भारत की आर्थिक वृद्धि पिछली पांच तिमाहियों से लगातार सुस्त पड़ती जा रही है और पूर्वानुमानों की मानें तो निकट भविष्य में इसके तेज होने की संभावना काफी कम है। इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यत: सामाजिक एजेंडे वाले कदम उठाए जिन्होंने उन्हें भारी बहुमत दिलाया।
लेकिन राज्यों में उनकी पार्टी के सिकुड़ते आधार को उन्हें इसका संकेत मानना चाहिए कि अर्थव्यवस्था की कीमत पर हिंदुत्व के घोषणापत्र को प्राथमिकता देने के जोखिम भी हैं। नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को लेकर जारी हंगामे के बीच झारखंड में मिली हार के बाद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) देश के 71 फीसदी से घटकर 35 फीसदी क्षेत्र तक सिमट गई है। यह इस द्विभाजन का सबसे सटीक संकेतक है। झारखंड में मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के अभियान में आदिवासी मतदाताओं के बारे में घुमावदार समझ दिखी। बढ़ती बेरोजगारी और नक्सली समस्या यहां की सबसे बड़ी चिंताएं हैं लेकिन शाह इन मुद्दों के बजाय अयोध्या में आसमान छूने वाला मंदिर बनाने की बात करते रहे।
इसके पहले भारत की वित्तीय राजधानी कहे जाने वाले राज्य महाराष्ट्र में भी भाजपा पिछली बार से भी कम सीटें जीत पाई और अपने दम पर निर्णायक बहुमत नहीं जुटा पाई। इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद उससे नाराज एक पुराने सहयोगी दल की अगुआई में दूसरी सरकार बन गई।
इन दोनों राज्यों में मिली हार राष्ट्रीय एवं राज्यों के चुनाव में फर्क कर पाने की समझ पर सवाल उठाती हैं। यह संभव है कि राष्ट्रीय चुनाव कहीं बड़े एवं अमूर्त विचारों पर लड़े जाएं लेकिन राज्यों के चुनाव अमूमन रोजी-रोटी के मसले पर ही लड़े जाते हैं। वर्ष 2017 में गोवा और कर्नाटक में विधायकों के पाला-बदल के समय भी यह दिखा था। हिंदी पट्टïी के तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में दिसंबर 2018 में मिली शिकस्त भाजपा के लिए चेतावनी होनी चाहिए थी। उन तीनों राज्यों में ग्रामीण असंतोष गहराने का मुद्दा सबसे अहम था। इस असंतोष के लिए वर्ष 2016 में हुई नोटबंदी और उसके एक साल बाद जीएसटी प्रणाली के जल्दबाजी में क्रियान्वयन को जिम्मेदार माना गया।
मोदी ने 2019 के चुनावों की आचार संहिता लागू होने से ऐन पहले कृषि आय समर्थन योजना की घोषणा की थी लेकिन वह जमीन से आ रहे संदेश को ठीक से समझ नहीं पाए। इस पर ध्यान देने के बजाय उन्होंने वायुसेना के विमानों को पाकिस्तान की सीमा के भीतर जाकर आतंकी ठिकानों पर हमले करने का बहुत बड़ा दांव खेल दिया। मोदी ने मान लिया कि उन्हें दूसरी बार मिला बहुमत 'अधिक साहसी एवं बड़े हिंदुत्व' के लिए निर्देश-पत्र है। अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करना, जम्मू कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों के रूप में बांटना, सीएए को पारित कराना और देश भर में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) प्रक्रिया शुरू करने की घोषणा इसी दिशा में उठाए गए कदम हैं। लेकिन सीएए-एनपीआर जोड़ी पर गैर-भाजपा शासित राज्यों और कुछ गठबंधन सहयोगियों की कड़ी आपत्तियों के बाद मोदी की हिंदुत्व परियोजना राज्यों के हाथों में बंधक बन गई है।
गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में लंबा अनुभव रखने से मोदी को पता होना चाहिए कि आर्थिक सफलता के लिए जमीनी काम किए बगैर कोई भी सामाजिक एजेंडा हासिल नहीं किया जा सकता है। 2014 में राज्यों पर भाजपा की मजबूत पकड़ से कठिन आर्थिक सुधार करने का सुनहरा मौका मिला था लेकिन उन्होंने उसे गंवा दिया है। सतत वृद्धि के पथ पर बढऩे के लिए ये सुधार बेहद जरूरी थे। अब वह 'सशक्त भारत' के एजेंडे का विस्तार अर्थव्यवस्था तक कर अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचा रहे हैं। भारत जैसे युवा देश में बढ़ती बेरोजगारी वर्ष 2020 में मोदी के समक्ष मौजूद चुनौतियों एवं खतरों दोनों को अभिव्यक्त करती है।
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