क्या भारतीय मुस्लिम मायने रखते हैं? | राष्ट्र की बात | | शेखर गुप्ता / November 24, 2019 | | | | |
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की यह स्थायी शिकायत रही है कि देश की राजनीति में मुस्लिमों को उनकी हैसियत से अधिक भाव मिलता रहा है। भाजपा के नेता और उसके बड़े बौद्धिक तथा एक्सप्रेस समूह में मेरे सहकर्मी रह चुके बलबीर पुंज ने एक बातचीत में मुझसे कहा था, 'भारत पर कौन राज करेगा और कौन नहीं यह तय करने का अधिकार मुस्लिमों के पास है?' यह बातचीत तब हुई थी जब सन 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की दूसरी राजग सरकार लोकसभा में एक वोट से गिर गई थी क्योंकि तमाम 'धर्मनिरपेक्ष' दल उसके खिलाफ एकजुट हो गए थे। इससे पहले सन 1996 में वाजपेयी की पहली राजग सरकार मात्र 13 दिन में गिर गई थी।
राजग की दूसरी सरकार एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक चली और पुंज की दलील थी कि जिन दलों को मुस्लिम वोट मिलने में रुचि थी या उन्हें गंवा देने का डर था वे भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए कुछ भी कर सकते थे। पुंज को लगता था कि मुस्लिम मत और धर्म निरपेक्ष मूल्यों के प्रति उन दलों की प्रतिबद्धता महज दिखावा थी। मुझे लगता है कि संप्रग-1 की सरकार के बाद इस धारणा में और अधिक मजबूती आई होगी जब भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए वाम दलों ने भी कांग्रेस का समर्थन किया था। उस वक्त कांग्रेस और भाजपा की सीटों में मामूली अंतर था। कांग्रेस को 145 और भाजपा को 138 सीट मिली थीं।
भाजपा ने कई बार मुस्लिमों से करीबी बढ़ाने का प्रयास किया। अल्पसंख्यकों की दृष्टि से देखें तो वाजपेयी स्वयं पार्टी का सबसे समावेशी और सौहार्दपूर्ण चेहरा थे। लालकृष्ण आडवाणी ने कई मुस्लिम बुद्धिजीवियों को आगे बढ़ाया, यहां तक कि मुस्लिम वाम को भी। वह मुस्लिमों के त्योहारों में शामिल हुए और जिन्ना की तारीफ तक की। एपीजे अब्दुल कलाम को देश का राष्ट्रपति तक बनाया गया। वाजपेयी और आडवाणी की भाजपा का पूरा प्रयास मुस्लिम मतों में सेंध लगाने का था। परंतु पार्टी इसमें नाकाम रही।
भाजपा ने इसका अर्थ यह लगाया कि मुस्लिम ही यह तय करेंगे कि भारत पर कौन राज करेगा। संप्रग के एक दशक के शासन के दौरान जब देश भर में भाजपा सत्ता से वंचित रही तब यह धारणा मजबूत रही। इसके बाद 2014 में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का उदय हुआ और उन्होंने पूरा गणित बदल दिया। उन्होंने बिना मुस्लिम मतदाताओं की सहायता के बहुमत हासिल किया। देश की राजनीति में यह एक नया युग था। भाजपा के कई नेताओं ने इसे स्वीकार कर लिया। उनका कहना था, 'हमने अब मान लिया है कि हमें मुस्लिमों और ईसाइयों को छोड़कर केवल 80 फीसदी मतदाताओं के साथ मैदान में उतरना है।' एक बार इस हकीकत को स्वीकार करने के बाद चुनौती आसान थी: हिंदू वोटों का 50 फीसदी हासिल कर वे आसानी से शासन कर सकते थे। 2019 में उन्होंने इसे साबित किया। भारतीय राजनीति का सबसे अप्रत्याशित बदलाव आ चुका था और करीब 20 करोड़ की मुस्लिम आबादी राजनीतिक रूप से अप्रासंंगिक बना दी गई थी। इन बातों में यकीन करने की आवश्यकता नहीं है कि मुस्लिम महिलाओं ने तीन तलाक के कारण मोदी का अहसान माना या आकांक्षी युवा मुस्लिमों ने भाजपा को वोट दिया। हर विश्वसनीय एक्जिट पोल का जनांकीय विश्लेषण उपरोक्त बातों को साबित करता है। इससे भाजपा के धर्मनिरपेक्ष प्रतिद्वंद्वी स्तब्ध रह गए। मुस्लिम भी जवाब तलाशने में लग गए। खुद को 20 करोड़ मुस्लिमों की जगह रखकर देखिए तो तस्वीर कुछ ऐसी नजर आएगी: मेरे मत की ताकत समाप्त हो चुकी है, ठीक है लेकिन क्या मुझे सत्ता में मेरी वाजिब जगह भी नहीं मिलनी चाहिए?
