि पूंजीगत व्यय या बुनियादी ढांचे पर व्यय को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, क्योंकि इसका अर्थव्यवस्था पर बहुत ज्यादा असर पड़ता है, इससे प्रमुख क्षेत्रों को समर्थन मिलता है।' केयर रेटिंग के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस ने कहा कि व्यय बढ़ाने का ज्यादा लाभ होगा। उन्होंने कहा, 'पूंजीगत व्यय को प्राथमिकता होनी चाहिए, जिससे अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ेगी। मनरेगा दूसरे स्थान पर आता है क्योंकि यह उत्पादक रोजगार से जुड़ी है। पूंजीगत व्यय बढ़ाकर भी श्रमिकों को रोजगार दिया जा सकता है।'
