ससम्मान कर्ज समस्या का समाधान | |
वनिता कोहली-खांडेकर / 11 26, 2019 | | | | |
जिस बाजार में प्रवर्तक भगोड़े बन जाते हैं या कंपनी पर कुंडली मारे बैठे रहते हैं, उसमें सुभाष चंद्रा ने ज़ी से निकलकर सम्मान के साथ कर्ज समस्या के समाधान का पैमाना तय किया है
ज़ी के चेयरमैन पद से सुभाष चंद्रा के इस्तीफे को 'दुखद' या 'एक युग का अवसान' करार देना गलत है। जो गुण 69 वर्षीय चंद्रा को एक अच्छा उद्यमी बनाते हैं, वह उनकी लगन और जोखिम लेने की क्षमता हैं। हालांकि इन्हीं गुणों से मौजूदा हालात भी पैदा हुए हैं। जब ये गुण कारगर रहे तो एक बंद दाल मिल से 30,000 करोड़ रुपये का एस्सेल समूह खड़ा हो गया। जब इन गुणों ने काम नहीं किया तो उनका समूह कर्ज संकट में फंस गया और प्रवर्तक परिवार को ज़ी एंटरटेनमेंट में अपनी हिस्सेदारी गिरवी रखनी पड़ी। कर्जदाताओं ने अपना पैसा मांगा और चंद्रा का ज़ी पर नियंत्रण छिन गया। लेकिन यह उतनी गंभीर बात नहीं है, जितनी लोग मान रहे हैं। इस बात पर गौर करें कि उन्होंने कंपनी से निकलकर क्या हासिल किया है।
पहला, इससे ज़ी मुक्त हो गया है। भारतीय मीडिया कंपनियों के लिए अपने संस्थापक परिवार की छत्र छाया से बाहर निकलना बहुत दुर्लभ है। हालांकि यह उनके लिए फायदेमंद हो सकता है। चंद्रा ने परिचालन शुरू करने के दूसरे साल 1993 में कंपनी को शेयर बाजार में सूचीबद्ध कराया था। इस तरह उन्होंने एक ऐसी कंपनी खड़ी की, जो अब तक करीब 26 वर्षों से बाजार की निगरानी झेल चुकी है। यह उन मामलों में संस्थागत है, जिनमें मालिक की अगुआई वाली ज्यादातर कंपनियां नहीं हैं। यह इसे दूसरों से बेहतर क्यों बनाता है, जिसका जिक्र यहां किया जा रहा है।
पिछले सप्ताह परिवार की हिस्सेदारी घटकर पांच फीसदी पर आ गई, जो इस साल की शुरुआत में 20 फीसदी थी। कंपनी के मौजूदा मालिकों- सभी वित्तीय या संस्थागत निवेशकों को किसी समय निकासी की जरूरत पड़ेगी। इसका मतलब है कि ज़ी को बेचा जाएगा, संभवतया किसी रणनीतिक निवेशक को। कंपनी के शेयरों के गिरवी रखे होने की मुख्य वजह यह थी कि यह एस्सेल के पोर्टफोलियो में सबसे अहम कंपनी है। ज़ी करीब 8,000 करोड़ रुपये की कंपनी है। यह विश्व के सबसे आकर्षक मीडिया बाजारों में से एक (भारत) में नकदी उगलने वाली बाजार की अगुआ कंपनी है।
प्रवर्तकों के हाथ से नियंत्रण छिनने की खबरों के बाद ज़ी के शेयर में 12 फीसदी बढ़त दर्ज की गई। इसकी वजह यह है कि बाजार यह जानता है कि रणनीतिक निवेशक कोई भी हो, ज़ी अब अपने प्रवर्तकों के कर्ज की जंजीरों से मुक्त हो गई है। अब निवेशक जो पूंजी लगाएगा, वह कंपनी को नए मुकाम पर पहुंचाएगी। विशेष रूप से उस बाजार में, जिसमें नई इबारत लिखी जा रही है। पिछले साल डिज्नी ने स्टार का अधिग्रहण किया था। इस तरह वह करीब 12,000 करोड़ रुपये की आमदनी के साथ भारत की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी बन गई। गूगल, नेटफ्लिक्स और जियो नई प्रतिस्पर्धी कंपनियों के रूप में उभर रही हैं। सोनी के वायकॉम 18 को खरीदने की खबरें आ रही हैं। अगर ऐसा होता है तो यह 10,000 करोड़ रुपये की कंपनी बन जाएगी, जो ज़ी से बड़ी होगी। जी़ को अपनी प्रतिस्पर्धा को नई धार देने की जरूरत है। चंद्रा के कंपनी से बाहर निकलने से जी़ नई उड़ान भरने के लिए मुक्त हो गई है। उसके पास बड़ी वैश्विक कंपनी बनने का मौका आया है।
