नियमों के बिना दुनिया | संपादकीय / December 03, 2019 | | | | |
अमेरिका में राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के अधीन मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान विश्व व्यापार व्यवस्था को कमजोर करने के मामले में अब तक के सबसे कट्टर प्रतिष्ठानों में से एक साबित हुआ है। खासतौर पर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की अपील संस्था के मामले में। अगर डब्ल्यूटीओ का कोई सदस्य दूसरे सदस्य के व्यापारिक नियमों के उल्लंघन के मामले में अपील करता है तो उसकी सुनवाई सात न्यायाधीशों द्वारा की जानी चाहिए। परंतु अमेरिका ने इस अदालत में नई नियुक्तियों को बाधित किया हुआ है। यह प्रक्रिया ट्रंप के कार्यकाल से पहले की है लेकिन उनके कार्यकाल में इसे बढ़ावा मिला है। इस महीने शायद अदालत की कार्यवाही न हो सके क्योंकि पर्याप्त लोग मौजूद नहीं हैं। अंतिम तीन न्यायाधीशों में से दो सेवानिवृत्त होने वाले हैं और एक न्यायाधीश मामलों की सुनवाई नहीं कर सकता। इसका असर वैश्विक स्तर पर होगा। सन 1995 से अपील संस्था बड़ी परियोजनाओं पर केंद्रित रही है। यह सुनिश्चित करने के लिए विश्व व्यापार ऐसी अवस्था को न पहुंच जाए जहां अमेरिका और चीन जैसे बड़े देश अपनी मर्जी से नियम निर्माण पर न सहमत हों और छोटे देश अनुपालन करने को मजबूर न हो जाएं। ऐसे देश द्विपक्षीय व्यापारिक विवादों में जीत हासिल नहीं कर पाएंगे लेकिन उनके पास डब्ल्यूटीओ में आगे की राह निकालने का अवसर रहेगा। यही कारण है कि ट्रंप इस व्यवस्था की अवज्ञा कर रहे हैं।
भारत जैसा छोटा कारोबारी देश जो दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के बावजूद विश्व व्यापार में केवल दो फीसदी का हिस्सेदार है, उसके लिए उपरोक्त स्थिति किसी त्रासदी से कम नहीं होगी। भारत पहले ही अमेरिका के साथ एक कारोबारी विवाद में उलझा हुआ है। चीन भले ही नियम नहीं तोड़ रहा है लेकिन तमाम अन्य विकासशील देशों की तरह भारत को भी चीन के गैर बाजार आर्थिक झुकाव से अनेक शिकायतें हैं। भारत को भी कुछ आरोप साझा करना होगा, लेकिन उसने डब्ल्यूटीओ में चीन को पर्याप्त ढंग से नहीं रोका। बल्कि उसने चीन को लेकर जो व्यापारिक गतिरोध खड़े किए वे अमेरिका समेत अन्य देशों के साथ उसके विवाद की वजह बन गए। डब्ल्यूटीओ में गए मामलों को लेकर भारत की विधिक तैयारी भी कभी उच्चस्तरीय नहीं रही। यह भी सही है कि डब्ल्यूटीओ सुधार भी काफी समय से लंबित है। बहरहाल, जब तक ट्रंप की जगह कोई ऐसा व्यक्ति अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं बनता जो कारोबारों के हित में हो तब तक अपील संस्था में सुधार की संभावना कम ही है। भारत को भी ऐसे वक्त की तैयारी रखनी होगी जहां नियम कायदे नहीं होंगे। इस व्यवस्था में भारत का नया पृथकतावाद विधिक कार्रवाई के बजाय प्रतिकार को उकसावा देगा।
ऐसे हालात में भारत का बहुपक्षीय या द्विपक्षीय नियमों से मुंह मोडऩा खासा संदेहास्पद है। उदाहरण के लिए उपरोक्त संदर्भ में भारत का क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) में शाामिल नहीं होने का निर्णय अदूरदर्शी नजर आता है। यदि भारत चीन द्वारा व्यापार को विसंगतिपूर्ण करने को लेकर चिंतित होता तो कम से कम आरसेप विवादों को हल करने की एक व्यवस्था तो उसे मुहैया कराता जो शायद डब्ल्यूटीओ में लंबे समय तक उपलब्ध नहीं रह पाएगी। भारत को अब सक्रियता दिखाते हुए ऐसे अन्य उपाय अपनाने होंगे जिनकी मदद से वह व्यापार नीति के मसले पर वह अपनी आजादी सुनिश्चित कर पाए। परंतु इसे व्यापारिक मामलों में अंतर्मुखी होने के बचाव के तौर पर नहीं अपनाया जा सकता। भारत को अपने हित में अन्य उपाय तलाश करने होंगे, बजाय कि अपनी नीतियों में ऐसे बदलाव करने के जो देश की कंपनियों और कामगारों को ही नुकसान पहुंचाएं।
|