अस्वाभाविक समय में भी नैसर्गिक साझेदार हैं अमेरिका और भारत | अजय शुक्ला / December 23, 2019 | | | | |
पिछले दिनों वॉशिंगटन डीसी में अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पांपेओ और रक्षा मंत्री मार्क एस्पर तथा भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर तथा रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की मुलाकात के बाद अमेरिकी मीडिया ने जम्मू कश्मीर संकट और नागरिकता (संशोधन) अधिनियम को लेकर लगातार सवाल किए। इससे यह स्पष्ट हो गया कि भारत को लेकर अमेरिकी अवधारणा बनाने में ये मुद्दे अहम हैं।
दो दशक पहले दोनों देशों के रिश्तों में गर्माहट आने के बाद बार-बार इनके 'नैसर्गिक साझेदार' होने की बात कही जाती है। लगभग हर साझे वक्तव्य में 'साझा मूल्यों' और 'जीवंत लोकतंत्र' होने की बात कही गई है। व्यावहारिक राजनीति करने वाले कहते हैं कि यह बस जुमलेबाजी है क्योंकि अमेरिका का तानाशाहों और अलोकतांत्रिक नेताओं के समर्थन का इतिहास रहा है। अमेरिका जहां दबंग नेताओं और उनके अधिनायकवादी शासन के साथ नीतिगत समझौते करता रहा है, वहीं ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड और ब्रिटेन के साथ उसके समझौते साझा मूल्यों और वैश्विक दृष्टि पर आधारित हैं।
कुछ का कहना है कि ट्रंप भारत पर मुस्लिमों के साथ भेदभाव का इल्जाम नहीं लगा सकते क्योंकि वह खुद 2017 में चुनिंदा मुस्लिम देशों के नागरिकों की अमेरिका यात्रा पर रोक लगा चुके हैं। उनके इस प्रतिबंध को अमेरिकी अदालतों ने तो उलटा ही, अमेरिकी मीडिया, समाज और वहां के सदन के सदस्यों ने भी खारिज किया। ट्रंप अमेरिकी नीति में एक असामान्य घटना हैं। यदि वह 2021 में जीतते हैं तो जनवरी 2025 तक राष्ट्रपति रहेंगे। यह बात सीनेट में भी प्रतिध्वनित हुई जब प्रतिनिधि सभा में उन पर महाभियोग चलाने की बात उठी।
अमेरिका ने अब तक भारत में मुस्लिमों के विरुद्ध भेदभाव करने या कश्मीरी नेताओं को बंदी बनाए रखने को लेकर कुछ नहीं कहा था। हालिया संवाद में अवश्य पांपेओ ने कहा कि अमेरिका हर जगह अल्पसंख्यकों के संरक्षण और धार्मिक अधिकारों के बचाव को लेकर गंभीर है। उन्होंने कहा कि न केवल भारत बल्कि दुनिया भर में इन मसलों पर अमेरिका की प्रतिक्रिया में निरंतरता रहेगी। भारत की लाज बचाते हुए उन्होंने कहा कि अमेरिका भारतीय लोकतंत्र का सम्मान करता है क्योंकि भारत में खुद इन विषयों पर बड़ी बहस चल रही है।
बहरहाल, भारत के साथ अपने रिश्ते को लेकर अमेरिकी प्रशासन को एक नई तरह की शर्मिंदगी का सामना करना पड़ रहा है। इसका असर अमेरिकी कांग्रेस में भारत के साथ रिश्ते को लेकर द्विपक्षीय सहमति पर भी पड़ेगा। माना जा सकता है कि भारत होने के नाते हमें अमेरिका से जो सहूलियतें मिलती थीं वे बंद हो सकती हैं। भारत के लिए रूस एस-400 हवाई रक्षा मिसाइल खरीदने को अमेरिकी इजाजत मिलनी मुश्किल हो जाएगी। वहीं कई मुद्दों पर अब भारत को खुलकर अमेरिका के साथ आना होगा, भले ही भारत के हित उस कदर जुड़े हों या नहीं।