दूसरा, उनकी निकासी ने यह बेंचमार्क तय किया है कि कैसे उद्यमियों और कंपनियों को अपने कर्ज संकट से निपटना चाहिए। चंद्रा शुरुआत से ही ईमानदार रहे हैं। अन्य बहुत से भारतीय कारोबारियों से इतर वह भागे नहीं, कोई हथकंडा अपनाकर कंपनी पर कुंडली मारने या मौजूदा सरकार के साथ अपनी नजदीकी का इस्तेमाल करके कर्ज समस्या से निपटने की कोशिश नहीं की। जब जनवरी में उनका शेयर गिरा तो उन्होंने अपने बैंकरों और कर्जदारों से माफी मांगी और कहा कि उन्होने कुछ गलत फैसले लिए हैं। हालांकि प्रसारण बाजार में उनके कुछ छल-कपट से सहमत नहीं हुआ जा सकता है। लेकिन कंपनी पर नियंत्रण छोडऩे के लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। इससे लोगों का बड़ी कंपनियों में भरोसा बहाल होता है।
1960 के दशक में हिसार से दिल्ली तक के सफर में 18 वर्षीय सुभाष चंद्रा की अमन सिंह से दोस्ती हुई, जो भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) में सहायक प्रबंधक थे। चंद्रा ने तभी चावल-दाल पॉलिश के पारिवारिक कारोबार को उबारा था। उस समय एफसीआई देश में खाद्यान्न का सबसे बड़ा खरीदार था। भारतीय सेना खाद्य मंत्रालय से अनाज खरीदती थी। इसके लिए मंत्रालय निविदा आमंत्रित करता था। चंद्रा ने सिंह से पूछा कि सेना एफसीआई से सीधे खरीद क्यों नहीं करती है? सिंह ने कहा कि एफसीआई कच्चा खाद्यान्न खरीदता है, इसलिए इसका प्रसंस्करण जरूरी है। चंद्रा ने एफसीआई के खाद्यान्न को प्रसंस्कृत करने की पेशकश की ताकि इसे सीधे सेना को आपूर्ति किया जा सके। सिंह को चंद्रा की क्षमता पर संदेह था, लेकिन उन्हें यह विचार पसंद आया। सिंह ने प्रस्ताव मंत्रालय के सामने रखा, जिसे मंजूर कर लिया गया। चंद्रा इस कारोबार में उतर गए।
यह उनके जीवन का अहम मोड़ था। चंद्रा ने एक बार बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया था, 'इससे मुझे आत्मविश्वास और विचार मिला कि जहां चाह वहां राह।' इसी आत्मविश्वास के चलते उन्होंने एक के बाद एक नए कारोबारों जैसे पैकेजिंग, प्रकाशन, लेजर पार्क, प्रसारण, केबल, डीटीएच, इलेक्ट्रॉनिक लॉटरी आदि में दांव लगाया। उनके लिए बड़ा मौका दिसंबर 1991 में संभवतया हॉन्ग कॉन्ग में आया।
चंद्रा और एडमैन अशोक कुरियन (ज़ी के सह-संस्थापक) नए शुरू हुए स्टार टीवी के अध्यक्ष डेविड मैनियन के साथ एशियासैट1 का एक ट्रांसपोंडर लीज पर लेने के लिए बातचीत कर रहे थे। उपग्रह पर एक समूह का स्वामित्व था, जिनमें हॉन्ग कॉन्ग के अरबपति ली का शिंग भी शामिल थे। उनके बेटे रिचर्ड ली ने इस पर स्टार टीवी शुरू किया था। उस समय यह चीन और भारत में प्रसारण करने वाला एकमात्र उपग्रह था।
चंद्रा जानते थे कि भारतीय बाजार में जल्द ही प्रसारकों की बाढ़ आने वाली है। वह उस उपग्रह के जरिये अन्य से पहले एक हिंदी चैनल शुरू करना चाहते थे। मैनियन ने उन्हें 50:50 के संयुक्त उद्यम के लिए बातचीत करने को आमंत्रित किया। ट्रांसपोंडर की लीज की लागत 12 लाख डॉलर प्रति वर्ष यानी तब तीन करोड़ रुपये से अधिक थी। हालांकि ली ने सालाना करीब 13 करोड़ रुपये से कम में ट्रांसपोंडर लीज पर देने से इनकार कर दिया। यह कीमत समझौते की रकम से चार गुना थी। इससे क्रोधित चंद्रा जोखिम की चिंता किए बिना 50 लाख डॉलर चुकाने को तैयार हो गए। वह उपग्रह के सहारे टीवी चैनल शुरू करना चाहते थे। ली के मई 1992 में सहमत होने से पहले पांच महीने और लग गए। उस साल अक्टूबर में चंद्रा ने ज़ी टीवी शुरू कर दिया।
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