श्रम आय बढऩे पर ही तेज आर्थिक वृद्धि | नितिन देसाई / November 27, 2019 | | | | |
वर्तमान समय में लोगों के लिए नहीं, पूंजी के मालिकों के लिए कल्याणकारी राज्य चल रहा है। सरकार श्रम आय बढ़ाने के बजाय कंपनियों को सौगात दे रही है। बता रहे हैं नितिन देसाई
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत जुलाई में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार पांच लाख डॉलर करने के लक्ष्य पर सवाल उठाने वालों को पेशेवर निराशावादी बताते हुए खारिज कर दिया था। बजट से भी आर्थिक सुस्ती के बारे में बहुत अंदाजा नहीं मिला। लेकिन जब यह सुस्ती साफ नजर आने लगी तो नीति-निर्माताओं में घबराहट देखी जाने लगी और वे कॉर्पोरेट कर में कटौती जैसे प्रस्ताव लेकर सामने आ गए। उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि क्या इस कदम से फौरी नतीजे आ पाएंगे? वृद्धि बहाली के लिए सरकार की नीतियां विश्लेषण के बजाय झुकाव पर आधारित लगती हैं। घरेलू उपभोग में गिरावट जैसे असुविधाजनक आंकड़ों को दबाने और रोजगार रिपोर्ट की सटीकता स्वीकार करने से इनकार की भी कोशिश हुई हैं।
ऐसे परिवेश में एक वैकल्पिक योजना के लिए काट-छांटकर पेश किए गए सरकारी आंकड़ों पर यकीन करना मुश्किल है। लिहाजा इस लेख में काफी हद तक विश्वसनीय गैर-सरकारी आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है। इनमें बेहद समृद्ध एवं भरोसेमंद स्रोत कैपिटल, लेबर, एनर्जी, मैटेरियल्स ऐंड सर्विसेज (क्लेम्स) के आंकड़े भी शामिल हैं। क्लेम्स डेटाबेस भारतीय रिजर्व बैंक से प्रायोजित है और उन आंकड़ों को दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स के शोधकर्ताओं की टीम तैयार करती है। पेशेवर स्वतंत्रता होने से क्लेम्स के आंकड़ों को भरोसेमंद माना जा सकता है। यह डेटाबेस सकल आउटपुट समेत कुल कारक उत्पादकता गणना, सकल मूल्य वद्र्धन (जीवीए), ऊर्जा, सामग्री एवं सेवाओं में मध्यवर्ती आगत, रोजगार, श्रम गुणवत्ता सूचकांक, श्रम आय और पूंजी आय के लिए तैयार किया गया है। अर्थव्यवस्था और उसके 27 अहम क्षेत्रों के आंकड़ों के आधार पर तैयार यह डेटाबेस क्षेत्र-आधारित आंकड़ों से पूरी तरह मेल खाते हैं। आर्थिक वृद्धि संबंधी गणनाओं के लिए मैं इसे अधिक विश्वसनीय स्रोत मानूंगा।
अब मैं केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) की बैककास्टिंग (मनचाहा परिणाम हासिल करने के लिए अपनाई गई नीति एवं पद्धति) कवायद से निकले जीवीए वृद्धि दर अनुमान और क्लेम्स डेटाबेस के आंकड़े के बीच तुलनात्मक अध्ययन करूंगा। क्लेम्स के आंकड़े अधिक विश्वसनीय एवं सुसंगत हैं। इस तुलना से यह पता चलता है कि सीएसओ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) शासन के दौरान वृद्धि दर को कमतर आंकता रहा जबकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के दौरान उसके अनुमान अधिक ही रहे।
कंपनियों के पास अधिक पैसे होने से निवेश बढऩे एवं वृद्धि तेज होने को लेकर सरकार का विश्वास गलत है। कंपनियां उसी स्थिति में निवेश करती हैं जब उन्हें मांग बढऩे की संभावना दिखती है। लेकिन अब यह पूरी तरह साफ हो चुका है कि मांग वृद्धि सुस्त पड़ चुकी है। रथिन रॉय ने प्रभावी ढंग से दलील दी है कि इस सुस्ती की कुछ वजह संरचनात्मक है क्योंकि वाहनों एवं टिकाऊ उपभोक्ता उत्पादों के मामले में 'एस' आकार वाला वृद्धि वक्र अपने उच्च पथ से आगे निकलते हुए संतृप्त स्थिति में जा रहा है। दरअसल मध्यम-आय समूह में प्रवेश करने वाले उपभोक्ताओं की संख्या उतनी तेजी से नहीं बढ़ रही है।