विदेश और रक्षा मंत्रियों के उपरोक्त संवाद के नतीजे आशा के अनुरूप ही थे। अमेरिका ने हिंद-प्रशांत में भारत की सुरक्षा स्थिति का समर्थन किया। भारत ने भी उस सुरक्षा ढांचे का समर्थन करते वक्त चीन की आवश्यकताओं का ध्यान रखा। अमेरिका ने अफगानिस्तान में भारत के योगदान की सराहना की लेकिन तालिबान के साथ अमेरिका की वार्ता इस बात से विरोधाभासी है। अमेरिका ने ईरान के मसले पर भारत से कहा कि वह अधिकतम दबाव में सहयोग करे। हालांकि उसने भारत और ईरान के बीच चाबहार बंदरगाह पर सहयोग को मंजूरी दे दी है। अमेरिका ने चीन के 5जी संचार नेटवर्क पर चिंता जताई जबकि भारत के मंत्री खामोश रहे। रक्षा साझेदारी के क्षेत्र में और प्रगति देखने को मिली। औद्योगिक सुरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर अहम हैं। इसके तहत भारत को अहम अमेरिकी रक्षा तकनीक हासिल होगी। दोनों देशों के रक्षा उद्योग में करीबी संबंध कायम होंगे। इस संबंध में वार्ता सितंबर 2018 में शुरू हुई थी। इससे पहले के दो समझौतों को पूरा होने में एक दशक लगा था।
ऐसे में बुनियादी विनिमय एवं सहयोग समझौते (बीईसीए) के रूप में एक ही ऐसा समझौता शेष है जो भारत और अमेरिकी सेना के बीच जानकारियां साझा करने की व्यवस्था को सुसंगत बनाएगा। इससे नेविगेशन और निशाना तय करने की व्यवस्था बेहतर होगी। भारत-अमेरिका सामरिक साझेदारी मंच के सलाहकार विक्रम सिंह कहते हैं कि उम्मीद थी कि बीईसीए को जल्दी मूर्त रूप दिया जा सकगा लेकिन अभी भी चिंता के तमाम विषय बरकरार हैं।
रक्षा रिश्तों में दोनों पक्षों ने रक्षा तकनीक और व्यापार पहल (डीटीटीआई) के तहत तीन समझौतों को अंतिम रूप देने की घोषणा की। इसके तहत अहम तकनीक विकसित की जाएंगी। दोनों देशों के रक्षामंत्रियों और नई दिल्ली स्थित भारतीय नौसेना मुख्यालय तथा हवाई स्थित इंडो-यूएस पैसिफिक कमांड के बीच हॉटलाइन का काम पूरा होने की घोषणा भी की गई। बहरीन स्थित अमेरिकी नौसैनिक बल की केंद्रीय कमान में एक भारतीय नौसेना अधिकारी की तैनाती की घोषणा भी की गई।
दोनों देश हिंद महासागर में चीनी पनडुब्बियों पर करीबी नजर रखने के लिए सहयोग कर रहे हैं। ऐसे में एक दूसरे के यहां अधिकारियों की तैनाती कारगर होगी। इस पर भी सहमति बनी कि अमेरिकी सेना की केंद्रीय कमांड और अफ्रीकी कमांड के अधिकारियों को साझा प्रशिक्षण दिया जाए। दोनों देशों के व्यापार और वाणिज्यिक मसलों पर असहमति के बावजूद रक्षा रिश्ते मजबूत बने हुए हैं। पारंपरिक तौर पर देखें और पाकिस्तान का उदाहरण लें तो अमेरिका मानवाधिकार और राजनीतिक तथा धार्मिक आजादी पर सुरक्षा साझेदारी चिंताओं को तरजीह देता है। परंतु भारत के लिए यह बेहतर होगा कि वह सहिष्णुता की परीक्षा न ले और उन मूल्यों की ओर लौटे जो अंतरराष्ट्रीय जगत में उसे प्रभावी और स्वीकार्य बनाए रखते थे।
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