अमेरिकी समाज में बढ़ती असमानता | पार्थसारथि शोम / December 25, 2019 | | | | |
भारत और ब्राजील में बढ़ती असमानता के बारे में सभी जानते हैं। मैं काफी समय से इस बारे में लिखता भी रहा हूं। परंतु अमेरिका में बढ़ती असमानता शायद अधिक चौंकाने वाली बात है। द इकनॉमिस्ट पत्रिका का एक ताजा अंक इस चिंता को कम करके आंकने का प्रयास करता है। इसका शीर्षक है, 'असमानता के भ्रम: क्यों संपत्ति और आय का अंतर उतना नहीं है जितना वह नजर आता है।' इसने मुझे प्रतिक्रिया देने पर विवश किया है। इसमें हाल में आए विद्वतापूर्ण पर्चों के बारे में कहा गया कि उनके नतीजे पूर्व में उन पर्चों के परिणाम से विरोधाभासी हैं जिनमें कहा गया था कि अमेरिका में संपत्ति और आय के अंतर में तेजी से गिरावट आ रही है।
द इकनॉमिस्ट की कवरेज पर करीबी नजर डाली जाए तो पता चलता है कि नये पर्चों में पुराने पर्चों के नतीजों को उलटा नहीं गया है। बल्कि वे उन नतीजों की तीव्रता को कुछ हद तक कम करते हैं। ऐसे में यह निष्कर्ष अक्षुण्ण बना रहता है कि सन 1980 के दशक से अब तक असमानता में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। नये निष्कर्ष में नये आंकड़ों का अत्यंत चतुराईपूर्वक इस्तेमाल किया गया है। यही कारण है कि पिछले निष्कर्षों को नकारने में उनकी अक्षमता दरअसल शुरुआती नतीजों की मजबूती की पुष्टिï ही करती है। व्यापक आकलन की शुरुआत इस बात से की जानी चाहिए कि बाजार कैसे काम करते हैं? सन 1776 में आई एडम स्मिथ की पुस्तक वेल्थ ऑफ नेशंस इसकी बुनियाद है। पुस्तक में कहा गया है कि वैयक्तिक लोग व्यक्तिगत लाभ से संचालित होते हैं। उनकी कारोबारी भावना बाजार में उपभोक्ताओं के लिए न्यूनतम मूल्य पर अधिकतम वस्तुएं उपलब्ध कराती है। ऐसे में स्वार्थपरकता समाज कल्याण को बढ़ावा देती है। इसके पीछे पूरी तरह एक ही सिद्घांत है और वह है कि आपूर्तिकर्ताओं के बीच प्रतिस्पर्धा।
बाद में अर्थशास्त्रियों ने इस मॉडल में उस समय परिवर्तन किया जब कुछ आपूर्तिकर्ता रह जाते हैं जो बाजार की कीमतों को नियंत्रित कर सकते हैं तब बाजार की कीमतें प्रतिस्पर्धी नहीं रह जाएंगी और उपभोक्ताओं को ऊंची कीमत चुकानी होगी। चाहे जो भी हो लेकिन अदृश्य हाथ का सिद्घांत विश्वसनीय माना गया और बाजार के कामकाज के पीछे उसे ही मुख्य प्रेरणा माना गया। इसके अलावा उत्पादन प्रक्रिया और श्रम उत्पादकता में सुधार के साथ तथा तकनीक के उन्नत होने के साथ आर्थिक वृद्घि दर में स्थिर वृद्घि आएगी। उस राह पर तमाम संसाधनों के मालिक यह अनुभव करेंगे कि उनकी पूंजी या उनके श्रम पर प्रतिफल भी उसी दर से बढ़ेगा। यदि यह वृद्घि आबादी में वृद्घि की दर के समान हो गई तो उससे अर्थव्यवस्था की बढ़ोतरी के बुनियादी नियम से ही समझौता हो जाता है।
वह नियम संसाधन मालिकों के शुरुआती दान के बारे में कुछ नहीं कहता। इसे सन 1896 में इटली के अर्थशास्त्री विफ्रेडो पारेटो ने स्थापित किया। एक उभरते और विद्रोही प्रकृति के अर्थशास्त्री के रूप में मैंने अपनी स्नातकोत्तर की थीसिस का विषय रखा, 'नॉन एथिकल डिस्ट्रिब्यूशन ऐंड फेल्योर्स ऑफ मार्केट।' इसे एक बार में स्वीकार कर लिए जाने पर मुझे खासी प्रसन्नता हुई थी।