लेकिन इस लेख में प्रस्तुत तर्क संबद्ध होते हुए भी अलग हैं। मुझे लगता है कि वृद्धि के लिए प्रमुख मांग आय वितरण के निचले आधे हिस्से से ही आती है। रोजमर्रा के उत्पाद (एफएमसीजी) की वृद्धि पर नजर डालें तो वर्ष 2004 से लेकर 2010 तक के उत्कर्ष काल में इस क्षेत्र की वृद्धि दर उच्च रही, 2012 में उसमें तीव्र गिरावट आई, 2017 में हल्का सुधार देखा गया और उसके बाद से लगातार गिरावट का दौर चल रहा है। एफएमसीजी मांग मुख्य रूप से ग्रामीण उपभोक्ताओं और शहरी क्षेत्र के मजदूरी-आश्रित एवं वेतनभोगियों से आती है। ऐसे में सुस्ती का यही मतलब है कि उनकी आय के जरूरी दर से नहीं बढ़ी है। पहले ग्रामीण उपभोक्ताओं पर विचार करते हैं। कृषि क्षेत्र में कार्यरत पुरुष श्रमिकों की औसत वृद्धि दर 2007-08 और 2014-15 के दौरान 16 फीसदी थी। लेकिन 2015-16 और 2017-18 में यह गिरकर पांच फीसदी पर आ गई। किसानों के लिए कारोबार की स्थितियां 2004-2010 के दौरान 85 से बढ़कर 100 से ऊपर जा पहुंची थी। उसके बाद से वे गिरती चली गई हैं। पिछले साल ग्रामीण क्षेत्रों में देखी गई अत्यधिक अशांति शायद मौसम से संबंधित थी और इस साल हालात पलट सकते हैं। लेकिन मार्केटिंग सुधारों से जुड़ी गहरी समस्याएं, मसलन न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) एवं सार्वजनिक खाद्यान्न खरीद के ठीक होने में लंबा वक्त लगेगा।
शहरी क्षेत्रों में ज्यादा अहमियत रोजगार एवं मेहनताने में वृद्धि की है। वर्ष 2004-10 की अवधि के क्लेम्स आंकड़ों के मुताबिक, विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि दर 2.46 फीसदी थी और सेवा क्षेत्र में यह 2.8 फीसदी थी। वर्ष 2011 से 2017 के दौरान विनिर्माण में वृद्धि दर गिरकर 1.40 फीसदी और सेवा क्षेत्र में 2 फीसदी रह गई। जहां तक श्रम आय का सवाल है तो वहां पर समान पैटर्न नजर आता है। पहले दौर में उच्च वृद्धि थी लेकिन दूसरे दौर में यह नीचे आ गई। विनिर्माण रोजगार आय में भी वृद्धि दर 8.13 फीसदी से गिरकर 5.38 फीसदी पर आ गई। वहीं सेवा रोजगार आय में वृद्धि दर 7.18 फीसदी से घटकर 6.09 फीसदी रही।
नियतकालिक श्रम-शक्ति सर्वेक्षण (पीएलएफएस) 2017-18 पर सवाल उठाने की कोशिशों के बावजूद रोजगार वृद्धि की सुस्ती को ठीक से समझा गया है। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में वृद्धि की दर 2010-11 के बाद धीमी हो गई। श्रम-बहुल उद्योगों में औद्योगिक उत्पादन 2004-10 के छह वर्षों में 5.7 फीसदी से बड़ी गिरावट के साथ 2011 के बाद के छह वर्षों में महज 0.1 फीसदी पर आ गया। पूंजी की अधिकता वाले क्षेत्रों में भी औद्योगिक उत्पादन 10.6 फीसदी से गिरकर 4.60 फीसदी पर आ गया।
पाठकों के समक्ष ये सारे आंकड़े पेश करने का मकसद यह बताना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रमुख समस्या श्रम आय की अपर्याप्तता है। विनिर्माण मूल्य-वद्र्धित में श्रम आय की हिस्सेदारी 1060 के दशक के मध्य से ही नीचे जा रही है और 1990-91 के बाद से तो इसमें काफी तेजी आई है। अब यह 30 फीसदी पर है। सेवा क्षेत्र में यह हिस्सेदारी 52 फीसदी है। श्रम नीति के केंद्र में सिर्फ यही रह गया है कि कामगारों को मिली सुरक्षा में कटौती हो और ऐसे कदम उठाए जाएं जिनसे पूंजी के मालिकों को काम पर रखने एवं हटाने में आसानी हो। इसके साक्ष्य बहुत कम हैं कि कंपनियों को कागजी प्रावधानों के चलते अपने श्रमशक्ति में कटौती के लिए मजबूर होना पड़ा हो। हम भूल जाते हैं कि नियमित मजदूरी-आश्रित एवं वेतनभोगियों में से 71 फीसदी के पास कोई लिखित अनुबंध नहीं है और नियमित रोजगार की जगह अस्थायी एवं अनुबंधित श्रम ले रहा है।
वास्तविकता यह है कि अपने लोगों के लिए एक कल्याणकारी राज्य चलाने के बजाय हम पूंजी के मालिकों के लिए कल्याणकारी राज्य चला रहे हैं और उन्हें गलत फैसलों से बचा रहे हैं। मसलन, कॉर्पोरेट कर कटौती से सरकार को राजस्व में एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान होगा लेकिन इस उम्मीद में यह कदम उठाया गया है कि इससे निवेश एवं वृद्धि को मजबूती मिलेगी। उस राजस्व क्षति की भरपाई के लिए सरकार अपने सबसे लाभपरक उपक्रमों को बेचने की योजना बना रही है। अगर कंपनी जगत और शेयर बाजार के अटकलबाजों को दी गई बड़ी सौगात का इस्तेमाल देश में न्यूनतम आय का कानून लागू करने और मनरेगा के तहत अधिक रोजगार देने में किया गया रहता तो हमें अब तक उसका नतीजा देखने को मिल जाता। निवेश बुनियादी रूप से मांग वृद्धि की अपेक्षाओं से प्रेरित होता है। मौजूदा संदर्भ में ऐसा करने का सबसे भरोसेमंद तरीका श्रम आय को बढ़ाना है।
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