डॉ. मनमोहन सिंह का बेसुरा गान | देवाशिष बसु / November 28, 2019 | | | | |
हम आज जो कीमत चुका रहे हैं उसमें पिछली सरकारों की गलत नीतियों की भी भूमिका है। इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं देवाशिष बसु
वर्ष 2014 के आम चुनाव के पूर्व देश के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 'मौन' मोहन सिंह कहकर पुकारा था। डॉ. सिंह का मजाक उड़ाते हुए कहा जाता था कि वह देश में घट रही तमाम घटनाओं पर खामोशी का रुख अपनाए रहते हैं। इनमें भ्रष्टाचार के मामलों (राष्ट्रमंडल खेल, एयर इंडिया, दूरसंचार स्पेक्ट्रम आवंटन, कोयल और लोहा) से लेकर नीतिगत पंगुता और भूमि हथियाने के मामलों के साथ-साथ निर्भया जैसे मामलों से ठीक से न निपट पाना शामिल था। मोदी ने उस वक्त जनता के मिजाज को सही ढंग से समझा।
अब मोदी के चुप रहने की बारी है। डॉ. सिंह ने समाचार पत्र द हिंदू में आलेख लिखकर मोदी सरकार के आर्थिक प्रदर्शन पर निशाना साधा है। उन्होंने लिखा है कि खलू कीमतों पर जीडीपी वृद्धि दर 15 फीसदी के निचले स्तर पर है, आम परिवारों की खपत चार दशक के निचले स्तर पर है, बेरोजगारी 45 वर्ष के उच्चतम स्तर पर है, बैंकों का फंसा हुआ कर्ज अब तक के उच्चतम स्तर पर है, बिजली उत्पादन की वृद्धि 15 साल में सबसे धीमी है वगैरह...वगैरह। हालांकि मैं मोदी सरकार की विभिन्न योजनाओं का आलोचक रहा हूं लेकिन देश की आर्थिक परिस्थितियों को लेकर सिंह द्वारा दी जा रही वजहें और उनके द्वारा सुझाए जा रहे नीतिगत सुझाव पाखंड प्रतीत हो रहे हैं।
डॉ. सिंह कहते हैं कि सामाजिक मोर्चे पर आपसी विश्वास और आत्मविश्वास एकदम निचले स्तर पर है और इसका असर आर्थिक वृद्धि पर भी पड़ रहा है। फिलहाल सामाजिक भरोसे का हमारा तानाबाना पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है। उद्योगपति सरकारी अधिकारियों द्वारा प्रताडि़त होने की आशंका में जी रहे हैं, बैंकर नए ऋण देना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें आशंका है कि उनको प्रताडि़त किया जा सकता है। उद्योगपति नई परियोजनाएं शुरू नहीं करना चाहते, तकनीकी क्षेत्र के स्टार्टअप निरंतर निगरानी और आशंका में जी रहे हैं जबकि नीति निर्माता सच बोलने या ईमानदार नीतिगत चर्चाओं से बच रहे हैं। डर और अविश्वास का असर आर्थिक लेनदेन पर पड़ता है और आगे चलकर यह मंदी का सबब बनता है।
चयनित पूर्वग्रह
यदि पिछली सरकारों से तुलना की जाए तो यह तस्वीर काफी अतिरंजित है। खासकर अगर सन 1991-96 की कांग्रेस सरकार से तुलना की जाए, जब सिंह वित्त मंत्री हुआ करते थे। सन 2004 से 2014 तक के हालात भी इससे अलग नहीं थे। उस वक्त सिंह प्रधानमंत्री थे। सिंह की दलील में दो दिक्कतें हैं: वह चुनिंदा उठाते हैं और हालिया घटनाओं की बात करते हैं। पहला, भारतीय नागरिक और कारोबारी हमेशा से सरकार की दया पर रहे हैं। सरकार के पास उनको प्रताडि़त करने के सैकड़ों तरीके हैं। मोदी सरकार कुछ अलग नहीं कर रही है। सन 2010 में ही मैंने टैक्सटॉर्शन (करवसूली को हथियार बनाकर परेशान करना) जैसा शब्द गढ़ा था। सन 2013 में डॉ. सिंह के नेतृत्व में ही पुरातनपंथी कंपनी अधिनियम बना। कांग्रेस के कार्यकाल में कानूनों को पुरानी तिथि से लागू करने और जनरल ऐंटी अवॉयडेंस नियमों को याद कीजिए। वह भरोसे का कोई बहुत अच्छा उदाहरण नहीं पेश करते।