सारा आर्थिक सिद्घांत परिपूर्ण बाजार की सक्षमता पर आधारित था। इसी तरह कराधान सिद्घांत आगे बढ़कर इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि आखिर विभिन्न करों का बोझ अंतत: किस पर जाता है। इसके नतीजे स्पष्टï थे और उनका सामान्यीकरण किया जा सकता था। उन्हें टैक्स इंसीडेंस थ्योरम कहा गया। बाजार के समक्ष अनुनय मुझे हमेशा परेशान करती थी। मेरी पीएचडी थीसिस ने दर्शाया कि कैसे किसी बाजार अर्थव्यवस्था में परिणामों की स्वच्छता आसानी से ध्वस्त हो सकती है।
मैं यहां अपने उक्त प्रयासों का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मैंने कभी इस बात पर यकीन नहीं किया कि बाजार बिना किसी खामी के काम करते हैं। मैंने सन 1970 के दशक में जो निष्कर्ष और नतीजे दिए थे वे संक्षिप्त थे और अमेरिकी आर्थिक प्रतिष्ठïान को यह यकीन नहीं दिला पाए कि बाजार में उसका भरोसा गलत था। शायद अपनी परिभाषा के दायरे में भी बाजार अर्थव्यवस्था ने सन 1970 तक व्यापक तौर पर स्वीकार्य प्रदर्शन किया, आर्थिक एजेंट्स को निवेश पर अच्छा प्रतिफल मिला और वेतन भत्तों में बढ़ोतरी हुई। लोगों के जीवन मानक में सुधार हुआ।
सन 1980 के दशक से बाजार प्रतिस्पर्धा के बुनियादी सिद्घांत में दरार आनी शुरू हो गई। नयी सहस्राब्दी में तो ऐसा और अधिक हुआ। सबसे पहले तो आर्थिक एजेंटों के बीच पूरी जानकारी विस्तारित थी और हर एजेंट को इतना छोटा रखा गया कि वह बाजार मूल्य को प्रभावित न कर सके। बाजार को अस्थिर करने की बात तो छोड़ ही दी जाए।
ये दोनों सिद्घांत धीरे-धीरे टूटने लगे। सूचना प्रौद्योगिकी की प्रचुरता के बीच सूचना जुटाना आसान हुआ। विश्लेषकों ने सुरक्षित वैश्विक आंकड़ों से सूचना जुटाना और वैश्विक जिंस कीमतों के अनुमान लगाना शुरू किया। जिन निवेशकों को जानकारी नहीं थी उन्होंने मामूली बढ़ोतरी पर अपने शेयर बेच दिए। जबकि सूचित निवेशकों ने कीमतें बढऩे के बावजूद और अधिक खरीदारी की। इससे कीमतें और बाजार की बुनियाद अस्थिर हुई। जिनके पास सूचना थी उन्हें अपने निवेश की तुलना में कई गुना अधिक लाभ हासिल हुआ। वैश्विक बाजारों को अस्थिर करने और असंगत प्रतिफल हासिल करने के बाद वे वैश्विक परोपकारियों के रूप में सामने आए। यह नई सहस्त्राब्दी का विरोधाभास था। वित्तीय क्षेत्र समेत तमाम क्षेत्रों में ऐसा देखने को मिला।
वृहद स्तर पर देखें तो बार-बार सामने आए वैश्विक संकटों में बाजार के औंधे मुंह गिरने के बावजूद ऐसे एजेंट अधिकतम मूल्य हासिल करने में कामयाब रहे। जबकि इसी अवधि में शेयर बाजार से खरबों डॉलर की राशि स्वाहा हो गई। इससे लाभान्वित होने वाले एजेंट वैश्विक स्तर पर बहुत बड़े स्वरूप में उभरे। इसका असर छोटे प्रतिस्पर्धियों पर पड़ा। कुल मिलाकर इससे प्रतिस्पर्धी बाजार की छवि प्रभावित हुई। ऐसे में असमानता तो लाजिमी तौर पर आनी थी।
वृहद आर्थिक कारकों के अलावा नई सहस्राब्दी के वृहद आर्थिक संकेतक बताते हैं कि कैसे समूचे अमेरिका में आय में असमानता बढ़ रही है। यहां तक कि लिंग, नस्ल, आर्थिक गतिशीलता आदि सभी में असमानता बढ़ी है। हमने पत्रिका के जिस अंक से अपनी बात शुरू की, उसमें असमानता समाप्त करने को लेकर विचारों, विश्लेषण और नीतिगत कदमों में आमूलचूल बदलाव की बात निहित है। इसमें भारत के लिए भी अहम सबक हैं।
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