मोदी सरकार का यह छठा वर्ष है और उसमें केवल एक मुस्लिम मंत्री हैं मुख्तार अब्बासी नकवी। उन्हें अल्पसंख्यक मामलों का प्रभारी बनाया गया है। यह इतिहास के उन अस्वाभाविक पलों में से एक है जब राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, सशस्त्र बलों के प्रमुख, सुरक्षा और खुफिया एजेसियों, निर्वाचन आयोग या न्यायपालिका में किसी अहम पद पर कोई मुस्लिम नहीं है। देश के किसी राज्य में मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं है। जम्मू कश्मीर में जहां ऐसा हो सकता था, वह अब राज्य ही नहीं रहा। देश के किसी प्रमुख मंत्रालय में कोई मुस्लिम सचिव नहीं है। कोई महत्त्वपूर्ण नियामक भी मुस्लिम नहीं है। सरसरी तौर पर याद करें तो हामिद अंसारी के अलावा सन 2015 से 2017 तक देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे नसीम जैदी आखिरी मुस्लिम थे जो किसी संवैधानिक पद पर रहे। देश के 37 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में केवल दो मुस्लिम राज्यपाल हैं: नजमा हेपतुल्ला और आरिफ मोहम्मद खान।
भाजपा की सबका साथ, सबका विकास की दलील से हम सभी परिचित हैं। उसकी अगली दलील है देश में कोई बड़ा सांप्रदायिक दंगा न होना। इसके बाद अन्य बातें हैं। मसलन जैसा कि द प्रिंट में सान्या धींगड़ा और फातिमा खान की रिपोर्ट में बताया गया कि मोदी सरकार के कार्यकाल में आईएएस जैसी परीक्षा में मुस्लिम प्रत्याशियों की सफलता की दर में मामूली सुधार हुआ है। इसके अलावा संप्रग की तुलना में मौजूदा सरकार के कार्यकाल में अल्पसंख्यक छात्रवृत्तियां मुस्लिम छात्रों को अधिक मिली हैं। परंतु एक समानतापूर्ण व्यवस्था में देश की 15 फीसदी आबादी सत्ता और शासन में अपना वाजिब हक चाहेगी। हम आपको बताते हैं सन 2014 के बाद से इस सवाल का भाजपा क्या जवाब देती है: 'आप हमारे खिलाफ एकजुट होकर मतदान नहीं कर सकते और यदि आप हमारे शत्रु हैं तो आप सत्ता में हिस्सेदारी की मांग नहीं कर सकते।'
इस आलेख का जो शीर्षक हमने दिया है, उसका अर्थ यही रेखांकित करना है कि संवैधानिक समता की भावना को कितना क्षीण कर दिया गया है। आपको मतदान का अधिकार है, आप छात्रवृत्तियां लीजिए, नौकरियों और अन्य अवसरों का लाभ लीजिए लेकिन सत्ता में भागीदारी चाहिए तो सोच समझकर मतदान कीजिए। यह कितनी बुरी बात है कि देश की 15 फीसदी आबादी इतनी बिखरी हुई है कि लोकसभा में इसके केवल 27 सांसद हैं। यह मॉडल आपने कहीं और देखा होगा। इजरायल की विशाल मुस्लिम आबादी दुनिया की इकलौती अरब आबादी है जिसे मुक्त और स्वतंत्र मताधिकार, सुरक्षा, आर्थिक और सामाजिक अवसर उपलब्ध हैं। परंतु वहां भी राजनीतिक और सत्ता के ढांचे में उनकी पहुंच सीमित है। इजरायल एक गणतंत्र है लेकिन यहूदी गणतंत्र। भारत में भी मुस्लिमों के साथ ऐसा ही व्यवहार हो रहा है। फर्क केवल यह है कि भारत को कभी हिंदू गणराज्य के रूप में नहीं देखा गया, न सोचा गया। यहां आकर पूरी दलील नाकाम हो जाती है।
भारतीय मुस्लिम या भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिम कोई अखंड इकाई नहीं हैं। जरा सोचिए, दुनिया के कुल मुस्लिमों के 40 फीसदी उपमहाद्वीप में रहते हैं। इसके बावजूद इस क्षेत्र के मुस्लिमों में से आईएसआईएस में शामिल होने वालों की तादाद कभी कुछ सौ से आगे नहीं गई। इसमें भी भारतीयों की तादाद तो सौ तक भी नहीं पहुंची। क्यों? इसलिए क्योंकि उपमहाद्वीप के मुस्लिमों में भारत, पाकिस्तान या बांग्लादेश के रूप में अपने देश के प्रति राष्ट्रवाद की भावना भरी पड़ी है। उनके पास अपना ध्वज है, राष्ट्रगान है, क्रिकेट टीम है और अपने नेता हैं जिनसे वे प्यार और नफरत कर सकते हैं। मिथकीय इस्लामिक गणराज्य और खलीफा की अवधारणा उन्हें नहीं लुभाती। उपमहाद्वीप के अलग-अलग हिस्सों में मुस्लिम अपनी पहचान, भाषा, जातीयता, संस्कृति और राजनीतिक विचारधारा के आधार पर बंटबंटे हुए हैं। बांग्लादेश तभी अस्तित्व में आया जब सांस्कृतिक और भाषाई पहचान धार्मिक आधार पर बने द्विराष्ट्र पर भारी पड़ गई।
यह इस क्षेत्र की ताकत है और तकरीबन पूरे भारत पर यह लागू होती है। देश में वर्ष 2014 के बाद अप्रासंगिक बना दिए गए मुस्लिमों को यूं अलग थलग महसूस करना हमारे लिए अच्छा नहीं है। उनकी खामोशी को सहमति मानने की भूल नहीं की जानी चाहिए। भारतीय मुस्लिमों में एक नया मध्य वर्ग उभर आया है। एक शिक्षित और पेशेवर वर्ग भी उभरा है। वह पुराने वामपंथी उर्दू भाषी वर्ग या उलेमाओं को अपना नेता नहीं मानता। जैसा कि दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्वान आसिम अली ने लिखा, अब यह वर्ग कड़े सवाल कर रहा है, आप उनकी मत देने की प्राथमिकता के लिए दंडित कर अपना प्रतिशोध ले सकते हैं लेकिन यह आत्मघाती होगा। कोई देश या समाज अपनी आबादी के छठे हिस्से को हाशिये पर रखकर न तो समृद्ध हो सकता है और न सुरक्षित।
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