आम जनता को भले ही पता नहीं हो लेकिन डॉ. सिंह को यह पता होगा कि आर्थिक कदमों के परिणाम थोड़ा विलंब से सामने आते हैं। स्पष्ट है कि आज जो हालात हैं उनका संबंध वर्षों पूर्व उठाए गए कदमों से होगा। हम आज जो कीमत चुका रहे हैं वह केवल मोदी सरकार की बदौलत नहीं है बल्कि उसमें पिछली सरकारों की गलत नीतियों की भी भूमिका है। मौजूदा आर्थिक मंदी का एक बड़ा कारण सरकारी बैंकों द्वारा बड़े पैमाने पर भ्रष्ट तरीके से दिए जाने वाले ऋण का बंद होना भी है। 10 लाख करोड़ रुपये के फंसे कर्ज से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पहले किस प्रकार ऋण दिया जाता था।
व्यवस्था से नकदी के घटने के लिए मुझे इसके अलावा कोई बड़ी वजह समझ में नहीं आती। इस गलत आवंटन के चलते सरकार को आबादी के उत्पादक हिस्से से अधिकाधिक संसाधन जुटाने पड़े। इनमें निजी कारोबारी और परिवार शामिल हैं। इतना ही नहीं विकृत पूंजीवादियों और बैंकरों द्वारा की गई इन गड़बडिय़ों के जवाबदेह मोदी नहीं बल्कि पिछली सरकारों के वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री भी रहे हैं। आरबीआई के विभिन्न गवर्नर भी इससे बरी नहीं हैं। बल्कि मोदी ने तो डिफॉल्टरों पर लगाम लगाई है। कांग्रेस सरकार के अधीन उन्हें बैंकों से और पैसा मिला होता। मोदी के कार्यकाल में यह संभव नहीं।
नीतिगत उपचार
डॉ. सिंह को लगता है कि समाज की आर्थिक भागीदारी में विश्वास और भरोसा बहाल करके निजी निवेश को बढ़ावा दिया जा सकता है और इस प्रकार देश की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सकता है। यह झूठ है। अकेले भरोसे और विश्वास से आर्थिक वृद्घि नहीं हासिल होती। प्रतिस्पर्धा, पारदर्शिता और निष्पक्षता के साथ बाजार में प्रवेश और निर्गम के सहज मार्ग से ऐसा होता है। मुझे याद नहीं आता कि सिंह सरकार ने ऐसा एक भी कदम उठाया हो जो इस व्यवस्था को आगे ले जाने वाला हो। यह भूलना आसान है कि सन 1990 में जब वह वित्त मंत्री थे तब भारत में प्रतिभूति घोटाला हुआ था और बिना नियमन के सार्वजनिक निर्गम के माध्यम से आम घरों को लूटा गया था। इसके अलावा भी तमाम वित्तीय घोटाले हुए थे। सरकारी बैंकों की भ्रष्ट ऋण व्यवस्था के तहत सरकारी धन की लूट हुई। दूरसंचार लाइसेंसिंग, एनरॉन और अन्य निजी बिजली परियोजनाओं में शासन की विफलता सामने आई। इन तमाम वजहों से मुद्रास्फीति दो अंकों में पहुंच गई। जबकि नेतृत्व एक अर्थशास्त्री के हाथ में था।
इन तमाम तरह के कुप्रबंधन के चलते अर्थव्यवस्था बहुत बुरी स्थिति में पहुंच गई। वहां से उबरने में छह वर्ष लगे। फंसे हुए कर्ज से संबंधित एक नया कानून बनाना पड़ा लेकिन वह भी निष्प्रभावी साबित हुआ। वर्ष 2004-2014 की अवधि में बहुत व्यापक कुप्रबंधन देखने को मिला लेकिन वैश्विक संसाधन और चीन के कारण हो रहे नकदी लाभ की उपलब्धियों ने कमियों को ढक लिया। प्रतिस्पर्धा के बजाय विकृत पूंजीवाद पनपा, पारदर्शिता की जगह अस्पष्टता ने घेरे रखी। स्वच्छ और स्पष्ट नियमों के बजाय जटिल नियम बने। कुल मिलाकर व्यापक भ्रष्टाचार के कारण ही लोगों ने कांग्रेस को सत्ता से हटाया। डॉ. सिंह द्वारा की गई आलोचना में कांग्रेस की कमियों को छिपाने की भावना अधिक है, बजाय कि नई व्यवस्था की कमियां उजागर करने के।
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