देश में अनिश्चितता और आशंका का माहौल है। भारत की अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी हो रही है और उसका सामाजिक तानाबाना बिखर रहा है। और ऐसा लगता है कि जिन लोगों पर इसे दुरुस्त करने की जिम्मेदारी है, वे कुछ प्रयास नहीं कर रहे हैं। देश के 1,67,400 करोड़ रुपये के मीडिया और मनोरंजन उद्योग का भी यही हाल है। मैं लंबे समय से इस उद्योग से जुड़ी हूं और नए वर्ष में मेरी पहली और सबसे बड़ी कामना स्थिर विनियामक माहौल की है। ऐसा माहौल जो उद्योग की प्रगति की राह सुगम बनाए।
उदाहरण के लिए भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के नए शुल्क आदेश यानी एनटीओ को लीजिए जिसे पिछले साल फरवरी में लागू किया गया था। इससे उद्योग में पारदर्शिता और व्यवस्था कायम हुई। यह ऐसा उद्योग है जहां जमीन पर 43,500 करोड़ रुपये की उगाही होती है लेकिन इसमें से 60-70 फीसदी राशि हमेशा वापस नहीं आती है। मगर इससे कई तरह की समस्याएं भी पैदा हुई हैं।
मसलन कीमतों में बढ़ोतरी हो गई है, जटिल पैकेजों की शिकायतें आ रही हैं, सैंपलिंग में कमी आई है, केबल से डीटीएच या टीवी से ऑनलाइन विकल्पों का चलन बढ़ा है। इनमें से किसी से भी ट्राई के लक्ष्यों की पूर्ति नहीं होती है। ट्राई का सबसे बड़ा लक्ष्य दर्शकों को अपनी पसंद के चैनल देखने का विकल्प देना था। अगस्त में प्राधिकरण ने शुल्क पर एक और मसौदा पत्र जारी किया। अब कुछ और सिफारिशों के बारे में बात चल रही है।
2004 में ट्राई को प्रसारण क्षेत्र का नियामक बनाया गया था। तबसे वह शुल्क में संशोधन से जुड़े 35 आदेश जारी कर चुका है। साथ ही उसने इंटरकनेक्शन और सेवा की गुणवत्ता आदि पर सैकड़ों आदेश दिए हैं। सैटेलाइट ऐंड केबल टीवी मैगजीन के संपादक और पब्लिशर दिनयार कॉन्ट्रैक्टर कहते हैं, 'पिछले 5-10 साल से करीब-करीब हर महीने कोई नया नियम या निर्देश जारी होता है। इससे नियामक की भूमिका दखल देने वाली की बन जाती है और उद्योग का कामकाज अस्थिर, अनिश्चित और विवादास्पद बन जाता है। ऐसे में उद्योग ट्राई के नियमों में कमियां खोजने लगता है जिससे उनमें संशोधन किया जाता है या नए नियम बनते हैं। इस तरह यह चूहे और बिल्ली का कभी न खत्म होने वाला खेल है।' क्या हम 2020 में चूहे और बिल्ली के इस खेल को खत्म कर सकते हैं?
टीवी के कारोबार में धीरे-धीरे पारदर्शिता आने लगी है लेकिन डिजिटल की दुनिया में दूर-दूर तक इसकी मौजूदगी नहीं है। मैं चाहती हूं कि डिजिटल के क्षेत्र में भी पारदर्शिता आए। देश के आधा दर्जन क्वालीफायर को छोड़ दें तो आपके लिए देश में शीर्ष 10 ओटीटी या न्यूज साइट की सूची खोजना संभव नहीं है। टीवी के लिए ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल और प्रिंट के लिए रीडरशिप स्टडीज काउंसिल ऑफ इंडिया है। लेकिन डिजिटल के लिए ऐसी कोई स्वतंत्र संस्था नहीं है जो विज्ञापनदाताओं, मीडिया या कारोबारियों को विश्वसनीय आंकड़े दे सके।
अधिकांश ओटीटी का अपना एनालिटिक्स है जो उन पर आने वाले ट्रैफिक और उनके द्वारा बिताए गए समय आदि के बारे में जानकारी देता है। इनकी अन्य ओटीटी के आंकड़ों के साथ तुलना की जा सकती है या नहीं भी की जा सकती है। कॉमस्कोर जो आंकड़े देता है, वे ओटीटी के अपने आंकड़ों के दो से तीन गुना कम होते हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि इसमें क्या शामिल किया गया है और क्या नहीं।
क्या ये अलग-अलग उपकरणों पर लॉगिन और एकल यूजर पर आधारित होते हैं? क्या वे सभी उपकरणों का जोड़ होते हैं जिनमें दोहराव नहीं होता है? क्या साइट या ऐप पर आने वाले केवल विजिटर हैं और उन्होंने वीडियो नहीं देखा है? साथ ही ओटीटी की किसी भी सूची में सदस्यता वाली सेवाएं जैसे नेटफ्लिक्स या एमेजॉन प्राइम वीडियो शामिल नहीं होंगी। चूंकि उन्हें विज्ञापन राजस्व की जरूरत नहीं होती है, इसलिए उनके आंकड़े सार्वजनिक जांच के लिए उपलब्ध नहीं हैं।
क्या डिजिटल कंपनियां साथ मिलकर हमें ऐसी व्यवस्था दे सकती हैं जिससे उनके कारोबार के आंकड़ों का सटीक पता लगाया जा सके? मेरी तीसरी और शायद सबसे बचकानी कामना यह है कि भारतीय खबरिया चैनल गायब हो जाएं। या कम से कम रातोरात सही मायनों में खबरिया संस्थानों में बदल जाएं। जिन चीजों ने देश में लोकतांत्रिक तानेबाने को नुकसान पहुंचाया है, उनमें टीवी न्यूज की भूमिका सबसे बदतर है।
मेरी सबसे उत्कट कामना यह है कि हम एक ऐसे जागरूक देश बन जाएं कि व्हाट्सऐप पर आने वाले कुछ कूड़े के कारण एकदूसरे के खून के प्यासे न बनें। हम ऐसे देश बनें जहां हम व्यक्तिगत आपेक्षों से बचते हुए तर्कसंगत दलीलें दें। क्या यह अच्छा सपना नहीं है? सबको नए वर्ष की शुभकामनाएं।
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